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एक विधवा के मन की व्यथा और समाज की दकियानूसी सोच की कथा है फिल्म पगलेट

पगलेट-मूवी: एक विधवा के मन की व्यथा एवं समाज की दकियानूसी सोच की कथा है पगलेट

आस्तिक की मौत से उसकी तेहरवीं तक संध्या की ज़िन्दगी कैसे बदलती है? पगलैट और भी कई गंभीर मुद्दों को बहुत ही हलके-फुल्के अंदाज़ में कहती है।  

नेटफिलिक्स पर हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म पगलेेट में निर्देशक उमेश विष्ट ने जो कहानी सुनाई है उससे कम शब्दों में कहूं तो समाज की हिपोक्रेसी पर तल्ख टिप्पणी है। जो हमारे सामाजिक जीवन में रच-बस गया है। सबसे धारदार तल्ख टिप्पणी यह है कि “लड़की के लिए पूरी दुनिया सोचती है लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि वो क्या सोचती है?”

इसमें लड़की के मां-बाप, सास-ससुर भी शामिल हैं और बाकि लोग बिन-बुलाए मेहमान। इसके साथ-साथ उस ओपेन माइंड पर भी जो जाति-धर्म देखकर चाय के कप तक बदल देते है, खाना भी बाहर खिलवाते हैं।

एक समय यह लगता है कि कहानी एक नवविवाहित विधवा कि कहानी है जिसे उसके पति के मर जाने का कोई दुःख नहीं हो रहा है। पर नहीं, यह कहानी जिंदगी से भरपूर अपनी जिंदगी के तलाश में एक भरी-पूरी उस औरत के अरमानों की कहानी है, जो अग्रेजी में एम.ए है और अपने मृत पति की नौकरीपेशा प्रेमिका को देखकर काम्प्लैक्स से घिरने लगती है। इतना अधिक कि वह अपने मृत पति को माफ भी नहीं करना चाहती है, लेकिन ये एक शुरुआत है उसकी बाकी की ज़िन्दगी अभी बाकी है।

पगलैट की कहानी क्या है?

लखनऊ के शांतिकुंज निवास में बसे गिरी परिवार के बेटे आस्तिक की अचानक मौत हो गई है(आस्तिक कौन है, यह एक अनबुझा सा सवाल है क्योंकि पूरी कहानी में उसकी एक तस्वीर तक नहीं दिखाई गई है)। परिवार में रिश्तेदारों का आना लगा हुआ है, लोग संवेदना कम दे रहे हैं लेकिन नवविवाहित विधवा के बारे में अधिक सवाल कर रहे हैं।

आस्तिक की पत्नी संध्या (सान्या मल्होत्रा) को पति के जाने पर रोना नहीं आ रहा है ना ही कोई अफसोस हो रहा है। वह फेसबुक अपडेट चेक कर रही है, पेप्सी पीना चाहती है और मसाले वाले चिप्स खाना चाहती है। डाक्टर से जांच करवाने के बहाने से घर के बाहर निकल रही है और गोलगप्पे खा रही है, लखनऊ घूम रही है।

संध्या के माता-पिता और दोस्त नाज़िया जैदी तक इससे हैरान हैं। संध्या को यह भी पता चलता है कि आस्तिक का एक्स्ट्रा-मैरिटल अफेयर भी था और अब वह आस्तिक को माफ नहीं करना चाहती है।संध्या को अपनी मां पर भी गुस्सा है, जो अक्लमंद होने के नाम पर सिर्फ अपनी बेटी की नज़र उतारती है। उसे अंगूठियां पहनाती है, लेकिन अपनी बेटी की जिम्मदारी से सिर्फ इसलिए मुक्त होना चाहती है कि उसकी दो छोटी बहनें घर पर बैठी हैं।

उसका गुस्सा ससुराल के लोगों पर भी है जो उसकी शादी करवाना चाहते हैं। आस्तिक ने अपना 50 लाख का इंश्योरेंस करवाया था जिसकी नॉमिनी संध्या है, इसका पता चलते ही शांतिकुज में हलचल शुरू हो जाती है। क्या क्या प्लान बनाते हैं ये लोग संध्या के लिए, सिर्फ इसलिए कि मोटी रकम हाथ से ना निकले।

आस्तिक की मौत से उसकी तेहरवीं तक के तेरह दिन संध्या की ज़िन्दगी कैसे बदलती है, पगलैट इस गंभीर मुद्दे को बहुत ही हलके-फुल्के अंदाज़ में कह जाती है। संध्या, आस्तिक को माफ करती है या नहीं, वह रो पाती है या नहीं? उसकी जिंदगी का क्या होता है? शांतिकुंज में कैसे-कैसे उठक-पटक मचती है, इन सब को जानने आपको पगलैट देखनी चाहिए।

फिल्म की खासयित

निर्देशक उमेश विष्ट ने पगलैट की कहानी, जिसमें मानवीय संवेदनाओं को ना केवल पकड़ा है बल्कि,उसको कैमरे में कैद भी किया है। पगलैट की कहानी कहने में समाज के कई हिपोक्रेसी पर तंज करके एक संदेश देने की कोशिश भी की है – जो स्वयं को ओपेन माइंड कहता है पर सामाजिक दोगलेपन का शिकार है। वह भी इस हद तक कि छोटे भाई के बेटी के पीरियड्स पर बातें करने पर उसका मुंह चुप कराने लगता है और कहने लगता है, “और दिखाओ पैडमैन, सब सुपरमैन बन रहे हैं।”

फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है इसका संवाद, जिसे बहुत सटीक तरीके से कहानी को कहने में पिरोया गया है। फिल्म के बेहतरीन संवादों के कारण ही तमाम कलाकारों के अभिनय एकदम नपे-तुले हैं ना ज़्यादा ना ही कम, एकदम बिल्कुल संतुलित है।

पूरी कहानी में दूसरी खूबी यह है कि कहानी ना कभी इधर- उधर जाती है ना ही अपने क्रम से फिसलती है। एक सीधी रेखा पर चलती है, एक ही टोन में और कहानी का टोन एकदम स्थिर है। पूरी कहानी आस्तिक की मौत के हादसे से जुड़ी हुई है पर उसकी तस्वीर तक का सामने नहीं आना, ना ही हैरान करता है ना ही परेशान कि आस्तिक था कौन? वह नहीं होकर भी कहानी में साथ-साथ चलता है।

कहानी का सबसे खूबसूरत पक्ष है इसका अंत है जो धारणाओं को तोड़ना है। आस्तिक के तेरहवीं के हवन में उस परिवार की बहू अपनी मुस्लिम दोस्त नाज़िया जैदी को भी शामिल करती है और एक अरेंज मैरिज में शिक्षित महिला का रूढ़िवादी घर से कर्तव्यपरायण बहू के दायरे से बाहर निकलना सुखद है।

जहां वह खुद की दबी सोच से भी आज़ाद हो जाती है और कहती है, “हम अपने फैसले खुद नहीं लेगे तो हमारे लिए फैसले दूसरे ले लेंगे। फिर चाहे वह हमको पसंद हो या ना हो। इसलिए कुछ तो करना होगा ना।” यह गिरी परिवार के शांतिकुंज में मानसिक युद्ध के बाद शांति संधि की तरह है।

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