Site icon Youth Ki Awaaz

“ऑफिस ना भी खुले तो कोई दिक्कत नहीं, घर-परिवार का साथ अच्छा लग रहा है”

कोरोना, फिर जनता कर्फ्यू, कामगारों का घर लौटना और फिर उसके बाद लंबे लॉकडाउन के दुखद दौर से डायरी लिखनी शुरू की और दो हिस्सों में उन दिनों के कुछ अनुभव बयानी लिखी। लगा कि तीसरे हिस्से की ज़रूरत नहीं पड़ेगी लेकिन उसके बाद आया वर्क फ्रॉम होम का दौर।

अब जबकि मैं ये तीसरा हिस्सा लिख रहा हूं, तब कोरोना ने फिर से अपनी ताकत दिखानी शुरू कर दी है। हम 8 हज़ार के उम्मीद भरे आंकड़े से बहुत दूर 81 हज़ार के आंकड़े पर फिर से खड़े हैं।

घर लौटने से पहले मन में कई तरह के प्रश्न थे

लॉकडाउन का शुरुआती समय सबके लिए मानसिक रूप से कष्ट देने वाला था क्योंकि इसने सालों की दिनचर्या को एकदम पलटकर रख दिया था लेकिन धीरे-धीरे गतिविधि शुरू हुई और लगा सब नॉर्मल होने को है। दफ्तर-बाज़ार खुलने लगे थे लेकिन अभी फिर से पिछले साल वाली स्थिति हो रही है। बस उस वक्त जैसा डर का माहौल नहीं है।

जो एक साथ अच्छी और बुरी बात दोनों है। अच्छी इसलिए कि लोग भय में नहीं जी रहे और बुरी इसलिए कि ये बेफिक्री ठीक नहीं है। इससे नुकसान बढ़ेगा ही, घटेगा तो बिलकुल नहीं। खैर! 6 महीने एक कमरे में बिताने के बाद मैंने घर लौटने का फैसला किया। वहां से आने के लिए सोचते-सोचते दो महीने बिता दिए थे। तमाम बातें आ रही थी मन में।

ट्रेन से जाना ठीक है या नहीं, घर के लोगों को परेशानी ना हो जाए, वहां इंटरनेट चलेगा कि नहीं, मन लगेगा कि नहीं, काम कर पाऊंगा कि नहीं या अगर मन ना लगा तो फिर वापस आ पाऊंगा या नहीं? आखिरकार निकल ही लिया। तब का आया आज 6 महीने बीत गए और मैं अभी तक ये नहीं समझ पा रहा कि इतने दिनों में मैंने क्या-क्या किया और कैसे बीते?

वर्क फ्रॉम होम के साथ घर और खेती-बाड़ी में घुलमिल गया

घर आने के कुछ दिन तक तो ऑफिस के काम के लिए व्यवस्था बनाने में लगे और फिर धीरे-धीरे घर, गांव, समाज और खेती में घुलमिल गया और वो ऑफिस वाला रूटीन। पहले रह-रहकर बीच-बीच में सोचता था कि कि इन महीनों में मैंने क्या-क्या किया? फिर लगता कि क्यों ही सोचना? शायद समय की ज़रूरत है और यही शायद मौका भी है।

घर से निकले 12 साल हो गए और इन 12 सालों में पहली दफा ऐसा हुआ कि इतने लंबे वक्त तक घर रह रहा हूं। घर पर रहकर नौकरी और घर, खेती, गाँव-समाज साथ-साथ चल रहा है और अब इसी में ढल सा गया हूं। लगता है एकाध साल ऑफिस ना खुले तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है। जैसे चल रहा है अच्छा है। ठंड में आया था और तब से सरसों बो कर काट भी लिया। एक फसल तो पूरी हो गई और अब दूसरी की बारी है, जो जारी है।

गर्मी के लिए सब्ज़ियां लगा दिया हूं। बैंगन, टमाटर, भिंडी, धनिया, पालक, करेला, लौकी और थोड़ी-थोड़ी मूंग-उड़द भी। सच बताऊं तो जब बोने के 5-7 दिन बाद धनिये की दो पत्तियां और भिंडी निकली तो बड़ा अच्छा लगा।

जब पहली बारी में चार बैंगन मिले तो लगा, वाह यही तो करना था और नौकरी के साथ-साथ ये सब हो गया तो कितना सुंदर है। अब सुबह की दिनचर्या हो गई है सब्ज़ियों को पानी देना। उन्हें बड़ा होते देखना, उनकी घास निकालना, और बीच-बीच में उसका फल मिलना।

परिवार के साथ समय देना अच्छा लग रहा है

एक और ज़रूरी चीज़ समझ आई इस वर्क फ्रॉम होम के दौर में, कि हर रोज़ दोनों टाइम सालों तक एक ही तरह के पैटर्न में खाना बनाना और घर का काम करना कितना पीड़ादायक होता है। यह बिलकुल भी आसान नहीं है, बिलकुल भी। हम कुछ दिन में एक तरह का काम करके ऊब जाते हैं लेकिन ये सिलसिला सालों से चला आ रहा है। उस व्यक्ति की मानसिक पीड़ा का कोई अंदाज़ा नहीं है।

इसलिए इन कामों के बीच जो वक्त मिल पाता है उसे मैं घर के कामों और किचन में बिताता हूं। महसूस करता हूं कि ये लगातार करके कोई किसी का सिर भी फोड़ दे तो उसे माफी मिल जानी चाहिए। शौक से करना और मजबूरी से करने में बहुत बड़ा अंतर है। जो भी बाहर रहता है, महिला या पुरुष, उनमें बहुत से लोग से खाना बनाते हैं। मगर वो पैटर्न ‘घर’ के पारम्परिक सिस्टम से बिल्कुल अलग है।

खैर! जब लगा कि ये दौर भी लंबा चलेगा, तो मैंने उस तरह से ही सोचना शुरू किया। इस बीच कुछ किताबें पढ़ीं, कुछ कविताएं लिखीं, और भी बहुत कुछ लिखा।

सोचा कि जब ये सब खत्म होगा और पीछे मुड़कर देखूंगा तो लगेगा, कि अरे ये तो समस्या के साथ ही एक मौका भी था। समय का सदुपयोग करने का। बहुत कुछ सहेजने का। इसके ज़रिए मुझे ये महसूस हो रहा है कि हर चीज़ को सार्थकता के पैमाने पर क्यों तौलें? हम घर पर हैं। अपने परिवार के साथ हैं। उनको समय दे रहे हैं, उनको और उनकी समस्याओं को समझ रहे हैं। बुनियादी चीज़ों पर ध्यान दे रहे कि क्या ज़रूरी है, क्या नहीं! अब ये सिलसिला कब तक चलेगा पता नहीं लेकिन फिलहाल जैसा चल रहा है, चल ही रहा है।

उम्मीद करता हूं कि इस विषय पर आगे लिखने की ज़रूरत ना पड़े। इसे के साथ डायरी का ये पन्ना पलटता हूं।

Exit mobile version