मैं हिमखंड का पिघलता हुआ हिमांशु था, तू हर्षा सी इटलाती कोई प्रीति थी,
मैं अपलक निहारता सहेजता बंद आंखों के सपने में तुझे, तू मेरी आत्मा में बसती हुई हकीकत की कोई रीत थी।
शब्द थे नहीं, बस खामोशियां बोल रही थी, यह तेरे अंतर्मन की खामोशियों को मन ही मन तोल रही थी।
तेरे कदमों में हजरत जमी और उम्मीदों का आसमा रख दूं तू इजाजत दे दो सामने तेरे अपने कुछ अरमान रख दूं|
देखकर तुझको आंखों में भर लेता हूं मैं, कैसे किसी और को मैं तुझे देखने की इजाजत कर दूं.