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‘कयामत से कयामत तक’- वो फिल्म जो लोगों को वापस सिनेमाघर खींच लाई

सन् 1988 में रिलीज़ हुई ‘कयामत से कयामत तक’ समकालीन हिन्दी सिनेमा में प्रस्थान बिंदु को प्रकट करती है। उस समय की मुख्यधारा सिनेमा हिंसात्मक फिल्मों एवं कोलाहल धुनों के साए में जी रहा था। माहौल कुछ यूं था जिसमें हिन्दी फिल्मों की सामान्य दुनिया अस्त-व्यस्त की स्थिति में आ गई और सिनेमाघरों से दर्शकों का रिश्ता छूट सा गया था। फिल्मों की कथावस्तु व प्रस्तुति ने दर्शकों को सिनेमाघर से विमुख सा कर दिया था। हल्की-फुल्की सामान्य पारिवारिक कहानियों की निर्माता कंपनी ‘नासिर हुसैन फिल्मस’ की रफ्तार ‘ज़माने को दिखाना’ एवं ‘मंजिल मंजिल’ जैसी फिल्मों के उदासीन दौर से थमी हुई थी ।

वक्त की नज़ाकत को समझते हुए पुनरुत्थान की पहल हुई, जिसमें युवा कंधों को ज़िम्मा दिया गया। वीडियो कैसेट चलन एक संस्कृति का रूप अख्तियार कर चुका था और सिनेमाघरों के लिए मुश्किलें कम नहीं रही थी। दर्शकों को क्वॉलिटी फिल्मों के ज़रिए सिनेमाघरों की ओर फिर से आकर्षित करने की सख्त ज़रूरत थी, सिनेमा और उसका सौंदर्य इसी तरह आगे बढ़ सकता था। समय व परिस्थिति को देखते हुए नासिर साहब ने एक ‘प्रेम कहानी’ की आइडिया पर काम किया।

इस क्रम में मंसूर खान की ‘कयामत से कयामत तक’ जीवन रक्षक नुस्खा साबित हुई। फिल्म ने बैनर को मझधार से निकालकर जीवनदान दिया। फिज़ा कुछ यूं बनी मानो रूमानियत परदे पर फिर से वापसी करेगी, मंजर बदल जाएगा। सिनेमा का चलन यही हुआ क्योंकि हिन्दी सिनेमा में फिल्म प्रस्थान बिंदु बनकर आई। मंजर बदल गया। कयामत ने सिनेमा के रास्ते रचने की दिशा में सराहनीय काम किया था।

नासिर के युवा कंधे मंसूर खान उस समय फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ की कहानी में व्यस्त थे। मंसूर को पिता की कहानी कयामत का थीम पसंद आया, उसी पल नासिर साहब ने परियोजना की बागडोर युवा मंसूर के ज़िम्मे कर दी। परिवार के युवा सदस्य मंसूर, नुजहत एवं आमिर के सहयोग से पूरी पटकथा का प्रारूप बना। उपयुक्त कलाकारों के खोज अभियान में आमिर खान का चयन स्वाभाविक था।

केतन मेहता सरीखे फिल्मकारों से मिले ऑफबीट ब्रेक से आमिर संतुष्ट थे लेकिन पॉप्यूलर हिंदी फिल्मों में अभिनय पारी शुरू करने का नया लक्ष्य लेकर भी आमिर चल रहे थे। रूमानी कहानियों से फिल्मों में दाखिल होने वाले अभिनेताओं की परंपरा से शायद प्रभावित थे। आमिर तो खैर परिवार से थे लेकिन निर्माता अदाकारा जूही चावला पर आकर कैसे टिके ?

फिल्मों में आने से पहले जूही मंसूर खान की एड एजेंसी द्वारा बनाए एक विज्ञापन में नज़र आई थीं। जूही चावला को लेकर मंसूर धारावाहिक बनाने की योजना में भी थे। नए अदाकारों के साथ नए तकनीशियनों का अच्छा सकारात्मक संचयन बन पड़ा था। इस टीम की अगुवाई छायाकार किरण देवहंस के ज़िम्मे रही जबकि संपादन का कार्यभार ज़फर सुल्तान व दिलीप कोताल्गी ने संभाला। कला पक्ष शिबु देख रहे थे। फिल्म में बालक आमिर का किरदार आज के अभिनेता इमरान खान ने निभाया।

पिता की फिल्म से अनुभव बटोरने से पहले युवा मंसूर एक लघु फिल्म पर काम कर चुके थे। तीसरी मंजिल के समय से ही राहुल देव बर्मन ‘नासिर हुसैन फिल्मस’ की पहचान बने हुए थे, लेकिन अस्सी दशक के मध्य में टीम में बिखराव हुआ। दरअसल, बर्मन साहब जैसे सीनियर के साथ काम करने में मंसूर ने थोड़ा असहज महसूस किया था। युवा संगीतकार जोड़ी आनंद मिलिंद को साईन किया गया। हालांकि गीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी बरकरार रखे गए। यह बात और रही कि मज़रूह साहब राहुल देव बर्मन से उम्र में काफी सीनियर थे।

आनंद-मिलिंद की जोड़ी, बैनर की उम्मीदों पर खरी उतरी। सुपरिचित संगीतकार चित्रगुप्त की योग्य संतान जोड़ी ने कंपनी की परंपरा को निराश नहीं किया। ज़ुबान पर मिलने वाले कयामत के पॉप्यूलर गीतों की सफलता के लिए इन दोनों को याद किया जा सकता है। गीतों को अलका याग्निक एवं उदित नारायण ने आवाज़ दी। फिल्म ने संघर्षरत अलका याग्निक के गुमनामी भरे दिन  दूर किए।

कयामत ने आमिर-उदित में हिन्दी सिनेमा की अभिनेता-गायक जोड़ी को बनाया था। उस युग में सलमान-बाला सुब्रमण्यम की जोड़ी भी याद आती है। संगीत के मोर्चे पर फिल्म की सफलता ने बेहतरीन बोल वाले तरानों का दौर लौटाकर भविष्य को आशा दी थी।

मंसूर को पापा द्वारा लिखी कहानी का प्रस्थान पसंद था, लेकिन रोमियो जूलियट कथा के नवीन रूप एवं हटधर्मी परिवारों से आए प्रेमियों की कहानियों में अपनी ओर से भी जोड़ना चाहते थे। कहानी का सुखात्मक समापन जो कि शायद सरल व अविश्वसनीय होता, तब्दील करना चाहते थे। परिवारों की दुश्मनी इस कदर गंभीर थी कि इसमें प्रेमियों की मौत को बेमानी होना दिखाया गया। हालांकि मंसूर इस बात को लेकर संवेदनशील रहे कि हिंसा एवं खुदकुशी के दृश्य चिर-परिचित शैली से अलग होने चाहिए ।

कथा में युवाओं की मौत को किस्मत का फेर बताया गया। कयामत से कयामत तक ने तत्कालीन हिन्दी सिनेमा की धारा को नई दिशा दी। सिनेमास्कोप में बनी यह फिल्म आगामी फिलवक्त वर्षों में रिलीज़ हिट फिल्मों की जमात से एकदम अलग थी। कह सकते हैं कि सामान्य से एक तरह का प्रस्थान बिंदु थी। सिनेमाघरों से विमुख हो चुके दर्शकों को फिर से उस ओर लाने का शुक्रिया इन फिल्मों को दिया जाता है।

कयामत में मनोरंजन और संवेदना के यथोचित संगम से सिनेमा को नई संभावना मिली थी। फिल्म की अपील देखने वालों को सिनेमाघर खींच लाई। अक्सर देखा गया कि पथ प्रदर्शक फिल्में स्थापित चलन को तोड़ा करती हैं।

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