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मेरे बचपन के संस्मरण- केरी के गोले

मेरे बचपन के संस्मरण- केरी के गोले

मैं कोई दस ग्यारह बरस की रही होंगी, उस समय घरों में गैस चूल्हा नहीं हुआ करता था। उस समय किसी के घर में होता भी होगा, तो मुझे मालूम नहीं। हम लोग खाना पकाने के लिए अंगीठी का उपयोग किया करते थे। उसमें कोयले डालकर अंगीठी जलाई जाती थी।

कोयले लाने के लिए, मैं भी कई बार पापा जी के साथ कोयले की टाल पर जाया करती थी। वहां टाल पर खूब बड़ा तराजू होता था, जिस पर टन या मण के हिसाब से कोयला तोला जाता था। वहां से बोरी में कोयले भर कर आते और होदी में संभाल कर रख दिए जाते थे। घर की ज़रूरत अनुसार उन्हें निकाला जाता, हथौड़ी से उसके छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते और अंगीठी जलाई जाती।

बड़े बड़े कोयले खत्म होने लग जाते, तो आखिर में बच जाती केरी यानी कि कोयलों के बहुत ही छोटे-छोटे बारीक टुकड़े जिन्हें जलाने में प्रयोग तो किया जाता, लेकिन कोयले के रूप में नहीं, बल्कि केरी के गोलों के रुप में। हमारे घर के एक तरफ गली थी और दूसरी तरफ खूब खुला मैदान जिसके चारों ओर घर बने हुए थे। मेरी अम्मा एक पुरानी लोहे की बाल्टी में बारीक कोयलों की केरी में गोबर व तालाब की चिकनी मिट्टी को मिला कर खूब अच्छे से हिलाती। जब घोल अच्छे से तैयार हो जाता, तो मैदान के बीचों-बीच खुली धूप वाली जगह पर इस घोल के छोटे-छोटे गोले बनाकर ज़मीन पर सज़ा दिए जाते।

अम्मा गोले बनाने जाती, तो मुझे भी आवाज लगा देती। मैं भरसक कोशिश करती उनसे छुपने की, क्योंकि मेरे जी को यह सोचकर ही कुछ होने लगता कि गोबर में हाथ डालना पड़ेगा। पर, अम्मा तो अम्मा है, वह भला मुझे कैसे आसानी से छोड़ देती। मैं कितनी भी नानुकुर करती रहूं,  लेकिन वह मेरी बांह पकड़कर ले जाती।

शुरु-शुरु में मैं नाक-भों सिकोड़ती पर धीरे-धीरे मुझे भी उस काम में आनंद आने लगा। ये काम एक आर्टिस्ट की तरह ही किया जाता था। कोयले की केरी, चिकनी मिट्टी और गोबर का सही अनुपात, अच्छे से खूब देर तक हिलाते रहना फिर गोल-गोल सुंदर-सुंदर गोले बनाना और सजाना और फिर एक-दो दिन तक खूब अच्छी तरह सूख जाने पर एक कनस्तर में धीरे-धीरे सजाकर रखना ताकि कोई केरी टूटे-फूटे नहीं और सुरक्षित रहे।

जब अंगीठी जलाई जाती और उन गोलों को डाला जाता, तो  मुझे बड़ी खुशी मिलती और अपने छोटे भाई-बहनों को कहती, देखो ये गोले मैंने अम्मा के साथ मिलकर बनाएं हैं। पहले के लोग कोई भी चीज़ को जाया नहीं जाने देते थे। जिन वस्तुओं को हम बेकार समझ फेंकने की सोचते, वे उनका कोई ना कोई सदुपयोग कर पुन: प्रयोग में ले आते। भले ही उनके पास किसी कॉलेज की डिग्री नहीं थी, पर अनुभव की डिग्री के आगे के कॉलेज की डिग्री बिल्कुल फीकी है।

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