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बस एक चांस दे दे डियर जिंदगी

टाइटल

 

कभी सोचा भी नहीं था कि ज़िंदगी में ऐसा भी एक वक्त आएगा! जब बस घर में ही बैठे-बैठे ऊब जाएंगे। सब बढ़िया या कहें  एक्चुअली नार्मल चल रहा था। उनकी जॉब और बच्ची की पढ़ाई, मेरा काम!  मतलब सब कुछ अच्छा जा रहा था‌।

 

 

बिज़ी लाईफ के मायने फुरसत में ज़्यादा याद आ रहे हैं

इतनी बिज़ी लाईफ कि सांस लेने की फुर्सत नहीं होती थी। कब दिन हुआ और कब रात आई पता ही नहीं चलता था। फिर वीकेंड तो मानो चुटकियों में बीत जाते कभी मॉल, कभी दोस्तों के साथ पार्टी तो कभी रिश्तेदारों के घर जाना बस

मगर शायद उस नार्मल ज़िंदगी की कद्र नहीं की कभी, तभी तो शायद अनजाने में ही प्रभु से थोड़ी फुर्सत मांग बैठे और प्रभु भी तथास्तु बोल बैठे। आज जब घर में कैद बैठे हैं, सब छोटे-छोटे खुशियों के पल या कहें व्यस्तता के पल अब बहुत याद आते हैं।

 

मन अब रोना चाहता है, बाहर निकलना चाहता है।

सुबह जल्दी टिफिन बनाना, बच्ची को स्कूल बस तक छोड़ने जाना और पांच – दस मिनट में वहीं पर सब पड़ोस की सखियों से बतिया लेना सच बहुत याद आता है।
अब क्रिकेट खेलते शोर मचाते बच्चों को देखे जैसे ज़माना बीत गया। सबकी साइकिलों पर धूल जमी हुई है और सन्नाटा ही सन्नाटा हर ओर पसरा हुआ है।

हमको ही इतनी घुटन होती है फिर बच्चों की क्या बात कहें। छोटे-बड़े सारे बच्चे घर की चारदीवारी में घुट के रह गये हैं। ना जाने कब ये मुसीबत खत्म होगी और हम सब फिर से नार्मल लाइफ जी सकेंगे। घुटन होती है!  रोना आता है अब बाहर निकलना है हमें।

कोई तो दुआ करो खत्म हो ये सब अब। हां, दिलासा देने को खुद को ही कहते रहते हैं कि हिम्मत नहीं हारनी मगर सच अब  हिम्मत टूट गई है।  कितने अपने ज़िंदगी से लड़ रहे हैं और कितने हमें छोड़ गए।  कभी-कभी लगता है कि कहीं कल मेरा नंबर ना हो? आजकल हम सब, सबसे फोन पर बात करने की कोशिश करते हैं, कल ना रहे तो सबको याद तो रहें शायद।

 

मौत की खबरें हर पल अंदर से तोड़ रही हैं

अब तो सच हद हो गई है, क्यों भगवान भी नहीं सुन रहे, अपने भक्तों की पुकार? कोई प्रार्थना, कोई दुआ काम तो आए। क्यों सब कुछ डूबा हुआ सा लग रहा है? उम्मीद खत्म क्यों हो गई है? क्यों सब कुछ छूट गया? अब बस हम सबको वही नार्मल सी जिंदगी चाहिए और थोड़ा सा सुकून।

कुछ ज़्यादा चाहतें नहीं बची हैं, अब सिर्फ इतना ही कि अगर बच गए, तब ज़िंदगी की कद्र करेंगे और हम सब हर सांस की कद्र करेंगे।

क्यों आशा-निराशा से हार रही है? क्या अब ये सब नहीं बदलेगा? सबको ही बारी-बारी जाना पड़ेगा क्या? रोज़ मौत की खबरों ने सच में मनोबल तोड़ दिया है और अपनों के आखिरी वक्त में उनसे ना मिल पाने की टीस भी गहरे तक धंस गई है।

नॉर्मल ज़िंदगी जीने को हम सब तरस रहे हैं

ज़िंदगी  इस कदर बदल जाएगी सोचा भी नहीं था। समय बीत रहा है पर हम लोग हैं कि जैसे ठहर गए हैं। कैसे उम्मीद और हौसला जुटाएं? इस कठिन समय को कैसे काटें समझ नहीं आ रहा है।
सब कुछ हो रहा है।  खाना बनता है, खाया भी जाता है।  घर के दूसरे काम और स्कूल वा ऑफिस सब चल रहा है, फिर भी बस इंतज़ार है कि नार्मल ज़िंदगी फिर से शुरू हो जाए।

कोई तो दुआ, कोई प्रार्थना करो! भगवान सुन लें और सबके कष्ट दूर करें। कोई चमत्कार या कोई जादू हो जाए और बस किसी दिन खबरें आने लगें कि बस कोरोना खत्म हो गया।  सब अपने काम पर जाएं।  खुशियों से दमकते चेहरे लिए बच्चे स्कूल जाएं, पार्क में जाकर खूब खेलें।  धूल मिट्टी से सने उन प्यारे चेहरों को फिर से देखना है।

लोग ऑफिस जाएं। हम दोस्तों, रिश्तेदारों से फिर बिना हिचक मिल सकें। जाने कैसा होगा वो दिन बस अब उस नार्मल दिन का इंतज़ार है, बस ज़िंदगी एक चांस और दे दे नार्मल ढंग से जीने का।

स्मिता सक्सेना
बैंगलौर

https://rootsandwingsbysmita.wordpress.com/

 

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