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पर्वतों की सुरमई वादियों में, न तुम निकल पाए ना हम

पर्वतों की सुरमई वादियों में,
घिरे हुए हम तमाम आंधियों में
न तुम निकल पाए ना हम,
पाषाण से हो गए हम सदियों में

तरंगित प्रेम पिघल उठा,
सरित सरोज मन जल उठा
धरा का अजीब आलिंगन है
कुसुम सा महक उठा तन मन है

सहज हमने स्वीकार कर ली,
पर्वतों से निकली श्रंखला अपनी
कितना भी द्रवित हो जाएगा,
पाषाण तो पर्वत ही कहलाएगा

सर्दी गर्मी और बरसात का,
हर बार स्वागत करता हूं
पर कोई समझता ही नहीं है,
कि मैं भी किसी से प्यार करता हूं

तलब बहुत है अब भी मन में मेरे
भूकंप भी आते हैं जीवन में मेरे
अपनी गलतियों को हर बार
स्वीकार करता हूं

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