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नई खेती कानून का बना रहना देश आधी आबादी के लिए अस्तित्व का खतरा है

 

 

देश में कोविड के कारण लगभग 12 लाख से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है और यह आंकड़ा आने वाले दिनों में रुकता सा नहीं दिख रहा है। वही भारत का किसान अपने अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई सड़कों पर पिछले 6 महीनों से लड़ रहा है। परंतु देश की किसान हितैषी सरकार अब तक यही बताने में व्यस्त है कि यह कानून किसानों को फायदा पहुंचाएगा, उनके एमएसपी सुरक्षित रहेगी और उनकी जमीन पर किसी कॉर्पोरेट का कब्जा नहीं होगा। इन सारे दावों के बीच किसानों का कहना है कि खेती किसानी करने के बाद भी हमें जितना फायदा मिलन चाहिए उतने का कुछ भी नहीं मिल रहा है और ऐसे में अगर यह कानून पास हो जाता है तो किसानों का अपने ही फसल पर कोई अधिकार नहीं रह जाएगा।

सरकार के दावों और किसान के डर में वास्तविक तथ्यों का पहिया किस तरफ घूम रहा है यह तय  करेगा की क्या सच में सरकार किसान हितैषी होकर सोच रही है या किसान वास्तविकता में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। 1970 से 2010 तक के आंकड़ों को देखा जाए तो कृषि पर खर्च कुल निवेश का घटकर 13% से 5% पर जा चुका है। यह प्रक्रिया 1990 के दशक के बाद से और भी तेजी से बढ़ी, जब देश के बाजार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का सरकारी रूप से ऐलान कर दिया गया। कृषि पर पहले खर्च का मतलब था सस्ते बीज ,बिजली, सिचाई की व्यवस्था। इसके साथ ही किसानों के अनाजों का सही मूल्य पर खरीद जाना, संस्थागत ऋण प्रदान करना( ये दोनों ही सेवाएं भारत  के किसान भारतीय राज्य से प्राप्त नहीं कर पाए हैं आज तक )। परंतु वर्तमान में राज्य ने अपना ध्यान इससे हटा कर कृषि को वाइबरेंट( डाइनैमिक) जमीन के बाजार के रूप में बनाने में, खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने में, नई प्रकार की फसलों के उत्पादन में लगा रहे हैं। और इन सारे चीजों को प्राप्त करने का सरकार के पास एक ही साधन है वह है विदेशी पूंजी का लगातार भारत में निवेश।

ये विदेशी पूंजी ऐसे ही किसी भी देश में नहीं आती है जब तक उन्हे व्यापक फायदा नजर न समझ आए । इसके लिए भारत की सरकार ने 1990 के दशक में आईएमएफ़ के ‘स्ट्रक्चरल अडजेस्टमेंट’( संरचनात्मक समन्वय) पर हस्ताक्षर किया। अर्थात इसका यह मतलब था की भारत के बाजार को विदेशी पूंजी के अनुरूप ढलना पड़ेगा। प्रमुख शर्तें :-

  1. भारत को विदेशी सामान पर लगे टैरीफ को हटाना होगा(अर्थात भारत में विदेशी सस्ते सामान को उतारने की खुली छूट देनी होगी)
  2. सरकार को विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी व्यय को घटाना होगा। (जैसे – बैंकिंग, कृषि, जरूरत के सामान)
  3. कानूनों में परिवर्तन लाकर बाजार को सहज बनाने के लिए पर्यावरणीय मानकों को नीचे लाना होगा, जमीन प्राप्ति को आसान बनाना होगा, करमुक्त या कम कर पर भूमि को उन्हें सौंपना होगा।
  4. किसानों को सरकारी सहायता देना कम करना होगा तथा कृषि को पूरी तरीके से बाजार पर आश्रित करना होगा।

इसके अलावा भी कई शर्तें थीं जिसके आधार पर भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को बढ़ावा दिया गया। शेयर खरीदना- बेचना आसान कर दिया गया, फॉरेस्ट नियमन, जमीन हस्तानन्तरण कानूनों को सरल किया गया आदि।

खेती किसानी में कमोबेश इसी आधार पर परिवर्तन लाए गए और इसकी पहली कोशिश काँग्रेस सरकार द्वारा लकड़वाला समिति की रिपोर्ट के अंदर से किया गया। जहां गरीबी रेखा के नीचे और ऊपर रह रहे लोगों का निर्धारण बेहद बेबुनियाद और अमानवीय तरीके से किया गया और ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 25% लोगों को गरीबी रेखा से नीचे होने की बात कहते हुए लक्षित जन वितरण प्रणाली(Targeted Public Distribution System) को लागू करने का फैसला लिया। जिसका उद्देश्य लोगों तक अनाज की पहुँच को सुनिश्चित करना नहीं , अपितु उन्हे अनाज प्राप्ति की प्रक्रिया से वंचित करना था। जिसको स्पष्ट करते हुए अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने बताया कि वह कोई गरीबी रेखा का निर्धारण नहीं था बल्कि वह आत्महत्या रेखा का पैमाना था। भारतीय किसानों को धोखा देने का सिलसिला आगे बढ़ता है और हर तरफ शांताकुमारम समिति को जोर शोर से प्रसारित किया जाता है। जिसमें यह बताया जाता है कि भारत में अनाज का भंडार है और साथ ही विदेशी पूंजी का भी अतः हमें जन वितरण प्रणाली(पीडीएस) तथा बफर स्टॉक की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए हमें फूड कॉपरेसन ऑफ इंडिया को खत्म कर देना चाहिए।

परंतु वास्तविकता इससे पूरा उलट था;-

  1. सरकार डबल्यूटीओ के नियमों को लागू करने हेतु लगातार सरकारी खर्च को काम करना चाहती थी। जिसका एक बड़ा करार, AOA( अग्रीमन्ट ऑन अग्रीकल्चर) पर भारत पूर्व में ही हस्ताक्षर कर चुका था और सब्सिडी घटना उसमें बाध्यकारी नियम था)
  2. जबकि इसी प्रकार के एक और करार NAMA(नॉन अग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस) पर 2013-14 में हस्ताक्षर करने के बाद खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में भारी निवेश को लेकर सरकार ने लगातार अपनी पहलकदमी दिखाई। क्योंकि इसके द्वारा भारत में विदेशी निवेश को आसानी से स्थान मिल सकता था। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने पाने देश के पूंजी निर्माण को टख पर रख कर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को 100% तक खाद्य प्रसंस्करण पर लागू कर दिया।  
  3. क्रापिंग पैटर्न बदलने को लगातार प्रेरित किए जाने के पीछे का साम्राज्यवादी हित छुपते हुए सरकार लगातार सस्ते गेहूं और सरसों तेल के अलावा अन्य सस्ते वस्तुओं का आयात भारत में बढ़ती रही। जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।

–    आज भारत पर्याप्त सरसों तेल का उत्पादन करने के बाद भी अपनी जरूरतों के 70% खाने के तेल का आयात करता है।

  1. सरकारी सहयोग को खत्म कर और विदेशी सामान से प्रतियोगिता करवा कर सरकार ने देश के छोटे और भूमिहीन किसानों को पलायन हेतु मजबूर कर दिया – यह एक सस्ते श्रम के रूप में शहरों में अपने श्रम को बेचने के लिए मजबूर हो गए।
  2. इस प्रक्रिया के बाद खेती कई लोगों के लिए फायदे का कार्य नहीं रह गई  जिससे लोग सरकारी नौकरियों और प्राइवेट फर्म में काम करने लिए बढ़े। परंतु सरकार ने हर क्षेत्र को निजीकृत कर लोगों के पास ज्यादा अवसर नहीं छोड़े।

सवाल 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का हो या कई करोड़ रोजगार खड़े करने का। अब इसमे कितनी सच्चाई है ये तो स्पष्ट है कई लोगों के सामने।  परंतु 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था से हमारा मतलब क्या है? यह सरकार से किसी ने पूछा ही नहीं। अब अपने से तो वह सही चीजों को भी गलत बताते है तो बिना पूछे पूरे देश को बेचने का राज वह कैसे बता सकता था? इस बड़े से ट्रिलियन वाले दावे के पीछे मोदी का फिसड्डी हाथी खड़ा था जिसे काँग्रेस ने कई सालों से चारा खिलाया था। भारत का विदेशी मुद्रा कोश। परंतु भारत की बहुत बड़ी आबादी इस बात से महरूम है और शायद उन्हे रखा भी गया है कि इस सारे मुद्रा कोश का 4/5 भाग बेहद ही संवेदनशील पूंजी है जो बाजार के थोड़े से डामाडोल होने पर उलटे दरवाजे से बाहर निकाल जाएगा। अर्थव्यवस्था की भाषा में इसे हॉट करन्सी कहते है। अर्थात यह निवेश का वह भाग होता है जो बाजार में फायदे के उद्देश्य से किसी भी जगह पर भ्रमण करता राहत है। इसे निवेश की भाषा में विदेशी संस्थागत निवेश अर्थात FII कहते है। भारत के कैपिटल अकाउंट का एक बड़ा  हिस्सा इससे भरा पड़ा है। शांताकुमारम समिति द्वारा जिस फोरेक्स रिजर्व के दम पर भारत के फूड कॉर्पोरेसन को खतम करने व पीडीएस व्यवस्था को समापन करने की अनुशंसा की गई थी वह चंद हफ्तों में देसी बाजार छोड़ कर बाहर हो सकती है। इसके अलावा भारतीय बड़े पूँजीपतियों द्वारा भर मात्र में विदेशी ऋण भी लिया गया है जिसका सीधा प्रभाव देश की मुद्रा मूल्य पर पड़ सकता है।  जिससे भारत के रुपए का मूल्य विदेशी बाजार में सर के बाल खड़ा हो जाएगा। भारत में एक बाद क्षेत्र मांग को स्थापित करने में सक्षम नहीं है। अतः ऐसे में भारत में व्यापक बेरोजगारी बढ़ने की संभावना बढ़ जाएगी। अर्थात एक तरफ से उत्पादन रुक जाएगा वह दूसरी तरफ से बेरोजगारी की मार झेलनी पड़ सकती है।  

यह आपात दशा तो अभी भी हुई है परंतु एक बड़ी दुर्घटना से भारतीय अर्थव्यवस्था थोड़ी सी ही दूरी पर है वह है भुखमरी की समस्या। वैसे तो यह भारत के अंदर अल्प पोषण की समस्या एक लंबे समय की समस्या है परंतु भारत के कृषि उत्पादन की वजह से व्यापक भुखमरी या अकाल जैसे दशा अभी नहीं बनी है। परंतु यह दशा पिछले लॉकडाउन में ही बन जाती अगर भारत के किसानों ने 56 मिलियन मीट्रिक टन अनाज का अतिरेक उत्पादन न किया होता तो । अर्थात मोदी जी जिस अनाज वितरण कर पूरे देश में वाहवाही लूट रहे थे वह इस देश के किसानों द्वारा उपजाया गया था। देश की जनसंख्या का एक बड़े हिस्से का सीधा गाँव की ओर पलायन कितना भयावह था वह स्मृति में भी कितना खतरनाक जान पड़ता है। परंतु यह स्थिति इससे भी ज्यादा भयावह तब होती जब देश में अपना अनाज नहीं होता। यह नए तीन कानून भारतीय खेती किसानी की रीढ़ तोड़ देंगे और सिर्फ किसानी की ही नहीं भारत की नब्बे प्रतिशत जनता विचित्र रूप से खुद को प्रत्येक दिन मारता हुआ पाएगी।

 पंजाब और हरियाणा के अंदर जो आग लगी है उससे सारे देश में एक चर्चा तो है परंतु प्रतिक्रिया उस प्रकार से नहीं आ रही है। जिसका एक बड़ा कारण हरित क्रांति द्वारा जो ज्यादातर कृषिगत परिवर्तन किए गए उसका सीधा और ज्यादातर फायदा इन दो राज्यों को मिला जिससे उन्हें खेती के फायदे और जमीन को लेकर एक जुड़ाव की भावना का विकास हुआ। वस्तुतः एक स्तर पर पूंजी निर्माण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई परंतु बिहार, झारखंड, ऑडिश, पश्चिम बंगाल, या दक्षिण के राज्यों को इतना फायदा नहीं मिल पाया जिसके कारण यहाँ की उत्पादन शक्तियों का न तो उस स्तर पर विकास हो पाया और न ही जमीन को लेकर कोई मजबूत संघर्ष खड़ा हो सका। यही कारण था कि चेतन का प्रसार भी रुक रहा। यहाँ के ज्यादातर छोटे और भूमिहीन किसानों का व्यापक पलायन शहरों की तरफ हो गया और वह वर्ग जिसे जमीन की लड़ाई को लड़ते हुए कृषि के अंदर पूंजी के निर्माण को प्रेरित कर राष्ट्रीय पूँजीपति के विकास का रास्ता तय करना था वह पूरा संघर्ष अधर में ही अटक गया। परंतु भारतीय जनता को जल्दी से इन बातों को मजबूती से अपने अंदर डाल लेना होगा कि :-

  1. भारत की सभी जनता को विदेशी पूंजी के हस्तक्षेप का मजबूती से विरोध करना होगा
  2. तीनों खेती किसानी कानूनों को निलंबित करने के लिए विरोध तीव्र करना होगा।
  3. जमीन जोतने वालों के अधिकार की लड़ाई को तेज करना होगा तथा साथ ही संसाधनों के हस्तांतरण पर रोक लगानी होगी।
  4. किसानों को संगठित होने की जरूरत पड़ेगी।
  5. भारत की व्यापक 90% शोषित जनता की एकता को स्थापित करने के लिए व स्थानीय लोगों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भी यह जरूरी है। क्योंकि इस पूरी महामारी के बाद जो आर्थिक स्थिति पर जो प्रभाव है वह भयावह है। इससे भारत के माध्यम वर्ग का एक बाद हिस्सा गरीबी व भुखमरी के साथ अपनी अचल संपत्ति को बेचने के लिए विवश होगा- जिसे ज्यादातर बड़े पूंजीपति या बड़े जमीन के मालिक खरीद लेंगे। तथा पुनः पूंजी के कुछ हाथों में सीमित होने की प्रक्रिया ओर भी तेज हो जाएगी। वहीं एक दूसरी तरफ वह जनता जो संसाधनों के आभाव में शहरों की ओर पलायन करेगी उसे खप पाने के लिए भारत की औद्योगिक क्षमता काफी सीमित है। जिससे एक बहुत बड़ा समूह अपने श्रम को सस्ते से सस्ते कीमत पर बेचने के लिए मजबूर हो जाएगा। अर्थात यह व्यापक मांग को और भी काम कर देगा जिससे लगातार महंगाई बढ़ेगी।  

भारत की शोषित जनता को अपने अंदर की असीमित क्षमता को पहचानते हुए अपने सही दुश्मन को पहचान कर उसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है। वरना हमारे पास मक्सीको का उद्धरण है जहां पर भारत के ही तरह कृषि व्यवस्था में साम्राज्यवाद परिवर्तन लाकर एक संपन्न और आत्मनिर्भर जनता को गरीबी और भुखमरी के जाल में धकेल दिया गया।

मक्सीको के कृषि परिवर्तन की दशा- दिशा क्या रही उसका लिंक मैं इस लेख के साथ साझा कर रहा हूँ जिसे भारत की हर जनता द्वारा पढ़ा जाना चाहिए। क्योंकि कोई जरूरी नहीं की हर सिख गलती करके ही ली जाए, उसे देख कर भी सिख जा सकता है।

https://rupeindia.wordpress.com/2021/02/06/the-kisans-are-right-their-land-is-at-stake-part-3-of-3/#more-2069    

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