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इस्लामोफोबिया फैलाने में बॉलीवुड खेल रहा है सबसे बड़ा दांव

फिल्म, जो मनोरंजन के साथ-साथ समाज की सच्चाई और बहुत से चरित्रों को दर्शाने के लिए ‌‌‌‌‌‌बनाई जाती हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि उनमें कितनी सच्चाई है?

पिछले कई सालों में मुसलमानों और उनसे जुड़े कई विषयों को पर्दे पर उतारा जा चुका है, जिसमें कहीं न कहीं इस्लामोफोबिया नज़र आता है या यूं कहें कि मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने का एक प्रोपगैंडा सा चल पड़ा है। हम कह सकते हैं कि बॉलीवुड भी बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे नहीं हटा है।

ऐसे कई डायरेक्टरों और एक्टर्स को देखा जा सकता है, जो खुलेआम मुसलमानों के प्रति अपनी गलत भावनाएं प्रकट करते हैं, तो वहीं ऐसे भी लोग हैं जो बॉलीवुड के ऐसे नेगेटिव लोगों का विरोध करने से पीछे नहीं हटते हैं।

कई सालों से फिल्में इस्लामोफोबिया फैला रहा है

पिछले कुछ सालों की बात की जाए तो, ऐसी बहुत सी फिल्में पर्दे पर आई जिसमें खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ या तो गलतफहमी फैलाई गई है या उनके तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है।

ऐसी कई एपिक फिल्में भी देखी गई हैं, जिसमें मुस्लिम शासकों की क्रूरता की हद को दिखाया गया है। उन्हें अपने राज्य के प्रति एक जानवर की तरह दिखाया गया है। फिल्म पद्मावत इस बात का उदाहरण है, जहां खिलजी की भूमिका अदा करने वाले रणवीर सिंह, रानी पद्मावती को हासिल करने के लिए सारी हदें पार कर जाता है।

आज फिल्मों के ज़रिए एक माहौल बनाया जा रहा है, जिसमें यह दिखाया जा सके कि किस तरह मुस्लिम शासकों ने भारत पर ज़ुल्म किया और दबाव डाला जिससे उन्होंने अपनी जड़ों को मज़बूत किया।

महिलाओं के प्रति कट्टर दिखाया है

इसी तरह हम अगली फिल्म की बात करें तो, एक फिल्म दिखाई जाती है “सिक्रेट सुपर स्टार”। इस फिल्म में एक मुस्लिम फैमिली को दिखाया गया है कि किस तरह एक मुस्लिम पिता अपने परिवार के साथ व्यवहार करता है। यकीन मानिए यह सिर्फ और सिर्फ एक प्रौपगैंडा है, जिसके तहत एक आम मुसलमान को भी कट्टर और ज़ुल्म से भरा दिखाया जा रहा है।

इस फिल्म में एक पति के द्वारा अपनी बीवी पर मारपीट और अपनी बेटी की ख्वाहिशों को दबाने जैसी चीजों से कहानी में मसाला परोसा गया है, जिसमें यह मैसेज दिया गया है कि मुसलमानों में पहले भी औरत को दबाया जाता था और आज भी महिलाओं की स्थिति जस की तस है। यानी कुल मिलाकर आज भी मुसलमान दरिंदा ही है।

इसी तरह ऐसी बहुत सी फिल्में देखी जा सकती हैं, जैसे हसीना पारकर, लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का, बाजीराव मस्तानी, सुल्तान, गैंग ऑफ वासेपुर, रांझणा, केसरी , कुर्बान , बाटला हाउस आदि। जिसमें कहीं ना कहीं यह मैसेज देने की कोशिश की गई है कि मुसलमानों को ज़ुल्म करने और दहशत फैलाने से ज़्यादा कुछ नहीं समझना चाहिए।

क्योंकि फिल्म सबसे आसान और सही रास्ता है अपनी बात पहुंचाने का और इससे हम बड़ी आसानी से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का किसी भी विशेष वर्ग के प्रति अच्छा या बुरा नज़रिया बना सकते हैं, जो कि सरासर गलत है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों इस तरह से माहौल बनाया जा रहा है?

तो जवाब यही है कि यह एक बहुत बड़ी सोची समझी रणनीति है, जिसमें मुसलमानों को दरकिनार किया जा रहा है, फिर चाहे उसमें झूठ परोसा जाए या सच को दबा दिया जाए।

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