Site icon Youth Ki Awaaz

बिहार का सुशासन तंत्र बदहाल, दिव्यांगजन अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सरकारी नौकरशाही से पीड़ित हैं

बिहार का सुशासन तंत्र बदहाल, दिव्यांगजन अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सरकारी नौकरशाही से पीड़ित हैं

दिव्यांगता को यदि हम सरल शब्दों में कहें, तो शारीरिक या मानसिक रूप से किसी ऐसी त्रुटि का होना जिससे कुछ कार्यों का करना हमारे लिए मुश्किल या असंभव हो जाए। एक व्यक्ति बचपन से ही विकृत अंग के साथ जन्म ले सकता है या जीवन में किसी दुर्घटना के कारण विकलांग हो सकता है।

गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में दिव्यांगों की संख्या 2 .67 करोड़ है यानी देश की 2.21 प्रतिशत आबादी विकलांग है। इस विषय पर हमारे समाज में अज्ञानता होने से दिव्यांगों को कई प्रकार के दुर्व्यवहार, भेदभाव, तिरस्कार का सामना करना पड़ता है अथवा समाज में उनकी स्थिति अक्सर दयनीय पाई जाती है। दुर्भाग्यवश, हमारी सरकार भी इस समस्या का निराकरण करने के लिए उचित कदम नहीं उठाती है।

हमारी वर्तमान सरकार अपने ही वादों का समानता से अनुसरण करने में असमर्थ पाई जाती है। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 में देशभर के विकलांगजनों को सरकारी नौकरियां प्रदान करने हेतु 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान नियोजित किया गया था, जिससे भिन्न बिहार सरकार ने मात्र 4 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान किया था। इसका मतलब यह है कि अगर 100 विकलांगजन किसी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं, तो मात्र 4 व्यक्तियों का ही चयन होगा।

क्या कछुए की चाल से रहे, ये राज्य-तंत्र देश के युवाओं को रोज़गार देने में कभी सक्षम हो पाएंगे?

खेल श्रेणी से सरकारी नौकरियों में दाखिल होने के लिए फॉर्म आखिर बार 2014 में निकला था, जबकि चयनित लोगों का दाखिला 2019 में हुआ। इससे सम्बन्धित नवीनतम फॉर्म, राज्य चुनाव से दो महीने पहले, सितम्बर 2020 को निकले जिसके बारे में और कोई सूचना अभी तक नहीं दी गई है। सरकारों की ये धीमी चाल एक गहन चिंता का विषय है और आम जन के मन में कई सवाल खड़े करती है। क्या रोज़गार की तलाश में एक व्यक्ति अपने चयन का परिणाम जानने के लिए 5 वर्षो बाद आगामी चुनावों का इंतज़ार करे जब इनकी गहरी नींद टूटेगी? सरकार के कथन एवं उनके कार्य में असमानता का एक और नमूना मैं आपको दे देता हूं।

बिहार सरकार के अनुसार किसी भी प्राधिकृत अंतरराष्ट्रीय खेल में भाग लेने पर सभी कार्यक्षम एवं दिव्यांगजनों को 2 लाख रुपये इनाम के तौर पर दिए जाएंगे। मेरे एक मित्र शरद कुमार जिन्होंने 2017 के रियो पैरालम्पिक खेलों में हिस्सा लिया था, उन्हें भी 2 लाख रुपये दिए गए, लेकिन जब मैंने और एक पैरा खिलाड़ी अर्चना कुमारी ने एशियाई पैरा गेम्स खेलने के बाद पुरस्कार मूल्य हेतु आवेदन किया, तो हमें मात्र 50 हज़ार रुपये ही दिए गए।

इस बात से हैरान होकर जब मैंने कारण जानने के लिए उन्हें पत्र लिखा, तो उन्होंने कोई भी सफाई देने से इन्कार कर दिया और बेधडक सुर में कहा ” हमारे पास जो है यही है, इससे ज़्यादा हम आपको कुछ नहीं दे सकते “। आप बताइए क्या एशिया पैरा गेम्स अंतरराष्ट्रीय खेलों की सूची में नहीं आते?

इसके बाद आगे मैंने बिहार सरकार से आरटीआई के तहत सवाल किया कि उन्होंने 2016 से वर्तमान काल तक खेल कला एवं संस्कृति विभाग पर कितने पैसे खर्च किए, तो मुझे वहां से उसका भी कोई जवाब नहीं दिया गया। मैंने माननीय मुख्यमंत्री व कई मंत्रालयों को भी इसके सम्बन्ध में पत्र लिखे, लेकिन मुझे कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला। आज इस बात को एक साल से अधिक बीत चुके हैं, मैंने यह पत्र फरवरी 2020 में लिखा था, लेकिन उनके ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। अगर मैं आवाज़ उठाता हूं, तो सरकारी कर्मचारियों के निशाने पर आ जाता हूं। लोग कहते हैं कि “अरे ! ये लड़का तो बहुत बोलता है “। क्या किया जाए ऐसी सरकार तंत्र का जहां गलत पर आवाज़ उठाने तक की अनुमति ना हो।

दिव्यांगजनों के अधिकारों की आवाज़ को मेनस्ट्रीम मीडिया भी नज़रअंदाज़ कर देता है 

इतने वर्षों से सरकार की लापरवाही और गैरज़िम्मेदारी के बावजूद हमारी मेनस्ट्रीम मीडिया भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठी रहती है। वो इसे ऐसे नज़रअंदाज़ कर देती है जैसे यह कोई महत्वपूर्ण मुद्दा ही ना हो। इस मुद्दे पर आखिरी बार न्यूज़ 18 चैनल ने चर्चा की थी और मेरा साक्षात्कार लिया था, जहां मैंने पैरा खेल और दिव्यांगजनों के अधिकार पर अपने विचार प्रस्तुत किए थे। आपको जानकर हैरानी होगी, उस साक्षात्कार के बाद, खेल मंत्री प्रमोद कुमार ने नेशनल टीवी पर बयान दिया कि यह कोई राजनीतिक पार्टी के प्रभाव में आकर, यह सब बोल रहा है और इसके पीछे इसका कोई निजी स्वार्थ है।

वो यहीं नहीं रुके मेरी समानता की इच्छा पर उन्होंने एक बेहद भद्दी और अपमानजनक टिप्पणी, सभी विकलांगजनों पर तंज कसते हुए कही कि हमारे हाथ की पांचों उंगलिया बराबर नहीं होती, क्या ऐसी विकृत मानसिकता वाले नेता से कभी परिवर्तन और विकास की उम्मीद की जा सकती है?

बिहार की सुशासन की सरकार नौकरशाही की भेंट चढ़ चुकी है 

अभी हाल ही में मुझे दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए रोल मॉडल ऑफ स्टेट पुरस्कार से नवाज़ा गया, जहां मेरी मुलाकात कमिश्नर ऑफ पर्सन विथ डिसेबिलिटी डॉ. शिवजीत कुमार से हुई जिन्होंने मुझे बताया की बिहार में लगभग 50 लाख विकलांग हैं, जबकि सरकार सिर्फ 9 लाख लोगो को ही पेंशन देती है। हैरत की बात है कि  इलेक्शन कमीशन ऑफ बिहार ने मुझे अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया था और मेरी 2015 से अगस्त 2020 की पेंशन अभी तक रुकी हुई है ।

जरा सोचिए बाकियों का क्या हाल होगा? इतना ही नहीं, दिव्यांगों की पेंशन की रकम दिल्ली में 3000, हरियाणा  और राजस्थान में 2500 हज़ार है जबकि बिहार में मात्र 400 रुपये है।

मेरे सवाल करने पर अधिकारी मुझसे बोलते हैं कि मुझे पहले बीडीओ को पत्र देना पड़ेगा और फिर बीडीओ उसे ज़िला को देंगे फिर वो पटना आएगा और पटना में उसे डिसेबिलिटी डायरेक्टर द्वारा सैंक्शन किया जाएगा तब जाकर वो राशि मुझे मिलेगी। मैं एक पढ़ा-लिखा आदमी हूं फिर भी मुझे इसे समझने में दिक्कत हुई, जो लोग अनपढ़ हैं, मैं उनकी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकता। इस प्रक्रिया से, तो एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर का चक्कर काटते -काटते उनका जीवन ही बीत जाएगा।

 

दिव्यांगजनों के संरक्षण एक्ट में बदलाव उनके साथ कुठराघात करना है

इस विषय पर चर्चा करने व दिव्यांगजनों के उत्थान के लिए उचित कदम उठाने के विपरीत जुलाई 2020 में मोदी सरकार ने डिसेबिलिटीज राइट्स में बदलाव करने का प्रस्ताव दिया। इस बदलाव के बाद अगर कोई व्यक्ति किसी विकलांग के साथ जानबूझकर दुर्व्यवहार करता है, तो उसे पहले की तरह अपराध नहीं माना जाएगा। इसके परिणामस्वरूप इसके बाद दिव्यांगजनों के लिए सार्वजनिक जगह और भी असुरक्षित हो जाएंगे।

अंत में मैं बस यही कहना चाहूंगा कि समाज को आगे बढ़ाने में हमें एक-दूसरे की सहायता की ज़रूरत होती है, कोई समाज मात्र कुछ लोगों के योगदान से आगे नहीं बढ़ सकता। आप ही बताइए क्या आप उस मुल्क को विकसित कह सकते हैं, जहां आपके बगल में शारीरिक बाधा से ग्रस्त कोई व्यक्ति फटे हुए कपड़ो में भीख मांग रहा हो?

लेकिन, यही हमारे देश की सच्चाई है, देश में अधिकतर विकलांग व्यक्ति समाज से बहिष्कृत होकर सार्वजनिक स्थलों पर भीख मांगते पाए जाते हैं। इस लेख में मैंने सिर्फ अपने साथ घटित कुछ घटनाओं का उल्लेख आपको जागरूक करने के लिए किया है।

लेकिन, हमारे देश की सत्तारूढ़ सरकार के “सबका साथ, सबका विकास” के नारे में विकलांगजनों की अनदेखी या उन्हें सबके साथ विकास के पैमानों पर नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि एक मुल्क जहां आपके नज़दीक, शारीरिक बाधा से ग्रस्त एक व्यक्ति फटे-पुराने कपड़ो में भीख मांगता दिखे, तो उस मुल्क को हम कभी विकसित नहीं कह सकते। यदि सही समय पर पर्याप्त संसाधन मिल जाए, तो कोई भी विकलांग व्यक्ति अपनी शारीरिक बाधा को मात देकर ऊंची से ऊंची  ऊंचाइयों को छू सकता है।

Exit mobile version