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भारतीय रियासतो का एकीकरण 1947-49

565 रियासतो का एकीकरण -एक चुनोती

अखंड व संगठित भारत

सन 1947 से पूर्व हमारा भारत दो प्रशासनिक भागो में बँटा हुआ था या यूँ कहे तो उस वक़्त दो भारत चल रहे थे अब आप कहेंगे ये कोनसी बात हुई तो आइए आपको बताते हैं कैसे हुआ रियासतों का एकीकरण। तो जैसा कि मैंने दो भारत का ज़िक्र किया उस अनुसार भौगोलिक रूप से तो एक ही भारत था लेकिन प्रशासनिक रूप से दो भारत थे। एक ब्रिटिश साम्राज्य जिसके तीन मुख्य केंद्र बँगाल, मद्रास और बॉम्बे अगर दूसरे भारत की बात करें तो वह था रियासती भारत जिसमें भारत के राजे राजवाड़े शामिल थे। सन 1947 में जब हमारा देश आज़ाद हुआ तब आज़ादी के उत्सव के साथ-साथ हमारे लिए एक बड़ी समस्या भी खड़ी हुई और उस समस्या का नाम था पाकिस्तान,

फ़ोटो -पाकिस्तान का झंडा 

भारत में उस वक़्त दो मुख्य पार्टियाँ हुआ करती थी एक कांग्रेस व दूसरी मुस्लिम लीग।

फ़ोटो -मोहम्मद अली जिन्ना,संस्थापक मुस्लिम लीग व पाकिस्तान।

मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिंन्हा ने उस वक़्त पाकिस्तान की माँग उठाना शुरू कर दी कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच यह बहस छिडने लगी जिसमें कांग्रेस ने अलग राष्ट्र की मांग को नकार दिया। कांग्रेस पार्टी पाकिस्तान के निर्माण के सख्त खिलाफ थी इन सब के चलते यूनाइटेड किंगडम पार्लियामेंट ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (Indian independent act 1947) आया जिसके अनुसार ब्रिटिश शासित भारत का दो भागों में विभाजन होना था भारत व पाकिस्तान। यह अधिनियम 4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश सांसद में पेश हुआ व 18 जुलाई को स्वीकृत हुआ। अंग्रेजो को तो 1857 की क्रांति के बाद से ही समझ में आने लगा था कि अब इन पर राज करना मुश्किल होगा। दूसरा विश्व युद्ध 1939 में शुरू हुआ लेकिन 1940 में हालात बिगड़ने लगे कई देश युद्ध की आग में जले इनमें से एक था ब्रिटेन उसी समय भारत में महात्मा गाँधी ने *”अंग्रेजो भारत छोड़ो” * आंदोलन शुरु किया था, यही वक़्त था जब नेताजी शुभाष चंद्र बॉस जापान समेत कई देशों में भारतीय आर्मी को। मजबूत कर रहे थे। सन 1945 तक युद्ध भी ख़त्म होने लगा था और इसी दौरान ब्रिटेन में चुनाव भी थे बस यहीं से शुरू होती हैं कहानी भारत की आज़ादी की वहाँ की लेबर पार्टी ने चुनाव जीतकर भारत की आज़ादी की घोषणा कर दी थी। 1947 में ही इंग्लैंड के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने लुइस माउंटबेटन को भारत का वायसरॉय बनाया जो भारत के अंतिम वायसरॉय हुए। तब इंग्लैंड के तात्कालिक प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने कहा की जो भी पार्टी 1948 तक सरकार बनाने में कामयाब होगी उसे हम सम्पूर्ण ताकत देकर भारत को आज़ाद कर देंगे। यहाँ पर भारत में हड़बड़ी तेज़ हो गई एकतरफ कांग्रेस पाकिस्तान की मांग पर बिल्कुल सहमत नहीं थी। लेकिन मोहम्मद अली जिंन्हा पाकिस्तान को लेकर इतना पागल हो गए थे की उन्होंने कई जगहों पर हिन्दुओ के खिलाफ डायरेक्ट एक्शन किया

फ़ोटो-जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन से हुए दंगो में लाखों लोगों ने जान गवाई

जिससे देश भर में धार्मिक दंगे भड़के व कई लोग मारे गए जिसके बाद कांग्रेस को ना चाहते हुए भी विभाजन पर सहमति देनी पड़ी। अब ब्रिटिश सरकार के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार विभाजन की शर्तों में एक मुख्य बात कही गई जो समस्या बनी। अधिनियम के एक उपबंध में कहा गया कि भारत की सभी रियासतों के पास तीन विकल्प हैं या तो वे भारत में शामिल हो या वे पाकिस्तान में शामिल हो या तीसरे विकल्प के अनुसार वह स्वतंत्र भी रह सकते है। अब यहाँ दोस्तो आप देख सकते हैं किस तरह से अंग्रेजो की धूर्तता चरम सीमा पर थी वह एक ऐसा कमजोर व बिखरा हुआ भारत बनाना चाहते थे जो आगे जाकर फिर से उनके अधीन हो जाए। अब जब स्वतंत्रता अधिनियम में यह बात कही गई कि आप स्वतंत्र रह सकते हैं तो कुछ राजा बड़े प्रसन्न हुए की हम स्वतंत्र होंगे, हमारे पास सम्पूर्ण ताकत होगी। अब यहाँ से शुरू होता है पाकिस्तान का निर्माण और भारत का एकीकरण मुस्लिम लीग के अध्यक्ष जिन्ना रियासतों को पाकिस्तान में मिलाने के लिए तरह-तरह के प्रयास करने लगे, पाकिस्तान में मिलने के लिए राजे रजवाड़ो को निमंत्रण व लालच देने लगे। अब यहाँ पर कांग्रेस को भी ज़रूरत थी रियासतों को एकत्रित करने की तब यह जिम्मा सरदार पटेल लेते हैं।

फ़ोटो-अखण्ड भारत के निर्माता ,भारत के प्रथम गृह मंत्री, प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल।

आज़ाद भारत के पहले उप प्रधानमंत्री व देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को कांग्रेस कमिटी ने रियासतों के एकीकरण का जिम्मा दिया क्योंकि पूरा देश जानता था कि यह कठिन कार्य कूटनीतिक विचारो सख्त तेवर और सूझ बूझ रखने वाले सरदार पटेल के अलावा कोई नहीं कर सकता था, साम दाम दंड भेद को मानने वाले सरदार पटेल इस काम में लग जाते है। अब यहाँ वह सरकार में अपने सेक्रेट्री के रूप में लाते है वी.पी मेनन को। दोस्तों V.P मेनन को हमारे इतिहासकारो ने शायद भुला दिया लेकिन अगर देखा जाए तो सरदार पटेल के साथ अगर कोई दिन रात काम कर सकता था तो वह थे वी.पी मेनन। 

वी .पी मेनन , सरदार पटेल के सचिव

30 सितंबर 1893 में इनका जन्म केरल के एक गाँव में हुआ था, वी.पी मेनन लॉर्ड माउंटबेटन के राजनीतिक सलाहकार भी रहे हैं। उनका पूरा नाम वाप्पला पंगुनी मेनन था, उनकी सूझ बूझ व धैर्य ने सरदार पटेल का पूरा साथ दिया रियासतो के एकीकरण में। सरदार पटेल के कहने पर ही उन्होंने “*दी स्टोरी ऑफ इंटीग्रेशन ऑफ दी इंडियन स्टेट्स*” व “*दी ट्रांसफ़र ऑफ पावर इन इंडिया*” जैसी पुस्तकें लिखी थी। इसके बाद शुरू होता है सभी राजे रजवाड़ो को भारत में लाने का काम शुरू। यहाँ एक और बड़ा नाम आता है जिनका एक अच्छा सहयोग उस समय भारत सरकार को। मिला था और वह नाम तात्कालिक भारत के 20 वे व अंतिम वायसरॉय-वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन का था। लॉर्ड माउंटबेटन को वी.पी मेनन व सरदार पटेल ने समझाया कि आपको राजे रजवाड़ो को कहना होगा कि भौगोलिक सीमाओं को देखते हुए ही विलय का निर्णय ले बाक़ी का काम हम देख लेंगे इस पर लॉर्ड माउंटबेटन मान जाते है। अब सरदार पटेल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई जिसमें तमाम रियासतो के राजा व नवाब व कुछ पत्रकार भी आए, हालाँकि कुछ नवाब व राजा शामिल नहीं हुए थे क्यूँकि वह पहले से जिंन्हा के संपर्क में थे। उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरदार पटेल कहते हैं कि मैं आप सभी को बेटो की तरह मानता हूँ। आप सभी अगर प्यार से अपने देश भारत में विलय के लिए राजी होते हैं तो ठीक है वरना बेटो को किस तरह अनुशासन में लाते हैं वह कला भी में जानता हूँ उस वक़्त भारत व पाकिस्तान दोनों नें एक विलय पत्र जारी किया जिस पर राजाओ को हस्ताक्षर करने थे। लेकिन कुछ राजे रजवाड़ो का कहना था कि उन्हें सोचने के लिए कुछ समय दिया जाए तब एक वर्ष के लिए समय दिया गया तब तक उनसे स्टैंड स्टील एग्रीमेन्ट पर हस्ताक्षर करवा लिए गए थे। धीरे-धीरे सभी रियासतो ने भारत में विलय पर सहमती दे दी थी बस कुछ बड़ी रियासतें जिन पर उस वक़्त बहुत बवाल हुआ अक्सर आपने हैदराबाद, जूनागढ़, व कश्मीर की कहानी सुनी होगी लेकिन इसके अलावा कुछ और रियासते जैसे जोधपुर, त्रावणकोर, व भोपाल जैसी रियासतो को शामिल करने में भी बड़ी कठिनाई आई, एक तरफ़ जिंन्हा पूरी कोशिश कर रहा था कि किसी भी तरह इन रियासतो को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। लेकिन भारत के पक्ष में भारत के पास लोह पुरूष थे जिनकी वज़ह से आज हमारा भारत अखण्ड है।

जोधपुर रियासत  

आज़ादी से महज 4 दिन पहले भारत में मिला जोधपुर

जोधपुर आज भारत का एक खूबसूरत व सम्पन्न हिस्सा है लेकिन यह संभव हुआ सरदार पटेल की सूझ बुझ व खासकर वी.पी मेनन के धैर्य से जोधपुर के उस वक़्त के महाराजा हनवंतसिंह ने पूरा मन बना लिया था पाकिस्तान के साथ विलय का क्योंकि जिंन्हा ने उन्हें कंहा था कि हम आपकी हर शर्त मानेंगे अगर आप पाकिस्तान में शामिल होते हैं

वी.पी मेनन अपनी पुस्तक दी स्टोरी ऑफ इंटीग्रेशन फ़ इंडियन स्टेटस में लिखते है कि जिन्ना व मुस्लिम लीग के नेताओं की हनवंतसिंह से कई मुलाकाते हुई जिन्ना से जब भी वह मिलने जाते अपने साथ कई राजाओ को। लेकर जाते थे। उनकी अंतिम मुलाकात में वे जैसलमेर के महाराज कुमार को अपने साथ में ले गए थे उस मुलाकात में जिन्ना ने एक कोरे काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर जोधपुर के महाराज हनवंतसिंह को दिया और कहा कि आप जो भी शर्त रखोगे में तैयार हूँ। तब महाराजा हनवंतसिंह पाकिस्तान में विलय के लिए राजी हो गए उसके बाद जिन्ना जैसलमेर के राजकुमार की और मुड़े तभी महाराज कुमार नेपाकिस्तान में विलय के लिए एक शर्त रखी, शर्त में महाराज कहते है कि अगर हिन्दू मुस्लिम झगड़ा होता है तो आप हिन्दुओ के विरुद्ध कोई क़दम नहीं उठाएंगे अर्थात मुसलमानों का पक्ष नहीं लेंगे इस बात पर जिन्ना एक दम से चुप हो गए। तभी भोपाल के नवाब के राजनीतिक सलाहकार जफरुल्ला खां ने सारी बात काव मज़ाक बनाते हुए पाकिस्तान विलय पर हस्ताक्षर करने पर ज़ोर दिया लेकिन महाराज उस वक़्त निर्णय करने की स्थित में नहीं थे उन्होंने जिन्ना से कहा वे जोधपुर जा रहे है और वहाँ से लौटकर निर्णय लेंगे। इस बात की ख़बर जब सरदार पटेल को पड़ी की जोधपुर के महाराजा पाकिस्तान में विलय पर विचार करने का सोच रहे थे। तब सरदार पटेल के कहने पर लॉर्ड माउंटबेटन ने उन्हें दिल्ली बुलवाया। पटेल ने हनवंतसिंह से बात करते हुए कहा देखो बेटा हनवंत तुम्हारे पिताजी उम्मेदसिंह जी मेरे अच्छे दोस्त थे और उन्होंने तुम्हें मेरी देखरेख में छोड़ा है। अगर तुमने कोई ऐसी वैसी हरकत करी तो मुझे तुम्हारे पिताजी के रोल में उतरना पड़ेगा। तभी कुछ देर बाद महाराजा ने कुछ विचार करने के तुरंत बाद भारत में विलय का निर्णय लेते हुए कहा आपको ऐसा कोई क़दम उठाने की ज़रूरत नहीं है। 11 अगस्त 1947 को यानी आज़ादी के महज़ चार दिन पहले महाराजा ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए यहाँ पर वी.पी मेनन के साथ एक किस्सा होता है। महाराजा हनवंतसिंह ने वी.पी मेनन के सर् पर पिस्टल तान दी थी। लेकिन मेनन ने धैर्य से काम लिया और विलय पत्र पर हस्ताक्षर करवा लिए, इसके साथ ही जोधपुर जैसी रियासत पाकिस्तान में जाने से बच गई और इसी तरह जोधपुर भारतीय संघ में मिल गया।

2 वर्ष बाद आज़ाद हुआ था भोपाल

अब बात करते हैं ऐसी ही एक रियासत जो वर्तमान में झीलों की नगरी है, साथ ही ह्रदय प्रदेश की राजधानी है। तो भोपाल उस वक़्त एक बड़ी रियासत हुआ करता था उस वक़्त भोपाल के तत्कालिक नवाब हमीदुल्लाह खान 1926 से ही मुस्लिम लीग के सक्रिय सदस्य थे साथ ही पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना के ख़ास दोस्त भी थे। भोपाल नवाब चाहते थे कि भोपाल एक स्वतंत्र रियासत रहे, वह अपना एक स्वतंत्र राज्य चाहते थे लेकिन हैदराबाद के निज़ाम उन्हें पाकिस्तान में विलय करने के लिए प्रेरित किया। 14 अगस्त 1947 तक निज़ाम कोई निर्णय नहीं ले पाए इसलिए उन्होनें स्टैंड स्टील एग्रीमेन्ट पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लिया। अधिक समय तक किसी भी देश में ना मिलने के कारण भोपाल की जनता में भी आक्रोश था। तत्कालिन कई बड़े नेताओं ने भोपाल को हिंदुस्तान में विलय करवाने के लिए आंदोलन आरम्भ कर दिया था।

फ़ोटो-भोपाल में हिंसा

नवाब ने कई बार अपने पुलिस बल के दम पर कई बार आंदोलन को दबाने के लिए उन पर गोलियाँ चलवाई जिसमें कई लोगों की जान गई। तभी गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवाब को पत्र लिखा कि भोपाल अब स्वतंत्र नहीं रह सकता इसे मध्य भारत का हिस्सा बनना ही होगा साथ ही उन्होंने कहा कि आप विलय से बिल्कुल भी दुखी ना हो। इतने भारी विरोध और सख्त तेवर की वज़ह से हमीदुल्लाह खान को घुटने टेकने पड़े व हिंदुस्तान की आज़ादी के दो वर्ष बाद

फ़ोटो-पहली बार भोपाल में तिरंगा फहराया गया

1 जून 1949 को भोपाल में तिरंगा फहराया गया।

त्रावणकोर ने सबसे पहले किया था भारत का विरोध

त्रावणकोर नक़्शे में लगभग वहाँ था, जहाँ आज केरल है। आधी सीमा मुख्य भारतीय भूभाग से लगी हुई और बाक़ी की आधी सीमा समुद्र से। रणनीतिक रूप से एक इंपॉर्टेन्ट लोकेशन। जब समुद्र के साथ फलता-फूलता समुद्री व्यापार हो, तो ये लोकेशन इंपॉर्टेन्ट से बेहद इंपॉर्टेन्ट हो जाती है। त्रावणकोर के राजा थे बलराम वर्मा। लेकिन बलराम वर्मा बेचारे थोड़े भोले भाले थे, लेकिन चतुर था उनका दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर। अय्यर बहुत चतुर किसम के दीवान थे। वकालत की पढ़ाई की। 16 साल दीवान की गद्दी संभाली। राजा से इनकी अच्छी बनती थी। इस हद तक बनती थी कि फैसले यही लेते थे, राजा बस मुहर लगाते थे।

3 जून 1947 को माउंटबैटन का प्लान आता है  और उस प्लान में  भारतीय उपमहाद्वीप की तक़दीर थी। इसको इतिहास में माउंटबैटन प्लान का नाम मिला। इस प्लान में रियासतों के लिए ये प्रावधान था प्रिंसली स्टेट्स यानी रियासतों के पास ये विकल्प रहेगा कि वे भारत के साथ जाएँ या पाकिस्तान के साथ, या स्वतंत्र रहें। रामास्वामी अय्यर की आंखों में तीसरा विकल्प जम गया। 3 जून को माउंटबैटन प्लान अनाउंस हुआ था, 11 जून को अय्यर ने अपना निर्णय सुनाया। राजा बलराम वर्मा ने घोषणा की कि त्रावणकोर स्वतंत्र रहेगा। अय्यर ने त्रावणकोर के दौरे पर दौरे मारे। लोगों को ये समझाने के लिए कि अपन को क्यों आजाद रहना चाहिए. अय्यर अपने भाषणों में लोगों को त्रावणकोर के प्रताप के किस्से सुनाते हैं। लेकिन एक आदमी दूसरे प्लान को लेकर बहुत एक्साइटेड था और उस आदमी का नाम था मोहम्म अली जिन्नाह। 20 जून को जिन्नाह अय्यर को एक तार लिखते हैं-

त्रावणकोर के साथ रिश्ते काय करने के लिए पाकिस्तान तैयार है। ये हम दोनों के लिए फायदे की बात होगी। उस समय लोह पुरुष सरदार पटेल दूसरी रियासतों के एकीकरण में व्यस्त थे।

एक महीने बाद 20 जुलाई को अय्यर दिल्ली में एक सीनियर ब्रिटिश राजनयिक से मिलते हैं। मांग करते हैं कि यूनाइटेड किंगडम (अंग्रेज़) त्रावणकोर को मान्यता दे। अगर भारत हमें वस्त्र देने से इंकार करता है तो यूनाइटेड किंगडम दबाव बनाए. अय्यर को भरोसा था कि अंग्रेज़ मदद ज़रूर करेंगे क्योंकि अंग्रेज़ों को भी एक मदद चाहिए थी और उस मदद का नाम था ‘ मोनोज़ाइट

 

सोलहवी सदी में बने पद्मनाभस्वामी मंदिर से अब तक 90000 करोड़ रुपए का सोना निकल चुका है

सोर्स–*the_lallantop & The story of integration of Indian states*

अपनी समूची संपदा के अलावा त्रावणकोर को एक वरदान और मिला था। ये वरदान था हाल ही में खोजे गए मोनाज़ाइट के भंडार। मोनाज़ाइट से थोरियम निकलता है और थोरियम से निकलती है परमाणु ऊर्जा। ये वह दौर चल रहा था जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा कर द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म किया था। विश्व युद्ध तो ख़त्म हो गया लेकिन उसके बाद शीत युद्ध (मुख्यत: अमेरिका और रूस के बीच) शुरू हो गया और शीत युद्ध लड़ने के लिए सबको परमाणु ऊर्जा चाहिए थी। अंग्रेज़ों को भी। 21 जुलाई को अय्यर सरदार पटेल के कहने पर माउंटबैटन से मिलते हैं और इनकी दो घंटे से ज़्यादा देर तक लंबी बातचीत चलती है। माउंटबैटन मानने को तैयार नहीं हुए. जैसे त्रावणकोर की जनता तैयार नहीं हुई. जैसा कि बताया था त्रावणकोर में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों की अच्छी पकड़ थी। लोगों को राजा के ऊपर भरोसा नहीं हुआ।

25 जुलाई को अय्यर एक म्यूजिक कॉन्सर्ट में जा रहे थे। रास्ते में उन पर हमला हो गया। खाकी पेंट पहने एक युवक ने चाकू से अय्यर के चेहरे और शरीर पर कई वार किए. अय्यर की जान तो बच गई लेकिन उन्हे0 अस्पताल में भरती होना पड़ा और इसी अस्पताल के बिस्तर से अय्यर ने महाराज को ये सुझाव दिया कि ‘महाराज समझौता कर लेना चाहिए’ ।

महाराज ने समझौता कर लिया। 30 जुलाई को महाराज बलराम वर्मा ने माउंटबैटन को तार भेजा कि त्रावणकोर भारत के साथ ही जाना चुनेगा और 15 अगस्त 1947 को देश का जो नक़्शा बना, उस नक़्शे का एक हिस्सा त्रावणकोर भी था। वही हिस्सा जिसका सबसे पहले मन छिटक गया था। वही हिस्सा जिसके पास बड़े खज़ाने के साथ-साथ मोनाज़ाइट का खज़ाना भी था।

तो कुछ इस प्रकार अपने आप को स्वतंत्र मानने वाली रियासत वहाँ की जनता के आगे झूक कर अखण्ड भारत में शामिल हो गई।

कश्मीर की जटिल समस्या

कश्मीर की समस्या सबसे ज़्यादा विख्यात है आज़ादी से पहले कश्मीर से महाराजा हरिसिंह अपने राज्य को स्वतंत्र बनाएँ रखना चाहते थे। जब ब्रिटिश राज ने मौजूदा सभी रियासतो ओर रजवाड़ो के सामने यह बात रखी की भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए कश्मीर भारत या पाकिस्तान में से किसी एक देश में विलय कर ले लेकिन महाराजा को यह बात कतई स्वीकार नहीं थी यहाँ दो बातें थी एक तो हरी सिंह कांग्रेस से नफ़रत करते थे इसलिए वह दूसरा वह भारत में मिलना नहीं चाहते थे और दूसरी बात यह कि अगर वह पाकिस्तान में मिलते तो उन्हें अपने हिंदू राजवंश का अंत होने का डर था इस स्थिति को देखते हुए उन्होंने स्वतंत्र होने का फ़ैसला लिया। उस वक़्त कश्मीर रियासत में एक बड़ा नाम आता है व नाम था शेख अब्दुल्लाह शेख अब्दुल्ला महाराजा हरि सिंह के सबसे बड़े विरोधी के रूप में उभरे अब्दुल्ला ने शुरुआत में तो एक निजी स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया लेकिन कुछ समय बाद वे राजनीति में आ जाते हैं। मुसलमानों को लेकर हो रहे भेदभाव पर उन्होंने रियासत में सियासत तेज कर दी थी उनका मानना था कि मुसलमान बहुल क्षेत्र होने के बावजूद भी मुसलमानों को यहाँ पर नौकरी व शिक्षा नहीं मिल पाती है इसी आंदोलन और सियासत के बीच 1932 में शेख अब्दुल्ला ने ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का गठन किया बाद में यह नाम बदलकर नेशनल कांफ्रेंस रख दिया गया। इस वज़ह से उस समय कई सिख व हिंदू समुदाय के लोग भी इस ग्रुप में शामिल होने लगे उसके बाद अब्दुल्ला नेहरू के भी करीब आने लगे थे क्योंकि दोनों ही एकता और समाजवाद के ऊपर क़ायम थे। सन 1940-45 में अब्दुल्ला कश्मीर के लोकप्रिय नेता बन चुके थे। इसी बीच अब्दुल्ला को महाराजा ने जेल में डाल दिया था। उसके बाद सितंबर 1947 के आसपास कश्मीर में पाकिस्तान ने घुसपैठियों को-को भेजना शुरू कर दिया था इसके बाद 25 सितंबर 1947 को महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया। डोमिनिक लेपियर अपानी किताब- 

“फ्रीडम एट मिडनाइट” में लिखते हैं कि महाराजा हरि सिंह तो अभी आजाद कश्मीर के ख़्वाब ही देख रहे थे इसके बाद 12 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के उप प्रधानमंत्री ने दिल्ली में कहा कि हम भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ दोस्ताना क़ायम रखना चाहते हैं पर कश्मीर बिल्कुल स्वतंत्र रहेगा महाराज की महत्त्व काम से है कि इससे पूर्व का स्विजरलैंड बनाया जाए। इसके कुछ दिनों बाद पाकिस्तानी कबायली 22 अक्टूबर को उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत और कश्मीर के बीच की सरहद लांघने लगे थे। कश्मीरी कबायली तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे थे उन्होंने बड़ा उत्पात मचाया इसके साथ ही वह लड़कियों व महिलाओं से बलात्कार दुष्कर्म करने लगे थे। इस दौरान कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से मदद मांगी वीपी मेनन अपनी किताब द इंटीग्रेशन ऑफ इंडिया स्टेट में लिखते हैं कि 24 अक्टूबर को महाराजा ने सरकार को सैनिक सहायता का संदेश भेजा। उसके बाद दिल्ली में सुरक्षा समिति की बैठक हुई और निर्णय लिया गया कि मेनन कश्मीर जाएंगे। वीपी मैनन कश्मीर जाकर कश्मीर के महाराजा से मिले और उन्हें सुरक्षित जम्मू जाने की सलाह दी उसके बाद नेहरू पाकिस्तान से मुकाबले के लिए भारतीय सेना भेजना चाहते थे लेकिन सरदार पटेल व लॉर्ड माउंटबेटन ने उन्हें ऐसा करने से रोका। Patel का कहना था कि जब तक कश्मीर विलय पर हस्ताक्षर नहीं कर देता तब तक हम उसकी सहायता नहीं करेंगे उसके पश्चात नेहरू को गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल की बात माननी पड़ी। तभी कश्मीर में विलय पर हस्ताक्षर किए भारतीय सेना कश्मीर में भेजी गई भारतीय सेना ने अपने शौर्य और पराक्रम से उरी तक के क्षेत्र से कबायलीओ को खदेड़ते हुए पूरे क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया और कुछ इस प्रकार कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा भारत में शामिल किया गया। राजमोहन गांधी अपनी किताब पटेल लाइफ में लिखते हैं कि कश्मीर के तत्कालीन युवराज करण सिंह के हवाले से कहते हैं कि नेहरू ने सरदार पटेल पर छोड़ दिया था कि वह कैसे मेरे पिताजी को कश्मीर से हटाते है। उसके बाद 29 अप्रैल 1949 को हमने सरदार पटेल के घर पर साथ में भोजन किया फिर सरदार पटेल ने मेरे माता-पिता के साथ एक कमरे में बात करी वह कहते है कि माता-पिता की आंखों में आंसू थे सरदार पटेल ने कहा कुछ समय के लिए आपको कश्मीर छोड़ देना चाहिए यह राष्ट्रहित में साबित होगा इसके बाद भारत से यहाँ बड़ी भूल हुई और लॉर्ड माउंटबेटन के कहने पर कश्मीर मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाया गया।

जूनागढ़ का पाकिस्तान की तरफ झुकाव

कश्मीर जूनागढ़ व हैदराबाद इसमें जूनागढ़ भी मुख्य था आइए आपको बताते हैं कि जूनागढ़ की कहानी। जूनागढ़ के जो राजा थे वह बड़े रोमांचक कि यहाँ के राजा महावत खान को काफ़ी रंगीले मिज़ाज के राजा कहा जाता है। उनके दो शौक थे एक तो वे कुत्तों के बड़े शौकीन थे उन्होंने एक बार अपने दो कुत्तों की शादी बड़े धूमधाम से करवाई थी

फ़ोटो-जूनागढ़ के नवाब अपने कुत्ते के साथ

जिसमें तमाम बड़ी-बड़ी रियासतों के राजा महाराजा बुलाए गए थे व उस दिन पूरे राज्य में शासकीय छुट्टी घोषित कर दी थी। दूसरा शौक उन्हें नाच गाने का था। यहाँ कहने का मतलब यह है कि जूनागढ़ के महाराजा को अपने राज्य और प्रजा से कोई मतलब नहीं था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आज स्वतंत्र हुआ उस दिन जूनागढ़ के नवाब ने जूनागढ़ को पाकिस्तान में विलय करने की घोषणा कर दी। तब सरदार पटेल ने शक्ति अपनाते हुए जूनागढ़ में तेल व कोयले की सप्लाई, हवाई डाक संपर्क रोककर आर्थिक घेराबंदी कर दी। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब: पटेल अ लाइफ़, में जूनागढ़ के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में लिखा है, “जूनागढ़ में तब सात लाख लोग रहते थे। जिनमें से 80% हिंदू थे। जूनागढ़ के नवाब जब यूरोप में थे, तब राजमहल में कुछ अनबन चल रही थी। सन 1947 के मई महीने में सिंध के मुस्लिम लीग के लीडर शाहनवाज़ भुट्टो जूनागढ़ के दीवान बनाए गए थे। भुट्टो और जिन्ना में गहरा सम्बंध था। ख़ुद के द्विराष्ट्र सिद्धांत को तिलांजलि देते हुए हिंदू बहुमत वाले राज्यों को स्वीकार करने के लिए जिन्ना तैयार हो गए थे। जिन्ना की सलाह के अनुसार भुट्टो ने 15 अगस्त तक कुछ भी नहीं किया। जिस दिन पाकिस्तान बना, उसी दिन जूनागढ़ ने उसके साथ जाने का ऐलान कर दिया।”

19 सितंबर को सरदार पटेल ने भारत सरकार के रजवाड़ा खाते के सचिव वी पी मेनन को जूनागढ़ भेजा।

उन्हें नवाब से तो नहीं मिलने दिया गया, लेकिन नवाब की ओर से उन्हें सारे जवाब भुट्टो ने दिए.

राजमोहन गांधी ने लिखा है कि भुट्टो ने गोल-मोल जवाब दिए. हालात दिन-ब-दिन और भी उलझ रहे थे। काठियावाड़ के नेता और मुंबई में बसे हुए कुछ काठियावाड़ी लोग इस बात से परेशान थे।

सरदार पटेल नें जूनागढ़ में सैनिक कार्यवाही का निर्णय लिया जिस पर लॉर्ड माउंटबेटन नाराज हो गए उनका कहना था कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव पड़ेगा लेकिन सरदार पटेल ने कहा पहले हमारे घरेलू मामलों को हम देखेंगे। भारतीय सेना द्वारा जूनागढ़ रियासत को घेरने की ख़बर सुनकर वहाँ के नवाब महावत खान पाकिस्तान रवाना हो गए। पाकिस्तान जब वह गए तब वह अपनी 2 बेगम को भारत ही भूल गए थे जबकि उनके कुत्तो को वे अपने साथ ले गए थे और पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। पाकिस्तान में शामिल होने के लिए जूनागढ़ के वेरावल में बंदरगाह बनाने और 25 हज़ार सैनिकों का ठिकाना बनाने की तैयारी थी। जानकारी मिलते ही पटेल ने जूनागढ़ की सीमाओं पर फ़ौज की नाकेबंदी का आदेश दे दिया। नवाब विशेष विमान से पहुँचे इसके बाद वे बीवी और बच्चे को लिए बिना ही कराची रवाना हो गए। इसके बाद शाहनवाज़ भुट्टो नें 7 नवंबर 1947 को जूनागढ़ को भारत में विलय करने का फ़ैसला लिया तो

दोस्तो एक तो जनता का असन्तोष व दूसरा भारत सरकार के ग्रह मंत्रालय की सख्ती को। देखते हुए जूनागढ़ को भारत में विलय होना ही पढ़ा

इसके बाद पटेल ने जूनागढ़ में जनमत संग्रह करवाया जिसमे 90 फीसदी से ज़्यादा जनता ने भारत में विलय को स्वीकार किया। इस तरह से 20 फरवरी, 1948 को जूनागढ़ देश का हिस्सा बन गया।

हैदराबाद पर ऑपरेशन पोलो।

हैदराबाद 82, 698 वर्ग मील में फैला था हैदराबाद देश की सबसे बड़ी रियासत था।

इसकी आबादी का 80% हिंदू और 20% मुसलमान थे। हैदराबाद के निज़ाम, हैदराबाद के भारत में विलय के किस क़दर ख़िलाफ थे, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिन्ना को संदेश भेजकर ये जानने की कोशिश की थी कि क्या वह भारत के ख़िलाफ़ लड़ाई में हैदराबाद का समर्थन करेंगे?

इसके बाद कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा ‘बियॉंन्ड द लाइंस’ में लिखा है कि जिन्ना ने इसका-इसका जवाब देते हुए कहा था कि वह मुट्ठी भर आभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए पाकिस्तान के अस्तित्व को ख़तरे में नहीं डालना चाहेंगे।

भारतीय सेना के पूर्व उपसेनाध्यक्ष लेफ़्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा अपनी आत्मकथा स्ट्रेट फ्रॉम द हार्ट में लिखते हैं, “मैं जनरल करियप्पा के साथ कश्मीर में था कि उन्हें संदेश मिला कि सरदार पटेल उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं। दिल्ली पहुँचने पर हम पालम हवाई अड्डे से सीधे पटेल के घर गए. मैं बरामदे में रहा जबकि करियप्पा उनसे मिलने अंदर गए और पाँच मिनट में बाहर आ गए. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि सरदार ने उनसे सीधा सवाल पूछा जिसका उन्होंने एक शब्द में जवाब दिया।”

सरदार पटेल व सेना प्रमुख

सरदार ने उनसे पूछा कि अगर हैदराबाद के मसले पर पाकिस्तान की तरफ़ से कोई सैनिक प्रतिक्रिया आती है तो क्या वह बिना किसी अतिरिक्त मदद के उन हालात से निपट पाएंगे?

करियप्पा ने इसका एक शब्द का जवाब दिया ‘हाँ’ और इसके बाद बैठक ख़त्म हो गई.

इसके बाद सरदार पटेल ने हैदराबाद के ख़िलाफ़ सैनिक कार्यवाही को अंतिम रूप दिया। भारत के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल रॉबर्ट बूचर इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे। उनका कहना था कि पाकिस्तान की सेना इसके जवाब में अहमदाबाद या बंबई पर बम गिरा सकती है।

नेहरू शांतिपूर्ण तरीके से फ़ैसला चाहते थे जबकि सरदार पटेल जान चुके थे कि हैदराबाद बातों से नहीं मानेगा कहा जाता है कि उन्होंने बिना नेहरू से पूछे ही हैदराबाद में सेना भेज दी थी

निज़ाम ने गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी से व्यक्तिगत अनुरोध किया कि वे ऐसा न करें।

सरदार पटेल नेहरू के इस आकलन से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि उस समय का हैदराबाद ‘भारत के पेट में कैंसर के समान था,’ जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था।

पटेल को इस बात का अंदाज़ा था कि हैदराबाद पूरी तरह से पाकिस्तान के कहने में था। यहाँ तक कि पाकिस्तान पुर्तगाल के साथ हैदराबाद का समझौता कराने की फ़िराक़ में था जिसके तहत हैदराबाद गोवा में बंदरगाह बनवाएगा और ज़रूरत पड़ने पर वह उसका इस्तेमाल कर सकेगा।

राजा जी और नेहरू की बैठक हुई और दोनों ने कार्यवाही रोकने का फ़ैसला किया। निज़ाम के पत्र का जवाब देने के लिए रक्षा सचिव एचएम पटेल और वीपी मेनन की बैठक बुलाई गई.

दुर्गा दास अपनी पुस्तक इंडिया फ़्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ़्टर में लिखते हैं, “जब पत्र के उत्तर का मसौदा तैयार हुआ तभी पटेल ने घोषणा की कि भारतीय सेना हैदराबाद में घुस चुकी है और इसे रोकने के लिए अब कुछ नहीं किया जा सकता।” और इसी प्रकार 13 सितंबर को भारतीय सेना हैदराबाद में जा घुसी और 5 दिन में अपना कब्ज़ा कर लिया था और इसी तरह 13 सितंबर, 1948 को भारत में पहली बार इमरजेंसी जैसी स्थिति बनी। ये 1975 की इंदिरा इमरजेंसी से अलग थी। इस दिन भारत के 36 हज़ार सैनिकों ने हैदराबाद में डेरा डाला। 13 से लेकर 17 सितम्बर तक भयानक क़त्ल-ए-आम हुआ। कहा गया कि हजारों लोगों को लाइन में खड़ाकर गोली मार दी गई. आर्मी ने इसे ‘ऑपरेशन पोलो’ कहा था। कुछ हिस्से में ये ‘ऑपरेशन कैटरपिलर’ भी कहा गया। सरदार पटेल ने दुनिया को बताया कि ये ‘पुलिस एक्शन’ था।

तो कुछ इस प्रकार भारतीय रियासतो का एकीकरण हुआ था।

धन्यवाद-          गोविंद पाटीदार

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