Site icon Youth Ki Awaaz

“मेरे गाँव के बच्चे मिड-डे मील नहीं खाते, क्योंकि खाना कोई हरिजन बनाती है”

सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील की शुरुआत की गई थी ताकि बच्चों को भोजन की सुरक्षा दी जा सके और कुपोषित बच्चों को पौष्टिक खाना दिया जा सके। इसका एक कारण और भी था, लोगों के बीच बढ़ते प्राइवेट स्कूलों का क्रेज़।

बच्चों को स्कूल से जोड़ने में कारगर मिड डे मील योजना

सरकारी स्कूलों की सुविधाएं और पढ़ाई के गिरते स्तर को देखते हुए लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना लगभग बंद ही कर दिया तो सरकार को ये स्कीम लानी पड़ी। समस्या अब ये हो गई है कि बहुत सारे बच्चे सिर्फ इसीलिए आने लगे कि उन्हें खाना मिलेगा। पढ़ाई जैसे पहले थी, वैसे ही अब भी रही।

खाना बांटने का आइडिया सिर्फ बच्चों को एक बार खींचकर ला सकता है लेकिन उनको रोकने के लिए पढ़ाई भी तो होनी चाहिए। मगर जो गरीब हैं और जिनके पास प्राइवेट स्कूल की फीस देने के लिए पैसे नहीं हैं, उनके पास तो बस यही विकल्प है।

खाना तो मिल ही रहा है और बच्चे को स्कूल भेजने की तसल्ली भी है मन में। अब स्कूल जा रहा है तो कुछ न कुछ तो सीख ही लेगा।

हरिजन के हाथ का बना कौन खाएगा?

मेरे गांव में सिर्फ ब्राह्मण रहते हैं और वहां से कुछ दूरी पर एक सरकारी स्कूल है। गांव के दो-चार बच्चे जाते भी हैं पढ़ने। कुछ दिन पहले मैं घर गया था तो स्कूल से आते वक्त कुछ बच्चे रास्ते में मिल गए।

मैंने पूछा छुट्टी हो गई क्या? तो वे बोले नहीं भैया अभी खाना खाने की छुट्टी हुई है, तो घर जा रहे खाना खाने। तो मैंने पूछा कि स्कूल में क्यों नहीं खाए? तो वे बोले कि नहीं भैया हम स्कूल में खाना नहीं खाते, घर जाकर ही खाते हैं। पूछा क्यों? तो बोलते हैं कि अरे वो हरिजन खाना बनाती है तो उसके हाथ का कौन खाएगा?

स्कूल में खाना बनाने के लिए जिसे लगाया गया है, बनाएगा तो वही और सब खाएंगे भी। मगर कक्षा 1, 2, 3 में पढ़ने वाले बच्चों को इतना पता है कि उसके हाथ का खाना नहीं खाना है। इसके लिए घर वाले भी नहीं बोलते कि क्यों नहीं खाओगे वहां? उनके हाथ से खाने से क्या हो जाएगा? अब शुरुआत इस तरह से हो गई इन बच्चों की तो इनसे कैसे कुछ अच्छा उम्मीद करें?

कैसे ये आगे चलकर देश के भविष्य को सुधारने के लिए इन बेकार चीज़ों पर ध्यान ना देकर ज़रूरी काम करेंगे? इनके तो मन में ही ये बेकार बातें घर करके बैठी हैं।

Exit mobile version