Site icon Youth Ki Awaaz

चौधरी अजीत सिंह की मृत्यु पर उनका अवलोकन

इस देश में किसी की मौत होने पर कभी भी निष्पक्ष विश्लेषण नहीं होता। चौधरी अजीत सिंह 82 साल की उम्र में मौत हो गई। अक्सर देखा गया है कि किसी की मौत होने के बाद आप उनके सकारात्मक पक्ष को लेकर चार चांद लगा देते हैं। यह बात सही है कि भारत जैसे तथाकथित “भावुक” देश में किसी अपनों की मौत के बाद निष्पक्ष विश्लेषण करना “गुनाह” के समान है क्योंकि ऐसा करके आप उसके सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक पक्ष की भी बात करते हैं1 मुझे लगता है श्रद्धांजलि के मूल में “श्रद्धा” है, बाकी अंजलि तो महज औपचारिकता होती है। बेहतर हो कि हम उन्हें भावुक होकर केवल श्रद्धांजलि दें, अगर विश्लेषण करना है तो “अंजलि” से भी काम चलाया जा सकता है। चंद घंटे पहले पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट नेता चौधरी अजीत सिंह 1987 में अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद वह राजनीति में आए। चरण सिंह हमेशा कहा करते थे कि मेरा बेटा अमेरिका में नौकरी करता है उसे खेती-बाड़ी की समझ नहीं, वह राजनीति के लायक नहीं।चरण सिंह इस मामले में बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने राजनीति को “कैरियर” नहीं समझा वरना अनगिनत राजनेता राजनीति को कैरियर समझ अपने बेटे को उस खांचे में फिट कराने के उद्देश्य से लाते हैं! उनकी मौत के बाद अगले 34 सालों में अजीत सिंह कई बार अपनी पार्टी का विलय किया फिर उनसे निकले। अपनी सुविधा के अनुसार विभिन्न राजनीतिक दलों से समझौता किया। राजनीति में हमेशा नये ही बनी रहे, 34 साल में कई बार बीजेपी से भी समझौता किया और 2014 में चुनाव हारने के बाद नरेंद्र मोदी की कृपा से राज्यसभा में चले जाएं इसकी काफी कोशिश की, सफलता हाथ नहीं लगने पर संप्रदायिक विरोधी हो गए।लेकिन हमारे तमाम समाजवादी और वामपंथी मित्र इन सब चीजों को भूल कर इस तरह श्रद्धांजलि दे रहे हैं मानो डॉक्टर लोहिया से भी बड़े किसान नेता थे। उनकी सबसे बड़ी असफलता 2012-13 में संप्रदायिक दंगे को रोकने में विफल रहना हुआ! जीवन के अंतिम समय में अपने बेटे जयंत चौधरी के राजनीतिक कैरियर बनाना ही उनका मकसद रह गया। इन सबके बावजूद चुंकि पश्चिम उत्तर प्रदेश में वोट बैंक की राजनीति करने वाला उनसे बड़ा जाट नेता कोई नहीं था इसलिए संसद में और संसद के बाहर किसानों की आवाज रखने वाले वह उस क्षेत्र के एकमात्र नेता थे। 1989 से 2014 के बीच वह 1998 के लोकसभा को छोड़कर हर बार संसद भवन में पहुंचे। 1998 लोकसभा चुनाव में वह अपने ही मित्र सोमपाल से चुनाव हार गए थे जो बीजेपी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ उन्हें हराया था। 1989 में जब राष्ट्रीय मोर्चा के बैनर तले बी पी सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस विरोधी सरकार बनी थी उस सरकार ने वह इंडस्ट्रियल मंत्री थे और उस समय देशभर में वह एक कुशल राजनेता के रूप में उभर रहे थे। बाद में बी पी सिंह से मतभेद और जनता दल की पार्टी जब अस्तित्व बचाने में मशगूल हो गई तब उन्होंने अल्पमत वाली पी वी नरसिंह राव की सरकार को समर्थन देकर जनता दल छोड़ा था और बाद में राष्ट्रीय लोक दल की स्थापना की। यह वही वक्त था जब चौधरी अजीत सिंह राष्ट्रीय नेता से एक क्षेत्रीय नेता के रूप में सिकुड़ते चले गए और उनकी पूरी कोशिश पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों का एकमात्र नेता बनना रह गया। पी वी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेई और मनमोहन सिंह सरकार में भी वह मंत्री रहे। जब किसी राजनीतिज्ञ का उद्देश्य सत्ता से चिपके रहना हो भले ही उसके कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, अजीत सिंह इसके उदाहरण हैं। चुंकि भारतीय लोकतंत्र का ऐसा स्वरूप हो गया है कि राजनेता से लेकर जनता सब तात्कालिकता के प्रभाव में जीने लगे हैं, उस दृष्टिकोण से देखा जाए तो अजीत सिंह एक सफल राजनेता माने जा सकते हैं। वैसे भी जब लोकतंत्र “नैतिकता” के संकट से गुजर रहा हूं तब यह सब बातें बहुत मायने नहीं रह जाती। लेकिन जो शख्स 7 बार सांसद और कई बार केंद्रीय मंत्री रह चुका हो… उसका गुजर जाना उसके अपने क्षेत्र के लिए एक क्षति मानी जाएगी। इससे यह भी जाहिर होता है कि वह अपने क्षेत्र के लोकप्रिय नेता थे। निष्पक्ष विश्लेषण करने के उद्देश्य के साथ साथ चुंकि मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा भी है(वैचारिक मतभेद अपनी जगह हैं) इसलिए अंजलि निभाने के साथ साथ में उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं!

मनीष सिंहा जिला सचिव, (पीयूसीएल) इलाहाबाद

Exit mobile version