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सरकारी आंकड़े नहीं,महामारी का कहर जलती चिताएं बयां कर रही हैं

सरकारी आंकड़े नहीं,महामारी का कहर जलती चिताएं बयां कर रही हैं

संविधान की अनुकृति और आत्मार्पण से ही विश्वास का लबादा व्यवस्था नाम के सरकारी कंधो को ढोने का जिम्मा  सहमति से कुछ चुने लोगो को थमा दिया गया था। जिन्होंने अंग्रेज़ी प्रचलित पंरपराओं के उपस्थिति में सजग चेतना के साथ तत्कालीन समयानुकूल ढर्रे पर ही चलना औचित्यपूर्ण समझा और साथ ही नवघोषित मालिक अर्थात जनता ने भी इसे ही सुयोग्य माना।

इसी के साथ प्रतिनिधि के चयन में सिर्फ स्वाद अनुसार भेद करके कुछ क्षम्य लोगो को अपनी (जनता की) सेवा करने का अवसर दिया जिससे उनके दैनिक वार्षिक और भविष्य प्रगति को औपचारिक संदर्भ का आधार मिल सके। परंतु, महत्वपूर्ण यह है कि मालिक अभी भी जनता ही है और चुनाव जैसी परिकल्पना को स्रोत से इतर अप्रत्यक्ष व वैकल्पिक यंत्र के रूप में संचालित किया गया।

वर्षों दर वर्षों के बाद स्वार्थी संगतियो और सेवा शब्द के कुतर्क ने प्रतिनिधियों को मालिक, चुनाव जैसी वैकल्पिक चयन व्यवस्था को स्थाई और जनता को गली का आवारा कुत्ता बना दिया जिसे अपने ही संसाधनों के लिए भेदभाव वाले वितरण में आज भीख मांगने की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।

आज की महामारी की स्थिति में जनता को अपनी स्वास्थ्य जैसे आधारभूत मांग में भी मृत्यु को ही स्वीकार करना पड़ रहा है। छद्म संघर्ष ने राष्ट्र जैसे सामूहिक संगठन में भी अविश्वास घोल दिया है जहां राष्ट्र वास्तविक संपत्ति अर्थात हमारी नवपीढ़िया भी इसका शिकार हो रही हैं। ज़िम्मेदारी स्वरूप वर्तमान सरकारें चाहे वो विकेंद्रीकरण से बनी हों या त्रिकोण के शीर्ष पर आज सभी हो रही एक-एक मृत्यु के लिए उत्तरदायी हैं।

इस विकास के दौर में ऑक्सीजन,अस्पताल, इंजेक्शन, टीका जैसे शुरुआती संरचनाओं के अभाव से होने वाली मृत्यु को सरकारी हत्याओं के रूप में देखा जाना चाहिए। जो पहले ही आर्थिक गरीबी, भूख जैसे प्रारंभिक दंशों को अभी तक नहीं मिटा पाई है। इन्ही वजहों से इनका (सरकार का) अविष्कार भी हुआ था और देश में प्रतिदिन हो रही मृत्यु की गणनाएं वर्तमान ज़िम्मेदारियों के औचित्य को शून्य सा करती प्रतीत हो रही हैं।

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