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“सर्वहारा की चेतना और संघर्ष से ही इस दमनकारी सत्ता को हराया जा सकता है”

भारत आज एक अत्याचार और समस्या से लगातार ग्रस्त है। भारत का मेहनतकश वर्ग जब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, उस समय में यह रेखांकित करना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि आखिर क्या कारण है कि इतनी समस्या के बाद भी लोग विरोध के लिए नहीं उतर पा रहे हैं?

जहां एक तरफ व्यापक बेरोज़गारी की समस्या युवाओं को ग्रास रही है, वहीं मध्यम वर्ग की हालत, नौकरियों के जाने, महंगाई के बढ़ने और सरकारी नौकरियों के कम होने के कारण बदतर हालत में पहुंच गई है।

भूमिहीन किसान और सर्वहारा वर्ग क्रांति से बहुत दूर

सारा देश आज एक सुर में बोल रहा है कि मोदी इस देश को पूंजीपतियों के हाथों में बेच रहा है और हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। वही मज़दूर किसान, जो सत्ता हस्तानांतरण के बाद से ही इस दमनकारी राज्यनीति का शिकार रहा है और नए संशोधनों के आने से खासा निराश और परेशान है। किसान पिछले 137 दिनों से दिल्ली के बॉर्डर पर धरने पर बैठा है।

मुस्लिमों के साथ लगातार दोयम दर्जे के नागरिक सा व्यवहार किया जा रहा है और ऐसा कोई भी स्पेस नहीं जहां उन्हें उनकी धार्मिक पहचान के कारण तानाशाही ताकतों द्वारा निशाना नहीं बनाया जा रहा है। हर तरफ एक रोष है, परेशानी है, पर सुनियोजित पहल की कमी दिखती है।

राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो आंदोलनों में लीडर्स से ज़्यादा जनता तैयार नज़र आई है। चाहे वह सीएए एनआरसी हो, किसान आंदोल या हो फिर छात्र आंदोलन। मगर सब्जेक्टिव फोर्सेज़ (जो आंदोलन को दिशा देने, अगुआई करने का काम करते हैं) उस प्रकार से कुछ उदहारण को छोड़ दें तो अपनी भूमिका निभाने में असफल रहे हैं।

इसका प्रमाण हमें 26 जनवरी के प्रॉटेस्ट में भी देखने को मिला जहां जनता पिछले 3 महीने से धरने पर चुप-चाप बैठी है और जब उसमें से कुछ लोग लाल किले पर पहुंच जाते हैं तो समस्त लीडरशिप उन्हें गलत ठहराने में लग जाती है। हम जनता के गुस्से को राजकीय हिंसा के समानांतर रख के कैसे देख सकते हैं?

इसके अलावा भी जब बीजेपी विधायक को पंजाब में पीटा गया तो उसी प्रकार की बयानबाजी फिर से दोहराई जाने लगी। मगर कोई ऐसा दिन नहीं गुजर रहा जब हमें यह सुनने को ना मिलता हो कि किसी शहर, कस्बे या गांव में पुलिस की बेरहमी से मेहनतकश जख्मी ना हुए हों। परंतु उससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि हमारा सबसे क्रांतिकारी वर्ग भूमिहीन किसान और सर्वहारा, क्रांति के इस मोर्चे से अब भी काफी दूर खड़ा है।

बड़ी आबादी पलायन को मजबूर

आंदोलन और उसका प्रसार पंजाब, ओडिशा, छत्तीसगढ़, तेलांगना, पश्चिम बंगाल, झारखंड और हरियाणा को छोड़ दें तो ज़्यादातर शहर केंद्रित है। मगर यह भी सच है कि इन राज्यों की एक बड़ी आबादी आज रोज़गार की तलाश में पलायन करने के लिए बाध्य है। भारत के अंदर किसी भी प्रकार के बुर्जुआ क्रांति की अनुपस्थिति ने जहां यहां के निम्न व भूमिहीन किसानों की चेतना को विकसित होने से रोका, वहीं उनकी मांग तक पहुंचने से भी रोका।

जिसका एक बड़ा परिणाम यह है कि उनके अंदर राज्य को चुनौती देने वाली चेतना का प्रसार भी नहीं हो सका। इसके अलावा देश का राष्ट्रीय पूंजीपति जिसके पास पहले ही पूंजी की व्यापक कमी थी, वह 1947 के बाद दलाल पूंजीपतियों की अगुआई के कारण कभी भी अपने लिए संघर्ष के लायक जमीन नहीं बना पाया।

फ्रांस की क्रांति के बाद भी सर्वहारा की लड़ाई जारी क्यों रखनी पड़ी?

यूरोप के अंदर बुर्जुआ क्रांति होने का एक कारण पूंजीपतियों के खुले बाज़ार की मांग थी, जो कि सामंतवाद के कारण काफी हिस्सों में बंटा हुआ था। साथ में कारखाने में जिन श्रमिकों की आवश्यकता थी वह सर्वहारा जमीन से बंधा हुआ था। इसलिए सामंतवादी विरोधी हिंसक संघर्ष में पूंजीपतियों का साथ गरीब व भूमिहीन किसानों ने भी दिया था।

लोगों की चेतना के विकास के लिए पूंजीपतियों ने पर्चे बांटे, रेडिकल भाषण दिए और सशस्त्र संघर्ष के लिए लोगों को तैयार किया। चाहे वह ब्रिटेन हो या फ्रांस या अमेरिका, सभी क्षेत्रों में पूंजीपतियों की अगुआई में किसानों ने व्यापक संघर्ष के बाद उत्पादन संबंध को बदलने का कार्य किया था।

इस व्यापक संघर्ष से विकसित चेतना का परिणाम यह था कि जब सर्वहारा ने फ्रांस के बुर्जुआ चरित्र को पहचान कर बराबरी के संघर्ष को जारी रखा।

मगर सवाल यह है कि फ्रांस की क्रांति तो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नाम पर लड़ी गई थी फिर फ्रांस की सर्वहारा जनता को समानता के लिए लड़ाई क्यों जारी रखनी पड़ी? इसका जवाब इतिहास में स्पष्ट है। फ्रांस में एक बुर्जुआ लोकतंत्र का गठन किया गया था, अर्थात बुर्जुआ की तानाशाही को मूर्त रूप प्रदान किया गया था और सर्वहारा को महज उद्देश्य प्राप्त के लिए समानता स्वतंत्रता का हवाला दिया गया।

वस्तुतः बुर्जुआ लोकतंत्र का यह अंतर्निहित चरित्र होता है कि इसमें दी गई समानता व्यवहारिक रूप से पूंजीपति वर्ग को प्राप्त हुई समानता और स्वतंत्रता है। इसके अलावा राज्य का संपूर्ण तंत्र पूंजीपतियों के सेवा हेतु लोगों को नियंत्रित करने का कार्य करता है।

कोरोना के खौफ के बीच प्रधानमंत्री भीड़ देखकर खुश

फिर से हम भारत की तरफ वापस आते हैं ,जहां पर आज हर तरफ मौत का भय है। मीडिया में इस मौत के बाज़ार का जमकर प्रचार किया जा रहा है। घटता हुआ हर एक दिन कोविड महामारी से मरने वालों की संख्या में इज़ाफा कर रहा है। न्यूनतम रूप से मीडिया तो यह प्रचार कर ही रही है, परंतु ऐसे विपत्ति के समय में देश का प्रधानमंत्री पूरे बंगाल में भ्रमण करते हुए चुनाव प्रचार में व्यस्त है।

जहां वह हज़ारों की भीड़ का संबोधन करता है और लोगों को देख कर बेहद खुश हो रहा है। वहीं आए दिन यह सूचना भी आती है कि पुलिस वालों ने सड़क, चौराहे, घर के अंदर घुसकर लोगों को पीट रही है और लोगों के बीच शारीरिक दूरी बनाए रखने का कार्य कर रही है। किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए सरकार पैरामिलिट्री उतारने को तैयार है, क्योंकि वहां कोरोना फैल रहा है।

जनता को तो वहीं चेत जाना चाहिए कि यह आदमी कितना झूठा है और साथ ही समस्त अलग-अलग देशों के राज्य प्रधान जो अपने देश के मेहनतकश लोगों को बेचने के लिए वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं से पैसे खा चुके हैं। आज दुनिया का शासक वर्ग एक होकर जनता को लूटने के कार्य में लगा हुआ है।

वह हमें आर्थिक चंगुल में इस तरह से फांस देना चाहते हैं कि ना हम विरोध कर पाएं और न ही मौजूदा दशा को सुधारने के लिए कुछ कर पाएं। सिर्फ हाथ पर हाथ धरे जो हो रहा है, उसमें अपने ज़िन्दा रहने के तरीके तलाशें।

कहीं भारत की स्थिति भी म्यांमार जैसी न हो जाए

आज देश के कुछ गिने चुने वर्ग के लोगों को छोड़ दें तो प्रत्येक व्यक्ति एक गहरी असुरक्षा में जी रहा है। जिन्हें लोगों ने यह समझ के चुना कि वह उनके हितों की रक्षा करेगा, वह विदेशी पूंजीपतियों की दलाली में मगन है। परंतु सिर्फ इस राज्य के साथ ऐसा नहीं है।

भारत की जनता को म्यांमार से सीख लेने की ज़रूरत है और यह समझने की ज़रूरत है कि वह स्थिति भारत में भी आ सकती है, जब प्रॉटेस्ट कर रहे लोगों पर राज्य मिसाइल गिरा रहा होगा और मां अपने 3 महीने के बच्चे की लाश को लिए खुद को मारने की राह देख रही होगी।

देश की समझ को किताबों, विद्यालयों, विश्विद्यालयों और तमाम प्रकार के स्पेस में इतनी सहजता से हमारे मनोविज्ञान में डाल दिया गया है कि भारत का मेहनतकश वर्ग, भूमिहीन किसान, पूंजीपति, सरकारी नौकरी व प्राइवेट कंपनी में काम करने वाली जनता यह भूल जाती है कि उनके मध्य एक गहरा वर्गीय भिन्नता है और यह भिन्नता ही राज्य को पुनरुत्पादित करने का कार्य करती है।

हमारे मनोविज्ञान में ऐसे सहज ज्ञान का विकास बहुत प्राकृतिक नहीं कि मुसलमान हमारा दुश्मन है, या ज़्यादा जनसंख्या हमारे अल्पविकास का कारण है। यह वैश्विक रूप से समस्या है तो हमारे यहां भी होगी, बल्कि यह प्रायोजित रूप से राज्य के विभिन्न सुपरस्ट्रक्चर हमारे अंदर डालते हैं।

जब बीच-बीच में सर्वोच्च न्यायालय रेगिस्तान में बारिश की तरह एक निर्णय किसी जनता के पक्ष में दे देता है, तब हमारा पुनः विश्वास ऐसी संस्थाओं पर कायम हो जाता है। मगर हम यह सवाल करना भूल जाते हैं कि यह प्रोग्रेसिव एटीट्यूड पिछले 2 साल से कहां गायब था? किसी भी मनोविज्ञान का विकास भौतिक परिस्थितियों का समायोजित वैचारिक परावर्तन होता है जो तथ्यों को गूंथ कर अपना आकार लेता है। वह मनोविज्ञान बनाने के सारे अस्त्र राज्य के पास हैं।

सर्वहारा की चेतना के साथ साम्यवादी समाज का निर्माण ज़रूरी

अब सवाल यह है कि क्या यह असुरक्षा हमेशा बनी रहेगी? क्या हम ऐसे ही उहापोह में जीवन के हर सांस को एहसान की तरह लेकर जीते रहेंगे? क्या राज्य अजेय है? क्या इससे पहले के बने राज्य भी अपने समय के लोगों के लिए अजेय रहे होंगे? तो इन सब का जवाब है मार्क्स की वह पंक्ति जिसमें वह बताते हैं, मानव इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है।

जहां पर मौजूदा समाज की उत्पादक शक्तियां अपने दमनकारी राज्य के संबंध को तोड़ते हुए नए और पहले से बेहतर समाज का निर्माण किया है। अर्थात हमें मानवीय चेतना नहीं वर्गीय चेतना की आवश्यकता है क्योंकि वर्गीय समाज में कोई सरल और सामान्य मानवीय चेतना नहीं होती।

हम में जितना उपभोग करने की क्षमता होती है, उसके हिसाब से हमारे वर्गीय चरित्र का विकास होता है और वह वर्गीय चरित्र हमें एक खास वर्गीय नैतिकता की तरफ ले जाता है। परंतु मनुष्य अपने वर्गीय सुखों का केवल गुलाम नहीं समझा जाना चाहिए। वह इतिहास में कोई निष्क्रिय रूप से भाग लेने वाला सब्जेक्ट नहीं है।

वह व्यापक जनता की क्रांतिकारी चेतना से जुड़ते हुए अपने वर्गीय चरित्र को बदलता है, जिसका एक बड़ा लक्ष्य समाज को बराबरी और सही मायनों में प्रेम पर आधारित बनने के लिए कार्य करता है।

आज के समय में यह आवश्यकता है कि जनता खुद को असहाय समझने की बजाए अपने एकता के बल को पहचाने और संगठित होने का कार्य करे। परंतु इस कार्य को क्रांतिकारी विचारधारा से वह वर्ग ही कर सकता है। जो सर्वहारा की चेतना के साथ आगे-आगे जाते हुए एक साम्यवादी समाज के निर्माण से प्रेरित हैं, वही इस युद्ध को आखिरी दम तक लड़ेंगे।

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