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“गाँव के जन-जीवन के मेरे व्यक्तिगत अनुभव”

"गाँव के जन-जीवन के मेरे व्यक्तिगत अनुभव"

मुझे गाँव कभी पसंद नहीं आया। नहीं, सब बढ़िया है, मैं बस असहज हो जाता हूं, वहां पहुंचकर। वह दूसरी दुनिया है, मेरे लिए । मुझे वहां कुछ समझ ही नहीं आता, खास कर जब मैं बाहर निकलता हूं।

हम हमारे गाँव में बचपन में अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट देखने जाते थे। खेलते कम थे, खेलने वाले लोगों को देखते ज़्यादा थे। वहां खेलते समय अगर किसी से गेंद छूट जाती थी, तो उसे अन्य लोग माँ-बहन की गाली देने लगते थे। यह बात मुझे बड़ी  अज़ीब लगती थी। वो हमेशा जीतने के लिए खेलते थे, किसी भी तरह बस जीतें।

यदि खेलते समय थोड़ी सी भी चीज़ें अगर उनके मन मुताबिक ना हों, तो मार(वहां की भाषा में लड़ाई) हो जाता था। सब एक-दूसरे से लड़ने लगते थे। एक-दूसरे को मारने के लिए तैयार। ईंट वगैरह उठा लेते थे। यह हर जगह जो जीतने की जो जिद्द होती है, ना यही लड़कों को क्रूर बनाती है। इसमें गलती उनकी भी नहीं है, क्योंकि उन्हें तैयार ही इस तरीके से किया जाता है।

किसी (नाम नहीं याद) इंग्लिश यूनिवर्सिटी में एक प्रयोग हुआ। एक बच्चे (लड़का या लड़की) को लाया गया और उसे अलग-अलग कपड़े ( लड़का और लड़की) को पहना कर अलग-अलग ग्रुप के औरतों को दिया गया। जब लड़की वाले ड्रेस में बच्चे को दिया गया, तो औरतों ने उसे प्यार से सहलाया, गले लगाया। जब लड़कों वाले ड्रेस में बच्चे को औरतों को दिया गया तब उन्होंने उसे उछालना शुरू कर दिया। यहीं पर सब क्लियर हो जाता है। लड़की को को-ऑपरेटिव तरीके से और लड़के को रूड(rude) तरीके से सम्भाला गया।

अब क्यों नहीं ईंट-पत्थर फेकेंगे? वो एक-दूसरे के ऊपर। यह तो गाँव है, शहरों में भी ऐसा ही होता है। लेकिन, हमें ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हम वहां से उतने जुड़े नहीं होते हैं। गाँव की ही एक और घटना थी, एक लड़के ने अपने भाभी से खाना मांगा। हां, यहां लड़के खुद से खाना नहीं निकालते खाने के लिए। घर में कोई और अन्य सदस्य निकाल कर देता है। हम भी यही करते हैं।

खैर, माफी, इसी बीच भाभी कहीं व्यस्त होंगी, तो उन्होंने उस लड़के को थोड़ा देर रुकने को कहा। वह इस बात से गुस्सा हो गया और भाभी को पीट दिया। हो सके यह कारण ना हो परन्तु,  किसी को बेवज़ह मार देना, कहां तक उचित है? कुछ पता नहीं चल रहा है ना? तब आप अपना माथा पीटिये।

गाँव में पता नहीं कितनी बार लोगों ने सबसे चंदा मांगा। जानते हैं ! किस काम के लिए? मंदिर बनाने के लिए, यज्ञ करने के लिए, क्रिकेट मैच खेलने के लिए और पता नहीं क्या-क्या करने के लिए। कभी अस्पताल(छोटा-मोटा ही सही) बनवाने के लिए, लाइब्रेरी बनवाने के लिए और भी जो ज़रूरी चीज़ें हैं, उसके लिए नहीं मांगा।

आस-पास के गाँव के लोग एक ही डॉक्टर पर निर्भर हैं। वही जिन्हें पढ़े-लिखे लोग झोला-छाप डॉक्टर कहते हैं।   पता नहीं, अगर ये झोला-छाप डॉक्टर ना होते, तो गाँव जैसी चीज़ो का क्या होता? ये जो झोला-छाप डॉक्टर हैं ना  पता नहीं, हमारे कितने छोटे-मोटे गाँवों और कस्बों को बचा कर रखें हैं। गाँवों में जब आदमी डर से मरने लगता है तब वहां यही डॉक्टर उन्हें सहारा देते हैं। वरना आम आदमी तो घबराकर ही मर जाए।

सरकार को यह करना चाहिए कि वह हर गाँव मे थोड़े-थोड़े दिनों के लिए एक एडवांस ट्रेनिंग की व्यवस्था करे, ताकि वो जो झोला-छाप डॉक्टर हैं, थोड़ा और स्किल्ड हो सकें।

आपको अभी भी लगता है कि हमारे समाज को मंदिर की ज़रूरत है। आपको नहीं लगता कि इतने सारे मंदिर बन चुके हैं कि भगवान की आराधना में कोई कमी तो नहीं है। हर घर में छोटी-छोटी मूर्तियां हैं, भगवान की फोटो हैं।   इतना काफी है ध्यान के लिए, आराधना के लिए और कई जगह बड़ी-बड़ी मूर्तियां भी हैं। हर गाँव में मंदिर, तो है ही इतना काफी है यार। अब मंदिर के लिए मत लड़िए। अस्पतालों के लिए लड़िए। शिक्षा और किताबों के लिए लड़िए।

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