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“हमें अम्बेडकर को पूजने की नहीं, आत्मसात करने की ज़रूरत है”

"हमें अम्बेडकर को पूजने की नहीं, आत्मसात करने की ज़रूरत है"

मेरी जानकारी में एक लड़की है, उसके माता-पिता नहीं हैं। वह पूर्ण रूप से अपने भैया- भाभी पर निर्भर है। वह अनपढ़ है और पूरे घर के काम के बदले दिन मे दो बार दो रोटी पा जाती है। मुझसे उस परिवार का परिचय करीब 11 महीने पहले हुआ।

उसकी हालत देख के मेरी नज़र में कुछ अच्छे लड़के थे, उनसे उसकी शादी की चर्चा की। मैंने 3 लड़कों से उसकी शादी की बात की और वे तीनों ही तीनों एससी समुदाय के थे। अब तीनों का जवाब सुनिए कि उन्होंने उस लड़की से शादी की बात पर क्या कहा?

एक बोला मैडम हम कठेरिया हैं। हम वाल्मिकी समाज के यहां पानी तक नही पी सकते और शादी तो बहुत दूर की बात है। दूसरे ने कहा दीदी हम चमार हैं, पर चमार इनसे बहुत ऊंचे होते हैं। हम वहां शादी करेंगे तो हमारी बिरादरी मे नाक कट जाएगी मुझे माफ करें।

इन दो की तो समाज एवं अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर अपने-अपने विचार थे। लेकिन, तीसरे का जवाब ज़्यादा आहत कर गया मुझे क्योंकि मेरी नज़र मे वो विशुद्ध अंबेडकरवादी था। उसने कहा दीदी हम एससी ज़रूर हैं, पर घर वाले मेहतर के घर की लडकी को परिवार में कभी स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए इस जाति को छोड़कर आप जिस जाति मे कहोगी वहां शादी कर लूंगा।

इस बात को हफ्ते भर हो गए थे और आज इस तीसरे वाले ने एक वट्सएप्प ग्रुप में एक पोस्ट की सवर्णों और मनुवादियों को ललकारते हुए और दावा किया कि यह भीमपुत्र अपनी आखिरी सांस तक जातिवाद के खिलाफ लडता रहेगा। वाह रे भीमपुत्र !

मेरे द्वारा ऊपर साझा की गई बातें मेरी एक दोस्त ने कुछ महीने पहले सोशल मीडिया पर रखीं थी। इन पंक्तियों में किसी एक घटना का जिक्र ज़रूर है, लेकिन आप जब नज़र उठाकर देंखेगे तो सवर्ण समाज से कहीं ज़्यादा  कट्टरपंथी, जातिवाद आज उन लोगों में भर गया है जो खुद को अम्बेडकरवादी बताते हैं। इनके विवाह, त्यौहार या कोई जयंती सब मनाने का तरीका देखिए आपको जवाब मिल जाएगा और यह नवसामंती, नए तरह के मनु का अनुसरण करने वाला एक नया समाज तैयार हो गया है।

भारत में बीते दिनों मनुवाद और मनुवादियों को कोसते-कोसते स्व घोषित शोषितों का ऐसा समूह तैयार हुआ है, जो अंबेडकर की फोटो पर माला टांग कर टीका-चंदन लगाता है और कट्टरता से जातिवाद में जकड़ा हुआ है।

अंबेडकर को पढ़िए, समझिये, जीवन में उतारिए ना कि बस नीला गमछा माथे में बांध कर नीला कुर्ता पहनक बड़ा  हूजूम निकाल कर डीजे पर नाचते हुए खुद को अम्बेडकर के फॉलोवर बताइए। यह सब तो ठीक है, लेकिन जिस तरह से बाबा साहब की प्रतिमा और फोटो से लोगों का प्रेम आज चरम पर दिखा वो एक और ढ़ोंगी समूह के उदय का उद्घोष है।

उनके आदर्श तो एक विचारधारा के रूप में हैं, अब वे किताबों में या तो चंद विद्वानों में सिमट कर रह गए हैं, लेकिन मूर्ति को माला पहनाकर फोटू खिंचाने से लेकर खुद को अम्बेडकर के सबसे बड़े भक्त बनने में आज सभी राजनीतिक संगठन लगे हुए हैं। आप सोचिए जरा, आप में और परंपरागत भक्तों में फिर क्या अंतर रह गया है? रूकिए! अब भी ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ है। आदर्श व्यक्तित्व को अपने जीवन में उतारते हुए बाबा साहब के दर्शन को आत्मसात करें इससे स्वंय के साथ सम्पूर्ण समाज का भी भला होगा।

बाबा साहब के एक सौ तीसवीं जयंती पर भारत के लोगों की विचारधारा दो भागों में विभाजित होती दिखती है।पहली जिसने बाबा साहब को मूर्ति,फोटो के आडम्बर में कैद कर दिया है और दूसरी वटसएप्प यूनिवर्सिटी से नॉलेज लेकर कहती है कि तीस नम्बर वाला पास और नब्बे नम्बर वाला फेल हो ऐसी रिजर्वेशन की व्यवस्था बाबा साहब ने की थी।

जबकि सत्य कुछ और है, अम्बेडकर ने SC/ ST को 23.50% रिजर्वेशन दिलवाने के लिए संविधान में नियम बनाया था, वो भी केवल 10 साल के लिए लेकिन हमारे राजनेताओं ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इसे आगे बढ़ाया। जो आज तक लागू है फिर 1993 में 27% ओबीसी रिजर्वेशन लाया गया दोनों को मिलाकर रिजर्वेशन 49.50% हो गया फिर मोदी जी 2019 में लाए 10%सवर्ण रिजर्वेशन अब कुल  रिजर्वेशन 59.50% हो गया है।

अब आप बताइए कि अम्बेडकर ने तो ST/ SC के लिए केवल 23% रिजर्वेशन दिलवाया था, जिन्हें सही में उस समय इसकी ज़रूरत थी। फिर अम्बेडकर गलत कैसे हुए? इस देश के आम-जनमानस को ज़रूरत है कि वह बाबा साहब के सभी भाषणों को पढ़ें, उनकी लेखनी को पढ़ें, उनकी जीवनशैली को समझें और उन्हें आत्मसात करें। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर पूजने या गाली देने के लिए नहीं बल्कि, एक आदर्श हैं।

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