Site icon Youth Ki Awaaz

आदिवासियों की मुख्यधारा के लिए देश की सरकार और शिक्षित वर्ग की बेरुखी

आदिवासियों की मुख्यधारा के लिए देश की सरकार और शिक्षित वर्ग की बेरुखी

कुछ दिन पहले दैनिक अखबार के पहले पृष्ठ पर यह खबर पढ़ी कि 4 हज़ार आदिवासियों ने अपने पारंपरिक हथियारों के साथ ब्राजील की संसद पर प्रदर्शन किया। पुलिस ने इस प्रदर्शन के खिलाफ पानी की बौछारें छोड़ी व बल प्रयोग किया।

अखबार ने एक बहुत बड़ा फोटो आदिवासियों का लगाया हुआ था, जिसमें वो अपने पारम्परिक हथियार धनुष, गुलेल, भाला लिए हुए थे। उनकी मुख्य मांग थी कि सरकार पूंजीपतियों के फायदे के लिए फोर्स की मदद से हमारे जंगलों पर कब्जा करना बन्द करे। वो हम आदिवासियों को हमारे जंगल से विस्थापित करना चाहती है। वो हमारी संस्कृति को नष्ट करना चाहती है। वो ये सब जतन प्राकृतिक संसाधनों जल-जंगल-ज़मीन पर कब्जे के लिए कर रही है।

इसके विरोध में उन्होंने संसद पर अपने पारम्परिक हथियारों के साथ एकत्रित होकर प्रदर्शन किया। जिसको मीडिया ने संसद पर हमला दिखाया। ऐसे ही बराबर हालात विश्व के सभी मुल्कों के हैं। आज विश्व के सभी मुल्कों में सरकारें पूंजीपतियों के फायदे के लिए अपने-अपने मुल्कों के आदिवसियों, किसानों, मजदूरों को उजाड़ रही हैं। उनकी संस्कृति को खत्म कर रही हैं। इस सब के पीछे सिर्फ एक ही कारण है कि जल-जंगल-ज़मीन पर लुटेरे पूंजीपतियों का कब्जा करवाया जा सके ताकि लुटेरे पूंजीपति जल-जंगल-ज़मीन का दोहन कर सकें, प्राकृतिक संसाधनों को लूट सकें। कोयला, लोहा, अभ्र्क, सोना, गैस की खदानों पर कब्जा कर सकें।

 सरकारें आदिवासियों को पूंजीपतियों के फायदे के लिए उनकी ज़मीनों से विस्थापित कर रही हैं 

ऐसा दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र होने का दावा करने वाला अमेरिका अपने खुद के देश में भी ऐसा कर रहा है। पाकिस्तान का बलूच राज्य का मामला हो या भारत के आदिवासी राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड या महाराष्ट्र का मामला हो। सभी जगहों पर उन देशों की सरकारें साम्राज्यवादी देशों और पूंजीपतियों के लिए आदिवसियों को उजाड़ रही हैं। पूरे विश्व में सरकारों और आदिवासियों के मध्य एक अघोषित युद्ध चल रहा है। आदिवसियों को उजाड़ने के लिए सभी मुल्क अपनी पुलिस और फोर्स का इस्तेमाल कर रहे हैं।

अपने मुल्क भारत में भी कुछ दिन पहले ऐसा ही एक माओवादी हमला फोर्स पर हुआ जिसके चलते हमारी सेना के  25 जवान हताहत हुए, यह सब इस अघोषित युद्ध का ही परिणाम है। ये कोई पहला हमला नहीं है इससे पहले भी दोनों तरफ से कभी आदिवासी तो कभी सैनिक मरते रहे हैं। कालांतर में भी कोई सार्थक उम्मीद नही दिखाई दे रही है कि ताकि इस अघोषित युद्ध को बंद किया जा सके। इस युद्ध में दोनों तरफ से मरने वाले मजदूरों-किसानों  के बच्चों को बचाया जा सके। इस युद्ध के मूल जड़ में कोई नहीं जाना चाहता है।

इसकी मूल समस्या है, साम्राज्यवादी देशो और पूंजीपतियों द्वारा जल-जंगल-ज़मीन की लूट, प्राकृतिक संसाधनों की लूट। अब सरकार क्यों जाएगी इसके मूल कारण में क्योंकि उसको चुनाव में लाखों-करोड़ों की फंडिंग भी ऐसे ही लुटेरे पूंजीपतियों से मिलती है। इसलिए हमारी सेना भी इसके मूल कारण में नहीं जाना चाहती है, क्योंकि अफसरों को मोटा कमीशन ऐसे पूंजीपतियों से ही मिलता है। 350 अरब की मोटी धनराशि हर साल नक्सल उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ के 8 ज़िलों को मिलती है। उसमें इन सब का हिस्सा है।

वैसे भी हमारी सेना का वेतन सरकार देती है तो मूल कारण में जाना मतलब सरकार के खिलाफ जाना है। मीडिया पूंजीपति लुटेरों का ही है तो वो भी इस समस्या के मूल कारणों की तरफ नहीं जाएगा। मूल में जाने का काम मेहनतकश जनता का है। उन सैनिको के परिवारों का है जिनके बच्चे मारे जा रहे हैं। किसान मजदूर का है लेकिन वो सब भी मीडिया से संचालित हो रहे हैं। जो मीडिया बोलती है, वे उसी को सच मानकर आगे बढ़ जाते हैं।

देश का शिक्षित वर्ग भी सरकार की इस अमानवीय अन्यायकारी नीति का विरोध नहीं करता है 

एक बहुत बड़ा तबका है जो पढ़ा-लिखा है, जो अच्छे से इस समस्या को समझ सकता है। वो है सरकारी कर्मचारी, जो मजदूर-किसान परिवार से आता है। वो भी इस समस्या के मूल कारणों की तरफ नहीं जाना चाहता क्योंकि सरकार उसको मोटा वेतन देती है और समय-समय पर उस वेतन में बढ़ोतरी करती रहती है।

इसलिए वो भी सरकार के खिलाफ कुछ नहीं देखना चाहता है। देश के छात्र-नौजवान, मजदूर, किसान अगर अंधराष्ट्रवाद का चश्मा उतार कर आगे आएं तो कुछ सार्थक परिणाम निकल सकते हैं। इन सब की अनदेखी के चलते पूंजीपति अपनी लूट जारी रखे हुए हैं।

वो ही इस युद्ध के मास्टर माइंड हैं लेकिन वो इस अघोषित युद्ध के पर्दे के पीछे रहते हैं। उन्होंने अपनी लूट को जारी रखने के लिए सरकार और सामंती गुंडों से गठजोड़ किया हुआ है। अब युद्ध के एक छोर पर आदिवासी+देश का बुद्विजीवी व दूसरे छोर पर पर्दे के पीछे पूंजीपति, सामने सरकार (सेना +पुलिस +सरकारी अमला) +मीडिया +सामंती गुंडे+धर्म+जाति+अंधराष्ट्रवाद हैं। पूंजीपतियों के इशारे पर सरकार अपने अमले को पूरी छूट देती है कि वो कैसे भी आदिवासियों को विस्थापित करें। इसके लिए वो कभी सलवा झुडुम चलाती है तो कभी ग्रीन हंट चलाती है।

 सरकारों एवं सेनाओं द्वारा आदिवासियों के मानवाधिकारों एवं मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है 

इन सभी ऑपरेशनों में सरकार और उसके साथी मानवाधिकारों के उल्लंघन की सभी सीमाएं लांघ देते हैं। उनको ये सारी सीमाएं लांघने की सहमति अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता देती है ताकि आदिवासियों में डर बैठाया जा सके। आदिवासियों के घर जलाने, सेना द्वारा अनगिनत महिलाओं, बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार करने, झूठे एनकाउंटर करने की घटनाएं आम बन जाती हैं। अभी पिछले दिनों की तो बात है जब एक महिला को गांव से उठाया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। उसको 11 गोलियां मारीं फिर एक माओवादियों वाली वर्दी पहनाई, हाथ में बन्दूक थमाई।

इस सब में सबसे कमाल की बात यह थी कि उस महिला की वर्दी में एक भी सुराख नहीं था। अब यह  मामला हाईकोर्ट में है। सत्ता के नशे में आज आप जिसको रौंद रहे हो। वो रौंदे हुए जिस दिन इकठ्ठा होकर हमला करते हैं तो जुल्म की हस्ती मिटा देते हैं। झूठे मुकदमों में लाखों लोगों को जेल में डाला जाना भी आम घटना बनी हुई है। जेल में इतनी ज्यादा भीड़ है कि कैदियों को सोने के लिए भी शिफ्टों में सोना पड़ता है। इस लड़ाई में जान-माल का नुकसान दोनों तरफ से ही आम जनता का हो रहा है।

इसलिए क्या देश की आम जनता का फर्ज नहीं बनता है कि वो कोशिश करे कि जितना जल्दी हो सके ये अघोषित  युद्ध बन्द हो। इसके लिए क्या आम जनता को प्रयास नहीं करने चाहिए? क्या सत्ता पर दबाव नही बनाना चाहिए? क्या सरकार से सवाल नही पूछना चाहिए, कि वह क्यों पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए आदिवासियों और सेना के जवानों को आपस में लड़वा रही है? क्यों देश की जनता के खिलाफ जंगलों में 1 लाख सेना को तैनात किया हुआ है? सेना और पुलिस के जवान नैतिकता के आधार पर पूंजीपतियों के लिए लड़ने से मना क्यों नहीं करते। क्योंकि  सेना और पुलिस जनता की रक्षा के लिए है ना कि लुटेरे पूंजीपतियों के लिए है।

जब मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकारी सुरक्षा बलों और पुलिस द्वारा आदिवासियों की हत्या के मामलों को उजागर करते हैं तो भक्तगण तुरंत आकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से कहते हैं कि तुम तब क्यों नहीं बोलते जब नक्सली हमारी सेना के जवानों को मारते हैं?

आजकल भक्तगणों के साथ कुछ पुलिस वाले और अर्धसैनिक बलों के अफसर भी फेसबुक पर आकर हमसे ऐसी ही बातें कहते हैं। हम नक्सलियों और सरकार को एक ही बराबर नहीं मान सकते, ऐसा नहीं हो सकता कि हर बार सरकार की क्रूरता और बलात्कार पर सवाल उठाने के लिये हमें नक्सलियों की भी निन्दा करनी पड़ेगी।

हम आदिवासियों के भीषण नरसंहार के नहीं बल्कि, हम संवैधानिक राजनैतिक लड़ाई के समर्थक हैं

हम एक बार स्पष्ट कर चुके हैं कि हम संवैधानिक राजनैतिक लड़ाइयों के समर्थक हैं, इस लिये सरकार के अपराधों को उजागर करते समय हर बार उस बात को दोहराने की हमें कोई ज़रूरत नहीं है। हम सरकार को टैक्स देते हैं, वोट देते हैं, कोर्ट में जाते हैं, मतलब हम सरकार का ही हिस्सा हैं। अब मेरे वोट से, मेरे टैक्स के पैसे से तनख्वाह लेकर सिपाही अगर आदिवासी महिला से बलात्कार करेगा तो मुझे उस पर आपत्ति करने का अधिकार है या नहीं? मैं अगर आपत्ति करता हूं कि मेरे वोट से बनी सरकार का सिपाही, मेरे टैक्स के पैसे की बन्दूक लेकर, मेरे पैसे की वर्दी पहन कर और मेरे पैसे से तनख्वाह लेकर मेरे ही देश की आदिवासी लड़कियों से बलात्कार नहीं कर सकता है।

इसलिए मुझसे यह नहीं कहा जा सकता कि पहले तुम नक्सलियों के विरुद्ध बोलो, वर्ना हम तुम्हें नक्सली समर्थक घोषित कर देंगे, बाज़ार में यदि कोई सिपाही किसी की जेब काट रहा हो और मैं उसे पकड़ लूं तो वह सिपाही यह नहीं कह सकता कि तुम पहले दुनिया के सभी जेबकतरों की निन्दा करो इसके बाद में मुझे कुछ कहना। जनता की ज़मीन बन्दूक के दम पर छीनना सरकारों का पुराना काम है। यह काम तब भी चलता था जब नक्सलवादी नहीं थे और आज भी जहां नक्सलवादी नहीं हैं, वहां भी पुलिस बन्दूकों के दम पर ही ज़मीन छीनती है।

राजधानी की नाक के नीचे भट्टा पारसौल में भी ज़मीन के लिये किसानों के घर जलाये गए थे। इस युद्ध को रोकने के लिए आम जनता को जितना जल्दी हो आगे आकर इसको रोकने की मांग करनी चाहिए।

आम जनता इस युद्ध रोकने की मुहिम को जितना लेट करेगी इस युद्ध में उतना ही नुकसान दोनों तरफ से आम जनता का बढ़ता जाएगा।

Exit mobile version