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नक्सलवाद के उदय एवं इसके दक्षिणपंथी उग्रवाद का प्रत्युत्तर क्यों और कितना सही?

नक्सलवाद और उसकी समस्याएं

सर्वप्रथम 4 अप्रैल, 2021 को छत्तीसगढ़ के सुकमा-बीजापुर सीमा पर हुए माओवादी हमले में शहीद हुए भारतीय वीर सपूतों को नमन जो अपना फर्ज निभाते हुए देश की सेवा में शहीद हो गए।

अब हम बात करें नक्सलवाद की तो सबसे पहले हमें यह समझना बहुत आवश्यक है कि इसका मुख्य कारण क्या है? हम इसको इस उदाहरण से समझ सकते हैं जैसे- अमेरिका की आक्रामक नीतियां आतंकवाद की जड़ हैं उसी प्रकार दक्षिणपंथी आक्रामक नीतियां (सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक शोषण) ही नक्सलवाद की उत्पत्ति का मूलभूत कारण है।

नक्सलवाद का उदय 

इसकी शुरूआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई और इसी गाँव में नक्सलबाड़ी आंदोलन पनपा। इस आंदोलन की गहराई में जाएं तो हमें पता चलता है कि इस समस्या का जनक वही शोषक वर्ग है जो सर्वहारा वर्गों का सामाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से शोषण करता आया है। गरीबों, मज़दूरों, मेहनतकशों, महिलाओं व वंचित वर्गों को उनके मूलभूत अधिकारों से दूर करता आया है।

नक्सलबाड़ी आंदोलन इसी अन्याय के खिलाफ चलाया गया एक सशस्त्र संघर्ष था जिसका उद्देश्य साहूकारों, भूमिधरों व सामन्तों के द्वारा किये जा रहे शोषण व अत्याचार का प्रत्युत्तर व जन विद्रोह था। इसके बाद से ही नक्सलबाड़ी आंदोलन ने नक्सलवाद का रूप ले लिया और कालांतर में पूरे भारत मे रेड कॉरिडोर (नेपाल के पशुपति से दक्षिण भारत के तिरुपति तक) फैल गया।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इन क्षेत्रों में अधिक गरीबी,अशिक्षा तथा सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़ापन ही सशस्त्र संघर्ष का कारण है। इन क्षेत्रों में जनकल्याणकारी योजनाओं का ना होना तथा विभिन्न सरकारों द्वारा इन क्षेत्रों तथा यहां के लोगों की मूलभूत समस्याओं को नजरअंदाज़ करना नक्सलवाद को पनपने देता है। इसके साथ ही इन क्षेत्रों में लोगों की ज़मीनों को साहूकारों व भूमिधरों के द्वारा हड़प कर लेना और यहां मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का मनमाने ढंग से प्रयोग करना यहां की जनता में असंतोष उत्पन्न करता है।

दक्षिणपंथी विचारकों की नज़र में नक्सलबाड़ी आंदोलन

कुछ दक्षिणपंथी विचारकों का यह मानना है कि नक्सलवादियों का उद्देश्य आर्थिक या सामाजिक असमानता से लड़ना नहीं है बल्कि, उनका उद्देश्य राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति है। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो उनका यह मत कुछ हद तक सही भी है क्योंकि नक्सलवादियों का संघर्ष केवल ज़मीनों को वापस लेना नहीं है बल्कि, राजनीतिक गैरबराबरी तथा पूंजीपतियों के शासन का अंत भी है।

दक्षिणपंथियों द्वारा यह आरोप लगाया जाना कि 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के पुणे में आयोजित भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं वर्षगांठ पर हुई हिंसा में शहरी नक्सलियों (Urban Naxals) का हाथ था और एल्गार परिषद (Elgar Parishad) ने यह हिंसा कराई कदापि उचित नहीं है। हालांकि, बार-बार ऐसे आरोप लगाना दक्षिणपंथी अतिवाद का उदाहरण प्रस्तुत करता है।

वर्तमान समय में नक्सलवादी अपने मूल लक्ष्य से भटके हुए नज़र आ रहे हैं और दक्षिणपंथी उग्रवादियों की भांति  ही निर्दोषों की मौत का कारण बन रहें हैं।

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