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“सत्ता कब तक राजद्रोह का डर दिखा कर जनता को चुप कराती रहेगी?”

सत्ता कब तक राजद्रोह का डर दिखा कर जनता को चुप करती रहेगी?

अभी सुबह-सुबह दो बड़ी खबरें आ रही हैं। पहली खबर असम से है। असम की पत्रकार शिखा शर्मा को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। दूसरी खबर बस्तर के जंगलो से है। माओवादियों ने अर्धसैनिक बल के पकड़े हुए सैनिक राकेश्वर सिंह को सकुशल छोड़ दिया है।

दोनो खबर ही आज मुल्क के लिए अहम हैं। दोनों खबरें ही साम्राज्यवादी ताकतों, फासीवादी भारतीय सत्ता, गोदी मीडिया व आई टी सेल के रक्तपिपासुओं को आइना दिखा रही हैं।

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक व सभ्य कहे जाने वाले मुल्क ने अपनी एक महिला पत्रकार को सिर्फ इसलिए राजद्रोह के केस में अंदर डाल दिया क्योंकि, उसने सत्ता के खिलाफ मुंह खोलने और अपनी आवाज़ बुलंद करने की कोशिश की थी। उसने सत्ता के रवैये के खिलाफ सवाल उठाया था।

वहीं दूसरी तरफ जिन नक्सलियों (माओवादियों) को दुर्दान्त, आदमखोर, मानव जाति के दुश्मन, हत्यारे, आतंकवादी, अलोकतांत्रिक की संज्ञा सत्ता व गोदी मीडिया द्वारा दी जाती है। उन्होंने 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद पकड़े गए अर्धसैनिक बल के जवान राकेश्वर सिंह को सकुशल छोड़ दिया है। यहां यह याद ज़रूर रखना चाहिए कि सैनिक राकेश्वर सिंह उस मुठभेड़ में माओवादियों के खिलाफ लड़ा था, जिसमें माओवादियों के 4 साथी मारे गए थे।

लेकिन, माओवादियों ने राकेश्वर सिंह जो घायल भी था उसको पकड़ने के बाद सबसे पहले उसका इलाज किया। उसके बाद उसको हज़ारों गांव वालों के सामने पेश किया जिसको वहां की भाषा में जन अदालत बोलते हैं। जन अदालत में राकेश्वर सिंह को भी अपनी बात रखने का मौका दिया गया। उसके बाद जन अदालत ने उसको छोड़ने का फैसला किया। इससे पहले भी 3 अप्रैल की मुठभेड़ के बाद जिसमें अर्ध सैनिक बल व पुलिस के 22 जवान मरे थे, उनके परिवार के प्रति माओवादी एक प्रेस नोट जारी करके दुःख व संवेदनाएं व्यक्त कर चुके हैं।

मुल्क की सत्ता जो लोकतांत्रिक होने का दावा करती है, क्या वो ऐसा करती है?

वर्तमान में भारत, लोकतंत्र से हिटलरशाही की तरफ बढ़ रहा है। मुल्क की सत्ता पर काबिज संघ समर्थित पार्टी भाजपा जो भारत को हिटलर-मुसोलिनी की विचारधारा का मुल्क बनाना चाहती है। हिटलर जो एक क्रूर तानाशाह था। जो करोड़ों इंसानों की मौत का ज़िम्मेदार था। जिसने अपने राज्य में उन सभी आवाज़ों को बंद कर दिया जिसमें सत्ता के विरोध की बू आती थी। उन सभी आवाज़ों को भी बन्द कर दिया गया जो लोकतंत्र की चाह रखते थे।

आज भारत में भी ठीक वैसा ही हो रहा है, जैसे हिटलर के जर्मनी में हो रहा था। मुल्क में जो भी अपने हक की बात करता है, जो भी लोकतंत्र की बात करता है, रोटी-कपड़ा-मकान की बात तो छोड़िए जो आज इंसान बनकर ज़िंदा रहने की बात करता है। उस पर सत्ता राजद्रोह का केस दर्ज करके जेल के शिकंजे में डाल देती है।

पिछले 7 साल में राजद्रोह के आरोप में हज़ारों लोगों को जेल में डाला गया है। जो लंबे समय तक जेल में रहे हैं। 2014 में 47, 2015 में 30, 2016 में 35, 2017 में 51, 2018 में 70 राजद्रोह के केस दर्ज किए गए। हालांकि, इनमें से गिनती के एक-आध मुकदमे में ही आरोपी को दोषी माना गया। इसके बाद 2019 के बाद तो जैसे सत्ता अराजक ही हो गई। इसके बाद राजद्रोह के तहत मुकदमे दर्ज करने की अचानक बाढ़ सी आ गई।

नागरिकता संबंधी नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के विरोध में प्रदर्शन करने वाले 3,000 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया। ऐतिहासिक किसान आंदोलन में सत्ता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे 3,300 किसानों के खिलाफ राजद्रोह के तहत मुकदमे दर्ज किए गए। इसके साथ ही, कई पत्रकारों, लेखकों और एक्टिविस्टों के खिलाफ भी ऐसे केस दर्ज हुए हैं।

ताजा मसला असम की 48 वर्षीय महिला पत्रकार शिखा शर्मा का है। शिखा शर्मा जो लंबे समय से पत्रकारिता कर रही हैं। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी। वो पोस्ट में लिखती हैं कि –

“वेतन पर काम करने वाला अगर ड्यूटी पर मर जाए तो शहीद नहीं होता। अगर ऐसा हो तो बिजली से मरने वाले बिजली कर्मचारी भी शहीद की श्रेणी में होने चाहिए। जनता को भावुक मत बनाओ न्यूज मीडिया” 

शिखा शर्मा ने ये पोस्ट छतीसगढ़ में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में मारे गए 23 जवानों के संदर्भ में लिखी है। शिखा की इस पोस्ट के बाद असम की गुवाहाटी हाई कोर्ट की वकील उमी देका बरुहा और कंगकना गोस्वामी ने उनके खिलाफ दिसपुर पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज कराया है। आईपीसी की धारा 124A (राजद्रोह) सहित अन्य धाराओं के तहत शिखा को गिरफ्तार कर लिया गया है।

क्या शिखा का सवाल उठाना राजद्रोह है?

क्या एक लोकतांत्रिक सत्ता अपने नागरिक को सिर्फ सत्ता की नीतियों पर सवाल उठाने पर राजद्रोह के केस में जेल में डाल सकती है? लेकिन सत्ता ने ऐसा अनेको बार किया है। वहीं दूसरी तरफ माओवादी हैं जिन्होंने दुश्मन खेमे के पकड़े गए सैनिक को सकुशल छोड़ दिया है।

क्या भारत सरकार ने माओवादियों के साथ तो छोड़ो क्या कभी अपने नागरिकों के साथ मानवीय व्यवहार किया है? भारत सरकार ने तो अपने आम नागरिकों को सिर्फ सत्ता की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ मुंह खोलने के कारण ही गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम UAPA या राजद्रोह के तहत जेलों में लंबे समय के लिए बंद कर दिया है।

वरवरा राव जिनकी उम्र 83 साल है, जो अनेको बीमारियों से ग्रसित हैं। स्टेन स्वामी जो बीमार हैं,  प्रो. GN साईं, जो 90 प्रतिशत अपंग हैं। ऐसे ही सुधा भारद्वाज, अखिल गोगोई इन सबका अपराध सिर्फ इतना था कि उन्होंने सत्ता की लूट नीति के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई लेकिन क्रूर सत्ता ने इनके साथ भी जेल में अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं।

क्या है राजद्रोह की धारा 124A

सबसे पहले तो हमको 124A जैसी जनविरोधी कानूनी धारा को जानना चाहिए। राजद्रोह के मामलों में आईपीसी की जो धारा 124A लगाई जाती है, वास्तव में उसे थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने ड्राफ्ट किया था और इसे आईपीसी में 1870 में शामिल किया गया था लेकिन, आज़ाद मुल्क में समय-समय पर इस धारा के खिलाफ आवाज़ें उठती रही हैं। महात्मा गांधी ने इसे ‘नागरिकों की स्वतंत्रता का दमन करने वाला कानून’ करार दिया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस कानून को ‘घिनौना और बेहद आपत्तिजनक’ बताकर कहा था कि इससे जल्द से जल्द छुटकारा पा लेना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट भी राजद्रोह के दुरुपयोग पर कड़ी टिप्पणी कर चुकी है। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार स्टेट मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “भले ही कठोर शब्द कहे गए हों, लेकिन अगर वो हिंसा नहीं भड़काते हैं तो उस व्यक्ति पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता।” इसी तरह, बलवंत सिंह बनाम पंजाब स्टेट मुकदमे में कोर्ट ने कहा था कि “खालिस्तानी समर्थक नारेबाज़ी राजद्रोह के दायरे में इसलिए नहीं थी क्योंकि, समुदाय के और सदस्यों ने इस नारे पर कोई जवाब नहीं दिया।”

लेकिन, हमारे मुल्क की फासीवादी सत्ता जिसका ना लोकतंत्र में विश्वास है और ना ही वह सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन को तरज़ीह देती है। जो भी सत्ता से सवाल करता है वह उसका मुंह बंद करने के लिए राजद्रोह का इस्तेमाल करती है।

क्या शिखा शर्मा ने एक जायज़ सवाल उठा कर इतना बड़ा अपराध कर दिया है कि उसके इस सवाल को राजद्रोह की श्रेणी में रखा जा रहा है। उनकी गिरफ्तारी कर दी गई है। उन्हें सोशल मीडिया पर बेहूदा से बेहूदा गालियां दी जा रही हैं।

क्या आपको अब भी लगता है कि हम लोकतांत्रिक मुल्क में रह रहे है? 

सरकार की नजर में शहीद कौन है?

सबसे पहले तो हमको ये जानना ज़रूरी है कि सरकार शहीद किसको मानती है। सरकार सेना को छोड़ किसी भी अर्धसैनिक बल को ड्यूटी के दौरान मरने पर कभी भी शहीद का दर्जा नहीं देती है और ना ही अर्धसैनिक बलों की 2004 के बाद पेंशन होती है। जनता को सत्ता से सवाल करना चाहिए कि सरकार की ऐसी नीति क्यों है?

दूसरा सवाल यह भी करना चाहिए कि बॉर्डर पर मरने वाला शहीद है तो मुल्क के अंदर सीवर की सफाई करते हुए मरने वाला सफाई कर्मचारी शहीद क्यों नहीं? बिजली के करंट से मरने वाला सरकार का कर्मचारी शहीद क्यों नहीं है?  साम्राज्यवादी लुटेरों से जल-जंगल-ज़मीन को लूटने से बचाने वाला आदिवासी शहीद क्यों नहीं? खेती की ज़मीन को कॉर्पोरेट से बचाते हुए किसान आंदोलन में मरने वाला किसान शहीद क्यों नहीं? अपनी मेहनत का दाम मांगने पर मालिक के गुंडों या पुलिस की लाठी-गोली से जान देने वाला मजदूर शहीद क्यों नहीं है?

लेकिन, मुल्क की बहुमत जनता को इन सवालों से कोई लेना-देना नहीं है। जनता को तो युद्ध में मजा आता है। उसको बहता हुआ खून, मासूमों की सिसकियां, बलात्कार पीड़ित महिलाएं, खून से नहाई हुईं लाशें अपने दुश्मन की देखनी होती हैं।

दुश्मन कौन है?

मुल्क की सत्ता व गोदी मीडिया ने झूठे प्रोपेगेंडे के तहत आपके सामने एक नकली दुश्मन पेश कर दिया है। वो दुश्मन कभी पाकिस्तानी होता है, कभी कश्मीरियत व कश्मीर को बचाने के लिये लड़ रहा कश्मीरी होता है, कभी जल-जंगल-ज़मीन को लुटेरे पूंजीपति से बचाने के लिये लड़ता बस्तर का आदिवासी होता है।

कभी पूर्व राज्यों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली जनता दुश्मन होती है, तो कभी मजदूरी मांगने वाला मज़दूर या कोरोना में अपने घर पैदल जाने वाला मुल्क का बेबस इंसान तो कभी खेती को बचाने के लिए लड़ रहा किसान दुश्मन होता है, तो कभी जनविरोधी कानून नागरिकता संशोधन अधिनियम व नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप के खिलाफ लड़ने वाला मुस्लिम दुश्मन होता है।

बहुमत जनता को सत्ता ने एक ऐसे रोबोट में परिवर्तित कर दिया है जो अपनी बुद्धि से सोचना बंद कर चुकी है। जैसे सत्ता उसको नचा रही है वह वैसे ही नाच रही है। जब आप अपने हक की बात करते हो तो आप रोबोट के सामने दुश्मन के रूप में खड़े होते हैं।

अब फैसला आपको करना है कि आप महज़ एक रोबोट बने रहकर मुल्क को बचाने वालों का खून देखने की ललक जारी रखेंगे या एक इंसान बनकर मैदान में उतरकर जालिम हिटलर की बन्दूक की नाल को पकड़ कर मरते हुए मुल्क को बचाएंगे। 

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