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जनादेश: 2024 की भाजपा-विरोधी पटकथा और निजी महत्त्वाकांक्षाओं का सियासी रोड़ा

जनादेश: 2024 की भाजपा-विरोधी पटकथा और निजी महत्त्वाकांक्षाओं का सियासी रोड़ा

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए और परिणाम भी आ गया। कई तरह के विश्लेषण इस चुनाव परिणाम से निकाले जा सकते हैं। वैसे, तो पूरे देश की नज़रें बंगाल चुनाव पर टिकी थीं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक होने के नाते पांचों राज्यों के परिणाम पर विश्लेषण करना ज़रूरी है। वैसे, इस चुनाव में जीत किसी भी पार्टी की हुई हो, एक पक्ष की करारी हार हुई है और वह है “एग्जिट पोल”! किसी भी राज्य में एग्जिट पोल के विश्लेषण पूरी तरह खरे नहीं उतरे।

पश्चिम बंगाल 

लगातार इस बात का प्रचार किया जा रहा था कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को इस चुनाव में बढ़ावा मिलने वाला है, लेकिन चुनावों के परिणाम ने दिखा दिया कि अस्मिता की लड़ाई को बंगाल में ज़्यादा महत्व मिला। भारतीय जनता पार्टी, जो पूरी तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीतना चाह रही थी, वह बहुमत से कोसों दूर पिछड़ गई। वैसे, तो पिछले विधानसभा चुनाव के आधार पर कहा जा सकता है कि बीजेपी ने लंबी छलांग लगाई है, लेकिन यह उसकी हार है। चूंकि वह बहुमत का दावा पूरे दमखम के साथ कर रही थी और दिल्ली का मीडिया भी उसके साथ था।

ऐसा कहते हैं आज़ाद हिंदुस्तान के विधानसभा का यह ऐसा एक अजूबा चुनाव था, जिसको जबरदस्त प्रतिष्ठा का सवाल केंद्र सरकार द्वारा बना दिया गया था। जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के गृहराज्य पश्चिम बंगाल को जीतना संघ परिवार के लिए अपनी आन-बान का प्रश्न बन चुका था, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक फाइटर की तरह आगे आईं और अपनी लोकप्रियता के बल पर उन्होंने अपनी पार्टी को जीत दिलाई।

भवानीपुर विधानसभा सीट को छोड़कर नंदीग्राम जाना उनका एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है, जिसके कारण टीएमसी कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ जबकि वह उत्साह उस घटना के पहले, जब टीएमसी के बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो रहे थे, घट चुका था। ममता बनर्जी भले खुद का विधानसभा चुनाव शुभेंदु अधिकारी से हार गई हों, लेकिन उनकी पार्टी जहां-जहां जीती वह ममता बनर्जी के कारण ही संभव हुआ। ममता की जीत में अल्पसंख्यक वोटों का पूरी तरह उनके साथ आ जाना एक प्रमुख कारण, तो था ही, लेकिन हम एक और कारण से अपनी नज़र नहीं हटा सकते हैं और वह है महिलाओं का ममता के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण।

पुरुष प्रधान समाज में घर की महिलाओं का स्वतंत्रतापूर्वक अपने मताधिकार का प्रयोग करना हाल के वर्षों में लगातार देखा जा रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत में भी कहते हैं कि उसका प्रमुख कारण नीतीश कुमार के पक्ष में महिलाओं का आना रहा और इस बार ममता बनर्जी के पक्ष में महिलाओं के आने से टीएमसी की जीत में प्रमुख भूमिका निभाई।

ममता ने इस लड़ाई को बंगाली बनाम बाहरी बना दिया और उसे अपने पक्ष में जबरदस्त रूप से भुनाया। बीजेपी का किसी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करना उनकी पार्टी की सबसे बड़ी भूल थी। वह अपने राष्ट्रीय नेता को ममता के समांतर खड़ा कर चुनाव जीतना चाहती थी। उनके पास नरेंद्र मोदी के रूप में तुरुप का इक्का था, लेकिन अस्मिता की लड़ाई के सामने वह भी धराशायी हो गए हैं। बंगाल का समाज भद्रलोक के रूप में जाना जाता है और प्रधानमंत्री का ममता बनर्जी पर व्यक्तिगत हमला करना जैसे “दीदी ओ दीदी” बिल्कुल पसंद नहीं किया गया। सच तो यह है कि बंगाल का चुनाव भारतीय जनता पार्टी संगठनविहीन हो कर लड़ रही थी। उसके पास अपना वोट प्रतिशत 15 से 20 प्रतिशत था। बाकी के वोटर उसके ना होकर कम्युनिस्ट पार्टी के थे, जो ममता बनर्जी को किसी भी कीमत पर हराना चाहते थे और वह भारतीय जनता पार्टी को इसलिए वोट कर रहे थे।

कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन ने भले चुनाव में सफलता हासिल नहीं की, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का कुछ वोट बैंक पुनः उनकी पार्टी में आना और कांग्रेस का जानबूझकर चुनाव में उदासीन रहना ताकि बीजेपी विरोधी वोट का विभाजन ना हो, यह भी टीएमसी की जीत में प्रमुख बना।

कांग्रेस के उम्मीदवार व्यक्तिगत बातचीत में इस बात को स्वीकार भी करते थे कि आलाकमान से पैसे से लेकर नैतिक समर्थन सहित किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। लोकसभा चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने प्रशांत किशोर के सहयोग से पार्टी के उन वर्गों से छुटकारा लेना चाहा जो ज़मीन पर बिल्कुल भी काम नहीं कर रहे थे और पार्टी की इमेज को भी क्षतिग्रस्त कर रहे थे। साहस के साथ ममता बनर्जी ने इन्हें टिकट ना देने का मन बनाया और उनकी पार्टी से बीजेपी की ओर जाने का जो सिलसिला चल पड़ा उसका एक कारण यह भी था जिसका फायदा ममता बनर्जी को हुआ।

रूप श्री, कल्याण श्री आदि योजनाएं पिछले लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने सफलतापूर्वक लागू कीं, इसका फायदा उन्हें मिला। गरीबों के लिए सस्ता भोजन मुहैया कराने की स्कीम हो या कोविड-19 में जनता को मदद देने की बात हो, ममता बनर्जी इसमें सफल रहीं। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी राज्य की स्थानीय इकाई पर भरोसा ना कर बाहर के लोगों को बुला लाई तथा उनके बताए गए नियमों को लागू करती रही, दलबदलुओं को टिकट दिया गया जिससे कार्यकर्ताओं में काफी रोष दिखा। हाल के ही वर्षों में यह लगातार देखा गया है कि लोकसभा चुनाव में जिस राज्य में भारतीय जनता पार्टी अच्छे मत प्रतिशत लाकर सफलता अर्जित करती है। उसी राज्य में विधानसभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत काफी घट जाता है। पश्चिम बंगाल के परिणाम आने के पहले इसका अपवाद बताया जा रहा था, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा ना हो सका और पार्टी के मत प्रतिशत में गिरावट आई। वह नरेंद्र मोदी के रथ पर सवार होकर चुनाव जीतना चाहती थी, लेकिन ममता बनर्जी ने अस्मिता की राजनीति को आगे बढ़ा कर उनके हथियार को निस्तेज कर दिया।

असम 

चुनाव परिणाम आने के पहले ऐसा माना जा रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी कांग्रेस के द्वारा बनाया गया महाजोत अर्थात महागठबंधन कड़ी टक्कर देगा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने आसानी से बहुमत के आंकड़े को छू लिया। आजादी के बाद से ही शरणार्थी समस्या के कारण वहां पर ध्रुवीकरण की राजनीति होती रही है, चाहे वह अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण की ही क्यों ना हो। इस चुनाव में भी ध्रुवीकरण का ऐसा माहौल बनाया गया जिससे सत्तारूढ़ दल को फायदा मिला।

कांग्रेस के महागठबंधन में एआइयूडीएफ की पार्टी शामिल थी, जिसके नेता इत्र व्यापारी बदरुद्दीन अजमल हैं। सत्तारूढ़ बीजेपी के द्वारा पूरे राज्य में कांग्रेस पर यह आरोप लगाया गया कि वह तथाकथित देश तोड़ने वालों के साथ गठबंधन कर रही है। कांग्रेस को मुस्लिम बहुल क्षेत्र में उसका फायदा, तो मिला लेकिन हिंदू बहुल क्षेत्र में उसके पास तरुण गोगोई की तरह ऐसा कोई नेता ना था, जो बीजेपी के आरोप को निस्तेज करता।

सत्तारूढ़ बीजेपी की जीत के सूत्रधार हेमंत बिस्‍वा सरमा द्वारा खुलेआम कहा गया कि “हमें मियां का वोट नहीं चाहिए”। यह कहकर उन्होंने अपने पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण का सफल प्रयोग किया। कहते हैं कई वर्षों बाद कांग्रेस के नेता जमीन पर सर झुका कर छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में मेहनत करते रहे, लेकिन बीजेपी द्वारा लगाए गए आरोप के खिलाफ वह जनमत तैयार नहीं कर सके। उनके सामने सांप और  छछूंदर वाली स्थिति थी, क्योंकि अगर वह बदरुद्दीन अजमल के साथ समझौता नहीं करते, तो मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उनकी पराजय सुनिश्चित है, क्योंकि विभिन्न कारणों से मुसलमान कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे।

बीजेपी के जीतने का दूसरा कारण यह भी था कि पांच साल शासन में रहने के बावजूद उनके खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर बहुत प्रबल नहीं था। सीएए एनआरसी के विरोध को, वह  चुनाव आते-आते वह काफी कम कर चुके थे। कोविड-19 के समय असम की सरकार ने असम के लोगों को काफी मदद पहुंचाई जिसका फायदा उन्हें मिला। इसके अलावा असम की महिलाओं ने सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व में चली इस सरकार को ठीक उसी प्रकार वोट किया जैसे बंगाल में महिलाओं द्वारा ममता को समर्थन दिया गया था। इन सबके बावजूद कांग्रेस गठबंधन को विपक्षी दल के रूप में एक अच्छा बहुमत मिल चुका है जिसके बलबूते वह सरकार के खिलाफ कड़ी चुनौती पेश कर सके। वैसे, अब यह देखने वाली बात होगी कि बीजेपी के रणनीतिक सूत्रधार हेमंत बि‍स्‍वा सरमा, जो पांच साल पहले कांग्रेस में थे और मुख्यमंत्री बनने के सपने के साथ वह बीजेपी में शामिल हुए, इस बार उन्हें बीजेपी सर्वानंद सोनोवाल की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाती है या नहीं।

केरल 

वर्षों बाद केरल ने उस रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया जिसमें हर पांच साल में वह सरकार को बदल देती थी। पिनराई विजयन के नेतृत्व में उन्होंने कांग्रेस को 45 सीट से भी कम पर सीमित कर दिया। राहुल गांधी की मेहनत काम नहीं आई। कांग्रेस के लिए इससे भी बुरी खबर यह है कि ऐसा माना जा रहा है कि इन चुनावों में पराजय के बाद कांग्रेस में जबरदस्त भगदड़ मचने वाली है और कांग्रेस के कई नेता बीजेपी ज्वाइन करने वाले हैं।

कांग्रेस अपने नेताओं को यह विश्वास दिलाने में असफल रही कि उसके नेतृत्व में सरकार बन सकती है। बीजेपी ने भले यहां पर सीटें ना जीती हों, लेकिन उसने अपना मत प्रतिशत बढ़ाया है और आने वाले दिनों में यह भी पता चल पाएगा कि 140 सीटों में कितनी सीटें ऐसी हैं जिसमें उसे जमानत के पैसे वापस नहीं करने पड़ेंगे।

केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत का श्रेय कोविड-19 में किए गए विजयन के काम को भी दिया जा रहा है। केरल के मछुआरे उनसे नाराज थे, जिसको कांग्रेस ने अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश भी की थी, लेकिन अंत में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रचंड बहुमत लाकर कांग्रेस के सामने बड़ी विकट स्थिति पैदा कर दी गई है।

तमिलनाडु 

तमिलनाडु ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने उस ट्रेंड को तोड़ दिया था, जिसमें हर एक पांच साल में सत्ता बदल जाती थी। स्वर्गीय जयललिता ने उस परंपरा को तोड़ा था। उनकी मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री के लिए विवाद हुआ और अंत में पलानीस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। उस वक्त पार्टी बिल्कुल रसातल में जा चुकी थी।

शशिकला के नेतृत्व में उनके भतीजे दिनाकरन पार्टी पर कब्जा करना चाह रहे थे और उस वक्त लग रहा था कि अगले चुनाव में सत्तारूढ़ दल का सूपड़ा साफ हो जाएगा, जैसा कि अमूमन तमिलनाडु में हारने वालों के खिलाफ “झाड़ू” लग जाता है!

जैसे-जैसे समय बीतता गया पलानीस्वामी द्वारा पहले तो शशिकला की पार्टी से छुट्टी कर दी गई और पार्टी के दो धड़े की गुटबाजी को समाप्त कर राज्य के कल्याण पर ध्यान दिया गया और कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की गईं। उन्हें केंद्र सरकार का भी सहयोग मिलता रहा और भारतीय जनता पार्टी भी इस चुनाव में अन्नाद्रमुक के साथ समझौता कर चुनाव लड़ी। कोविड-19 में भी मुख्यमंत्री पलानीस्वामी की भूमिका काफी सराहनीय रही। इन सब का नतीजा यह रहा कि डीएमके जो कांग्रेस और अन्य पार्टियों के साथ समझौता कर चुनाव लड़ रही थी। उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया, लेकिन प्रत्येक ट्रेंड को पीछे छोड़ते हुए अन्नाद्रमुक गठबंधन द्वारा 75 के ऊपर सीट लाकर विपक्षी प्रतिद्वंदी बनने की भूमिका तैयार कर दी है। इस चुनाव में केंद्र सरकार द्वारा तमिलनाडु की ओबीसी जातियों को दलित जातियों में शामिल करने की भी घोषणा हुई थी, लेकिन परिणामों में इसका कहीं भी असर नहीं दिखा।

पुडुच्‍चेरी

पुडुच्‍चेरी में हाल तक कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन बाद में कांग्रेस-डीएमके गठबंधन की सरकार गिर गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। खास बात यह है कि इसकी पृष्ठभूमि तत्कालीन राज्यपाल किरण बेदी द्वारा तैयार की गई थी, जिनकी मुख्यमंत्री के साथ लगातार वैचारिक झड़प होती रही। इस छोटे से राज्य में एआइडीएमके और बीजेपी गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लिया है और कांग्रेस पार्टी की हार हुई है।

30 सीटों वाली विधानसभा में 16 सीट एनडीए गठबंधन को आईं हैं जबकि कांग्रेस गठबंधन को 8 सीटें मिली हैं। छोटे राज्यों में मतदाता अमूमन उसी पार्टी को वोट देते रहे हैं जिनकी केंद्र में सरकार रही है।

सत्तर साल से देश का लोकतंत्र इस बात का इंतजार कर रहा है कि समाज का सबसे निम्न इंसान भी इसे अपना कह सके, पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों में ऐसा नहीं होने के बावजूद कुछ बातें राहत प्रदान करती हैं, लेकिन याद रखिए कि अगर हमें नया समाज बनाना है, तो राजनीति के खेल के नियम बदलने ही होंगे।

कहा जा रहा है कि ममता बनर्जी आने वाले दिनों में स्टालिन, चंद्रबाबू नायडू, तेजस्वी यादव, तेलंगाना के टीआरएस, नवीन पटनायक और उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव के साथ मिलकर एक मोर्चा बना सकती हैं ताकि भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में टक्कर दी जा सके। अभी कई तरह की पटकथा लिखी जानी बाकी है, क्योंकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस लगातार कमज़ोर होती जा रही है और इस चुनाव परिणाम ने उसे और कमज़ोर कर दिया है। सभी दलों के एक साथ आने में सबसे बड़ा रोड़ा उनकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा है।

एक प्रमुख रुकावट यह है कि उत्तर प्रदेश लोकसभा सीटों की दृष्टिकोण से सबसे बड़ा राज्य है और यहां पर विपक्ष स्वास्थ्यलाभ कर रहा है। मायावती भारतीय जनता पार्टी की ‘बी’ टीम बन चुकी हैं। कांग्रेस ट्विटर से आगे निकल नहीं पाती है और उनके पास प्रमुख चेहरे का अभाव है। वहां ले दे कर अखिलेश यादव ही प्रमुख चेहरे के रूप में दिखते हैं, लेकिन जिस तरह वह पिछले चार साल से राजनीतिक पटल पर शिथिल हैं ऐसी स्थिति में चुनाव के वक्त केवल जातिगत समझौते के आधार पर क्या ऐसे गठबंधन को जनता का विश्वास हासिल हो पाएगा?

उत्तर प्रदेश में कोविड-19 की लापरवाही को छोड़ भी दें, तो प्रशासनिक लचरता के साथ यह राज्य हर एक दृष्टिकोण से रसातल की ओर जा रहा है। ऐसा लगता है कि अगले चुनाव में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ को थाली में सजा कर सत्ता देने की तैयारी विपक्षी पार्टियों द्वारा हो चुकी है।

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