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“लौंडा नाच’ लोक कला के लिए एक अभिमान या अभिशाप”

"लौंडा नाच’ लोक कला के लिए एक अभिमान या अभिशाप"

लौंडा नाच बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक लोक कला है। एक नाच जिसका नाम सुनते ही लोग अपना खाना छोड़कर इसे देखने चल देते और रात भर इसे देखने के बाद ही अपने घर लौटते थे। 20वीं सदी के शुरुआत में प्रचलन में आई यह कला महज़ मनोरंजन का साधन भर नहीं था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक तरफ जहां गांधी जी सामाजिक बुराइयों को दूर करने की कोशिश कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ यह कला अपने कार्यक्रमों के माध्यम से उन सामाजिक बुराइयों के शिकार लोगों को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ उनकी बातें भी समाज के सामने पेश कर रही थी।

नाच के इस स्वरूप ने पहले पूर्वांचल फिर नेपाल और धीरे-धीरे यह भारत के गिरमिटिया मज़दूरों के साथ होते हुए मॉरीशस तक इसने अपनी पहुंच बनाई। लेकिन, खूब मशहूर होने वाला यह नाच अब हाशिए पर पहुंच गया है। एक वक्त जिस नाच का कार्यक्रम समाज के दबे-कुचले लोगों की आवाज़ हुआ करता था, वहीं आज यह अश्लीलता, देह व्यापार और मानव तस्करी का गढ़ बन गया है।

भिखारी ठाकुर ने इस कला के माध्यम से सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज़ बुलंद की 

विशेषज्ञों का मानना है कि नाच की इस विधा की शुरुआत 11 वीं शताब्दी में हुई थी। लेकिन, उस वक़्त यह केवल भोजपुरी क्षेत्र में मशहूर हुआ। लेकिन, समकालीन समय मे इसकी शुरुआत 20वीं सदी में भिखारी ठाकुर ने की थी। इसे लोकप्रिय बनाने के लिए उन्हें ही श्रेय दिया जाता है। बीसवीं शताब्दी के पहले कुछ दशकों में जब दुनिया क्रांतिकारी बदलाव देख रही थी, किसानों, दलितों, महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देते हुए, भिखारी ठाकुर ने थिएटर के माध्यम से उनके संघर्ष को दुनिया के सामने प्रदर्शित किया। भिखारी ठाकुर ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘बिदेसिया’ में बिहार की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। उनके इस अनमोल योगदान के लिए उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ भी कहा जाता है।

उनके द्वारा रची गई यही थिएटर ड्रामा बाद में ‘लौंडा नाच’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘लौंडा नाच’ कहलाने के पीछे भी एक कारण है जैसा कि आप सभी को पता है हमारे समाज में महिलाओं का हक और प्रतिनिधित्व शुरू से ही बहुत कम रहा है। उन्हें घर से बाहर भी निकलने नहीं दिया जाता था। वहीं दूसरी तरफ समाज के पिछड़े वर्ग के पास मनोरंजन का कोई साधन भी नही था। इसलिए महिला पात्रों के मंचन के लिए ‘भिखारी ठाकुर’ पुरुषों को ही महिलाओं की तरह सजा कर, महिला पात्रों का नाटक करवाते थे। साधारण भाषा में कहें तो, लौंडा मतलब ‘बैचलर पुरुष’ और नाच मतलब ‘नाचना’, इसी कारण से इसका नाम लौंडा नाच पड़ा।

भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया, बेटी बेचवा, पुत्र-वध, विधवा-विलाप, गबरघिचोर जैसे कई प्रसिद्ध नाटक लिखे। इन नाटकों के माध्यम से उन्होंने विधवा, महिला, प्रवासी मज़दूरों की मार्मिक कहानी रखी। बाल विवाह और दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई और महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की।

समय के बदलाव के साथ यह अश्लीलता का प्रतीक बन गया

समय के साथ, जैसे-जैसे देश में मनोरंजन के नए साधन खुलते गए, वैसे-वैसे ‘लौंडा नाच का पतन होता गया। आमतौर पर समाज में माइग्रेशन, नशे से होने वाले समाज पर दुष्प्रभाव, दहेज और महिलाओं की स्थितियों का चित्रण, लोगों का मनोरंजन करने वाले नर्तक अब केवल विवाह में बारात और दूल्हे के हल्दी समारोह, बच्चों के जन्म पर प्रदर्शन करने तक सीमित रह गए हैं। वर्तमान में ना केवल पुरुष बल्कि, ट्रांसजेंडर या यूं कहें की तीसरी श्रेणी के लोग भी इसमें शामिल हैं। तीसरी श्रेणी के लोगों को हमारा समाज बहुत हीन भाव से देखता है। इसलिए तमाम लौंडा नर्तकों की हमारे समाज में कोई इज्ज़त नहीं है।

अब इनकी कला की कोई कद्र नहीं रह गई है। यह उन पुरुषों के लिए केवल एक मनोरंजन का सस्ता साधन भर है। जो ‘लौंडा नर्तकों’ को मांस के सस्ते टुकड़ों के रूप में देखते हैं और उन्हें वस्तुगत करते हैं। इसका एक उदाहरण हमें फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के एक गाने ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया’ में हमें देखने को मिलता है।

समाज और सरकार के उचित सरंक्षण के अभाव में दम तोड़ती लोक कला 

इसलिए नाच के इस विधा ने स्वयं को व्यावसायिकता की भूख में खो दिया है। कई युवा अभी भी इस कला का प्रदर्शन कर रहें है, लेकिन ये केवल उनकी अपनी भूख मिटाने का मजबूर रास्ता है। सरकार ने डांस के इस फॉर्म के लिए कोई सुरक्षा नहीं दी है, वे केवल ‘भिखारी ठाकुर’ के नाम पर दंभ भरते हैं। जिससे लोककला का यह क्षेत्र दुरुपयोग के लिए एक क्षेत्र बन गया है।

कई युवा कलाकार आए दिन शोषण के इस संगठित पैटर्न का शिकार बन रहें हैं। जिनमें वेश्यावृत्ति, हिंसा, यौन हमले और यौन संचारित संक्रमण शामिल हैं। चूंकि वर्तमान में ‘लौंडा नर्तक’ विशेष रूप से शादियों में पुरुषों की सभा में प्रदर्शन करते हैं, इसलिए उन्हें “शादी की भावना” के नाम पर शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार किया जाता है। पुरुष अपनी वासना को शांत करने के लिए उनको काफी हद तक उनके प्राइवेट पार्ट को छूते और टटोलते हैं।

इन सबसे पता चलता है कि अभी भी हमारा समाज कई कुप्रथाओं, रुढ़िवादी और पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। हमारा समाज नाच-गाना जैसी कलाओं, महिलाओं और तीसरे श्रेणी के लोगों को अभी भी ठीक से स्वीकार नही कर पाया है। इसलिए हमारी चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि वहां पुरुष हैं, जो महिलाओं के रूप में कपड़े पहनते हैं, बल्कि हमारी चिंता यह होनी चाहिए कि वहां पुरुष भी हैं जिन्हें महिलाओं के रूप में कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें वेश्यावृत्ति, हिंसा, यौन हमले का शिकार बनाया जा रहा है।

हमारा उद्देश्य लौंडा नाच को रोकने या बंद कराने के बजाय इस कला या परंपरा को एक सम्मानजनक लोक कला के रूप में पुनर्जीवित करने पर होना चाहिए। जिससे इस कला से जुड़े व्यक्तियों को उनका रोज़गार और सम्मान फिर से मिल सके।

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