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कविता: “सरहद-सरहद क्यों खेल रहें हम”

खून की सरहद

दहशत की सरहद
सरहद सरहद खेल गए हम
उसकी सरहद मेरी सरहद
सरहद सरहद खेल गए हम
प्यार पर सरहद
वक्त पर सरहद
हमदर्दों के लब पर सरहद
दौर पर सरहद
नस्ल पर सरहद
गहरी भारी लकीरों की सरहद
माँ की कौख पर लात यह सरहद
सरहद सरहद खेल गए हम
इसकी सरहद
उसकी सरहद
सरहद सरहद खेल गए हम
इसने मारा उसने मारा
पहला और आखिर वार यह सरहद
बेवाओं का ताज बनाकर
पहना गईं दोनों सरकार यह सरहद
सरहद सरहद खेल गए हम
कत्ल का बाज़ार यह सरहद
ना तेरी हुई ना मेरी हुई फिर भी
सरहद सरहद खेल गए हम
भगवान भी छूटा
रब भी रूठा
पूरी जवानी खा गयी सरहद
वो भी मरा
मैं भी मरा
दोज़ख की कैसी आग यह सरहद
डायन बनकर जी गयी सरहद
सरहद सरहद क्यों खेल गए हम
तप भी हारा
जाप भी हारा
शैतानों सी छा गयी सरहद
मेरी माँ के आंसुओं से भी
मीट ना पाई ज़ालिम यह सरहद
सरहद सरहद क्यों खेल रहें हम
मौत का पैगाम यह सरहद
सरहद सरहद क्यों खेल रहें हम
अंग्रेज़ों ने जिसे बनाया
वही आग की दीवार यह सरहद
बहन की राखी तोड़ के जिसने
इज्ज़त नोची बीमार यह सरहद
बड़े जतन से फिर भी सम्भाले
तू भी सरहद
मैं भी सरहद
सरहद सरहद क्यों खेल रहें हम
ना तूने रोका ना मैंने रोका
कर गयी बंटाधार यह सरहद
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