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हमारे सामाजिक परिवेश की मुख्य इकाई परिवार में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से अहम है

हमारे सामाजिक परिवेश की मुख्य इकाई परिवार में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से अहम है

दुनिया में जितने भी प्राणी पाए जाते हैं, उनमें मुख्यत: दो लिंग जरूर होते हैं एक स्त्रीलिंग और दूसरा पुल्लिंग। इन दोनों लिंगों से ही मानव प्रजाति की पीढ़ी आगे की ओर बढ़ती है। जब मानव समाज को आगे बढ़ाने में दोनों लिंगों का साथ आवश्यक है तो एक का दूसरे से कम महत्व क्यों माना जाता है? स्त्रियों पर कार्यों से लेकर उनके पहनावे तक उन पर कई नियम थोपे जाते हैं। हमारे समाज में स्त्रियों के साथ जन्म से लेकर मृत्यु तक भेदभाव होता है।

हमारे समाज में, परिवारों में स्त्रियों के लिए कितनी जगह 

हमारे समाज एवं परिवार में सब सदस्य लड़के के जन्म की बड़ी आश लगाए रहते हैं क्योंकि वह लड़कियों को दोयम दर्जे का और लड़के को परिवार का चिराग मानते हैं। लेकिन, वह यह कैसे भूल जाते हैं कि उस चिराग को भी कोई स्त्री ही जन्म देती है। यह मानसिकता इतनी बुरी तरह हमारे समाज में बैठ चुकी है कि महिलाएं भी पहले पुत्र ही चाहती हैं, चाहे वह होने वाले बच्चे की दादी, नानी, बुआ, मामी, मौसी या स्वयं उसकी माँ ही क्यों ना हो ! आज भी हमारे समाज में बच्चियों को पेट में ही मार दिया जाता है और जो जन्म लेती हैं, उन्हे ताउम्र पुरुषों के प्रभुत्व में जीना पड़ता है।

हमारे परिवारों में बेटों को जॉन्सन बेबी साबुन लगाया जाता है, कॉम्पलेन पिलाया जाता है और जैम-ब्रेड खिलाया जाता है। जिस उम्र में खिलौने से खेलना चाहिए, उस उम्र में लड़कियां हमारे समाज में बेलन, झाड़ू से घर का काम करते हुए देखी जाती हैं। जिस समय उसे स्कूल में क्लास में होना चाहिए, तब उसे रसोई की क्लास दी जाती है।  हमारे समाज में बेटियों को बेटों से कम ही चीज़ें नसीब होती हैं।

हमारे तथाकथित सभ्य समाज में पढ़ाई के नाम पर होने वाले खर्च का एक बड़ा हिस्सा बेटों पर खर्च किया जाता है। उनकी मानसिकता ऐसी होती है कि बेटा पढ़ेगा, तभी तो कुछ बनेगा और लड़कियों का क्या है? वह तो शादी कर दूसरे के घर चले जाएंगी। इस घटिया मानसिकता से लोग लड़कियों के बारे में सोचते हैं कि आखिर लड़कियां पढ़ लिखकर तो चूल्हा-चौका ही संभालेंगी और चूल्हा-चौका संभालने के लिए किसी का पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है।

वैसे, भी लड़कियां शादी कर के जिस घर में जाएंगी उन्हे भी तो अपने घर के लिए कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ लड़कियां चाहिए क्योंकि पढ़ी-लिखी लड़कियां जुबान लड़ाती हैं, वो कहती हैं कि मैं भी अपने सपने पूरे करना चाहती हूं। अगर लड़कियां भी अपने सपनों को पूरा करने  के लिए पढ़-लिख कर बाहर काम करेंगी तो घर का काम कौन करेगा? लड़के अपने सपने पूरे करें या घर के काम यह सब बातें आपने जरूर अपने घर या मौहल्ले में सुनी होंगी।

क्यों कोई व्यक्ति किसी दूसरे के सपनों के लिए अपने सपनों का गला दबाए, किसी और के सपनों के लिए क्यों वो रोज अपने सपनों को मारे? महिलाओं के घरेलू कार्यों का मूल्य शून्य समझा जाता है, जैसे शून्य का कोई मूल्य नहीं होता है ठीक वैसा ही हाल हमारे समाज में महिलाओं का है।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर एक-दूसरे का हाथ बटाते हुए अपने सपनों को पूरा करें? ऐसा हो सकता है लेकिन यह हमारा समाज करना नहीं चाहता चूंकि, ऐसा हुआ तो पुरुषों की सत्ता गिर जाएगी जो हजारों सालों से चली आ रही है। स्त्रियां बचपन में अपने सपनों को अपने भाईयों के सपनों पर कुर्बान कर देती हैं और जवानी में अपने पति फिर अपने बच्चों के सपने पूरे करने में अपने आपको भी कुर्बान कर देती हैं।

इतना शारीरिक एवं मानसिक कष्ट सहते हुए भी समज में उन्हें क्या मिलता है?

हमारे समाज में छोटी बच्चियां आए दिन किसी की ना किसी की हवस का शिकार होती हैं। बहुत कम संख्या में ऐसी घटनाएं समाज में सबके सामने आ पाती हैं, क्योंकि छोटी बच्चियां यह नहीं जानती कि उनके साथ जो हो रहा है वह गलत है या सही है। आप सोचिए  4 महीने की एक बच्ची के जब साथ जघन्य अपराध होता है तो इससे यह अंदाजा लगाइए कि समाज में महिलाओं के खिलाफ क्रूरता का क्या स्तर है?

जब बच्चियां बड़ी होती हैं तो उनके दिमाग पर इन अपराधों की गहरी छाप पड़ जाती है। जब लड़कियां यह बात समझती हैं कि उनके साथ गलत हुआ है फिर भी यह बात वह और किसी को नहीं बताती हैं। उन्हें डर रहता है कि कोई उनकी पवित्रता पर सवाल ना उठा दे।

समाज की मानसिकता में स्त्री की पवित्रता उनकी योनि से तय होती है। यदि किसी महिला के साथ बलात्कार हो जाता है तो उसकी इज्ज़त लूट ली जाती है, मानो अब उसके वजूद का कोई महत्व ही नहीं रह गया है। इसमें लड़कियों का क्या कसूर बल्कि यह तो उनकी मर्जी के खिलाफ होता है।

 रेप सर्वाइवल का मनोबल बढ़ाने के लिए समाज क्या करता है? 

इसका उत्तर है कुछ नहीं, इसके उल्टा लोग मनोबल घटाने के लिए जरूर तैयार रहते हैं। इससे हमारे समाज में प्रेम सम्बन्ध टूट जाते हैं, शादी के रिश्तों पर आंच आ जाती है, समाज में सब लोग पीड़िता से दूरियां बना लेते हैं। हमने कई बारी पुरुषों को स्त्रियों से यह कहते हुए सुना है कि  “मैं तेरा वो हाल करूंगा कि तू कही मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेगी। ”

यह हमारे समाज का कैसा नियम है कि गलत करे बलात्कारी फिर भी गलत दृष्टिकोण पीड़िता के लिए हो। उसे भी सामान्य लोगों की तरह अपना जीवन जीने का अधिकार है। उसकी पवित्रता उसकी योनि से नहीं जोड़ी जा सकती है।

हमारे समाज की धार्मिक एवं पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 

हिंदु समुदाय में शादीशुदा महिला के गले मे मंगलसूत्र, मांग मे सिंदूर पति (पुरुष) के नाम का होता है, लेकिन शादीशुदा पुरुषों के पास अपनी पत्नी (महिला) के नाम का क्या होता हैहमारे समाज में महिलाओं को कहीं निजी संपत्ति के समान तो नहीं समझा जाता है?

जिस महिला ने अपने माथे पर सिंदूर और गले में मंगलसूत्र या बुर्का पहना हो तो उन्हे किसी पुरुष के निजी संपत्ति के रूप में समझा जाता है। क्या उस स्त्री का कोई अपना वजूद नहीं हो सकता? शादी से पहले पिता का कुल नाम (SURNAME) उनके नाम के पीछे होता है और शादी के बाद पति का नाम होता है लेकिन महिलाओं का कुछ नहीं होता है।

बुर्के और साड़ी के घूंघट में कैद जीवन किसी जेल से कम नहीं होता है। महिलाओं के पहनावे को कुछ इस तरह डिज़ाइन किया गया है जिससे वे एक कैदी के रूप में नज़र आएं। बुर्के और घूंघट के पीछे से देखती महिला अपनी आज़ादी को किसी और के हाथ में देखती है। आखिर ऐसा क्या है उनके चहरे और शरीर में जिन्हें छुपाना बहुत जरूरी है? उसे कोई देख लेगा तो कौन सी कयामत आ जाएगी? इसका साफ मकसद यही है कि स्त्री को अपनी निजी संपत्ति के समान रखा जाए और उसका शोषण कर खुद को आराम दिया जाए।

बुर्के से महिला दुनिया को आज़ाद देखती है लेकिन खुद को कैदी के रूप में देखती है। उसके हाथों मे चूड़ी, कंगन और पैरों में पायल बेड़ियों से कम नहीं लगती हैं, लेकिन देखते ही देखते ये बेड़ियां कैसे गहनों का रूप ले बैठीं  यह समझना भी बड़ा जरूरी है। महिलाओं को कैद रखने में महिलाओं की ही मानसिकता का भी बहुत बड़ा हाथ है।

माँ अपनी बेटियों को और सास अपनी बहुओं को या एक महिला दूसरी महिला को यह जरूर सलाह देती नज़र आएगी कि तुम्हें कैसे संस्कारी बहू, बेटी या महिला बने रहना है। भाई पिता समान है, पिता भगवान समान और शादी के बाद पति भगवान समान है। एक बात हमें हमारे बचपन से सिखाई जाती है कि हमे भगवान की बात को टालना नहीं चाहिए।

पढ़ी-लिखी महिलाओं का भी पितृसत्ता की मानसिकता का शिकार होना 

सबसे ज़्यादा चिंताजनक बात तब लगती है, जब पढ़ी लिखी लड़कियां ऐसी कैद सी जिंदगी में अपना जीवन बिताती हैं। अक्सर आपको कॉलेज या दफ्तर में पढ़ी-लिखी महिलाएं, उन्हें गुलाम बनाने वाले नियमों का पालन करते हुए नज़र आ जाएंगी। पढ़ी-लिखी महिलाओं का सबसे बड़ा हिस्सा आपको नर्स, अध्यापिका, ब्यूटी कोर्स या ऐसे ही बाकी क्षेत्रों में दिखेगा।

महिला सशक्तिकरण एवं स्त्री संघर्ष की प्रतीक महिलाओं का समाज में रहना आवश्यक है 

महिलाओं पर घरेलू हिंसा से लेकर कई प्रकार की सामाजिक हिंसा होती है जैसे: बलात्कार, एसिड अटैक, दहेज उत्पीड़न, कार्यालय में छेड़छाड़ इत्यादि। ऐसे भेदभाव और उत्पीड़ित समाज को बदलने के लिए हमें आज की दौर की महिलाओं में सावित्रीबाई फूले, नांगली (जिन्होने दक्षिण भारत में स्तन कर के विरोध में अपना स्तन ही काट दिया था), क्लारा जेटकिन (जिन्होने पूरी दुनिया में महिला आंदोलन को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई) जैसी क्रांतिकारी महिलाओं का होना अतिआवश्यक है।

वैसे तो महिला हिंसा के खिलाफ कड़े कानून बना दिए गए हैं लेकिन जब तक समाज में महिलाओं की भूमिका नहीं बढ़ेगी तब तक महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोक पाना नामुमकिन है। महिलाओं के प्रति समाज में जो मानसिकता है, उसका बदलना जरूरी है।

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