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कविता: अब तो जनादेश बोलो

कविता: अब तो जनादेश बोलो

यह जो सब उलझा हुआ सा बिखरा है, किसने किया?

क्या ही बचा जो मांग रहे, क्या मिल जाने की आस है?

जवाब, जवाबदेही और जनादेश को खा गए जुमले, जोर और जयकार

रही सही कसर निबटा लिए बंगाल, दिल्ली, यूपी और बिहार।

 

कभी गेंद इनके पाले में, कभी पाले इनकी गेंद पर

कभी खिलाड़ी, कभी खेल के नियम इनके जूतों की नोंक पर

ये अकेले ही खेल के जीतने के गुर, और उस जीत की वाहवाही के अफसाने

हमने तो बस सुने थे, इन बरसों में देख के भी जाने।

 

बस एक ही डर या डर का भरम अब भी बाकी है

सवालों से पहले ही इनकी छाती दहल जाती है

चलो, उठो माटी के महादेवों, अब तो बोलो

ये चुप्पी अपनों को छीन रही, अब मुंह तो खोलो।

 

पूछो सवाल कि प्रतिकार भी है अधिकार

पूछो बार-बार कि हम तुम बनाते हैं इनकी सरकार

पूछो कि हर कारण जायज़ है, पूछो कि पूछना रवायत है

पूछो कि बच्चे हमें देख रहे, पूछो कि आगे वो भी पूछ सकें।

 

पूछो सच, पूछो झूठ, पूछो सब, पूछो कुछ

पर पूछो, बस पूछो, तुम पूछो!!!

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