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“रोज़ के जीवन में लोगों की सोच बदलकर, पितृसत्ता को एक चुनौती देने की कोशिश करती हूं”

This is an image of a poster that reads Smash The Patriarchy

मैं किसी भी देश की प्रगति वहां की महिलाओं द्वारा की गई प्रगति से मापता हूं ~ डॉ भीमराव आंबेडकर

सिर्फ वीमेंस डे के मौके पर ही नहीं, हर रोज़ के ज़हनी अभ्यास में अब हमें मान लेना चाहिए कि किसी भी देश की प्रगतिशीलता, वहां की औरतों की समान भागीदारी से सुनिश्चित होती है। इस समान भागीदारी में “इनडिविजुअलिज़्म” एक अहम भूमिका निभाता है। औरतें अपने हकों के लिए, समान अवसरों के लिए रोज़ इस देश की पितृसत्तात्मक सोच और उसके रवैये से लड़ती हैं।

बाहरी लोगों की पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई

हर महिला की अपने स्तर की लड़ाई है, जिसकी तुलना किसी और महिला से करना, उनके द्वारा किए जा रहे संघर्ष को बर्खास्त कर देने जैसे होगा। इसी कड़ी में मेरी भी अपनी व्यक्तिगत लड़ाई है। मैं अपनी एक प्रिविलेज को पहचानते हुए अपनी बात रखना पसंद करती हूं।

मेरे पास सपोर्टिव माता-पिता हैं, जिन्होंने लड़के-लड़की के मध्य भेदभाव, समान अवसरों की कमी और रूढ़िवाद में मुझे नहीं बांधा। उनका साथ मुझे हमेशा मिलता रहा है। मगर मेरे द्वारा लिए गए हर फैसले में मेरे माता-पिता का सपोर्टिव होना बाहरी लोगों से पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई को कम नहीं करता।

हम देखते हैं कि पितृसत्तात्मक सोच न सिर्फ पुरुषों की है, बल्कि पुरुषों की इस व्यवस्था ने महिलाओं में भी समान रूप से यह सोच डाली है। जिसका असर यह हुआ है कि महिलाओं को पितृसत्तात्मक सोच दिखाई ही नहीं पड़ती है। मसलन “औरतों की दुश्मन तो औरत ही होती है” जैसे वाक्य जो महिलाओं के मध्य बहुत आम हैं।

आसपास के समाज को बदलने की एक कोशिश

मैं हर रोज़ के जीवन में इन तमाम तरह की सूक्ष्म पूर्वधारणा से लड़ने की कोशिश में रहती हूं। जब भी कोई महिला मित्र या मेरी आस-पास की महिलाएं, किसी और लड़की या महिला के चरित्र के बारे में तमाम बातें/ अफवाहें गढ़ती हैं, तब मेरा प्रयास रहता है कि उनको यह सब करने से रोका जाए।

जब मेरे आसपास के लोग लड़कियों के कपड़ों को लेकर कुछ गलत बोल रहे होते हैं, तब उन्हें यह समझाने की कोशिशें करती हूं कि कैसे कपड़ों का संबंध चरित्र से नहीं है। अपने पुरुष दोस्तों को यह समझाती हूं कि कैसे कोई भी महिला तुम्हारी संपत्ती नहीं है, जिसे तुम इस्तेमाल करो। तुम्हारे घर की महिलाएं तुम्हारी गुलाम नहीं हैं, कोई भी काम “जेंडर स्पेसिफिक” नहीं है, सभी काम साथ करने चाहिए।

मैं यह हमेशा कहती हूं अपने दोस्तों से कि उन्हें महिला विरोधी अपशब्द इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। “कूल” बनने के लिए हर वाक्य के पीछे किसी अपशब्द की आवश्यकता नहीं होती है और किसी भी लड़की का “कंसेंट” सबसे महत्वपूर्ण होता है, चाहे दोस्ती का मसला हो, प्रेम का हो या शारीरिक संबंधों का।

खुद में आत्मचिंतन करते रहना भी ज़रूरी

मैं अपने निजी स्तर पर हमेशा कोशिश करती हूं कि पितृसत्तात्मक सोच को चुनौती देती रहूं।

महिला विरोधी अपशब्द इस्तेमाल नहीं करती हूं, जजमेंटल होने से बचती हूं। मैं खुद किसी भी तरह का भाषाई तौर पर पितृसत्तात्मक स्टेटमेंट इस्तेमाल करने से बचती हूं। ऐसा सब हर रोज़ के अभ्यास में डालना होता है। खुद को बार-बार इंट्रोस्पेक्ट करना होता है।

मेरे यह छोटे-छोटे काम, पढ़ने में कम लग रहे हैं लेकिन यही छोटा-छोटा बदलाव एक दिन बड़ा बदलाव लाएगा। मैं सलाम करती हूं, उन तमाम महिलाओं को जो हर रोज़ इस व्यवस्था से लड़ रही हैं।

 

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