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“पिता को आखिरी वक्त में भी नहीं देख पाईं नताशा, सत्ता इससे ज़्यादा और कितनी क्रूर होगी?”

सीएए एनआरसी आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के आरोप में जेल में बंद पिंजरा तोड़ की एक्टिविस्ट नताशा नरवाल को दिल्ली हाईकोर्ट ने तीन हफ्तों की अंतरिम जमानत दी है। जमानत देने का कारण है उनके पिता महावीर नरवाल का निधन।

गौरतलब हो कि नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल कोविड पॉज़िटिव थे और 9 मई को रोहतक में उन्होंने अंतिम सांस ली। नताशा कि जमानत की शर्त यही है कि वो अपने पिता का अंतिम संस्कार कर सकें, क्योंकि उनके घर में उनके अलावा एक भाई ही है, जो कोविड संक्रमण के चलते अभी आइसोलेशन में है।

कौन हैं एक्टिविस्ट नताशा नरवाल?

नताशा पिंजरा तोड़ संगठन की संस्थापक सदस्य हैं, जो दिल्ली के कुछ कॉलेज की छात्राओं व पूर्व छात्रों का एक समूह है। वो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़ से पीएचडी की छात्रा भी हैं। उन्हें 23 मई 2020 को सीएए/एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन करने के दौरान गिरफ्तार किया गया था लेकिन इसके लिए उन्हें दूसरे दिन ही ज़मानत दे दी गई थी।

मगर जमानत के कुछ देर बाद ही SIT ने नताशा और उनकी साथी देवांगना को हत्या, दंगा और आपराधिक साजिश के तहत गिफ्तार कर लिया था। फिर 29 मई को उनपर UAPA लगा दिया गया। नताशा, देवांगना और सफूरा ज़रगर सहित दर्जनों एक्टिविस्ट को यूएपीए के तहत अंदर किया गया है।

हम सभी जानते हैं UAPA में जमानत बहुत देर से मिलती है और 2019 में इसमें कई कड़े संशोधन भी किए गए हैं। समय-समय पर विपक्ष ने इसकी कड़ी निंदा भी की और इन बदलावों को लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन भी कहा। इसलिये कि अब UAPA के चलते किसी को भी शक के आधार पर आतंकवादी, देशद्रोही घोषित किया जा सकता है। इसके अंतर्गत बगैर किसी ट्रायल के पूरे एक साल से नताशा तिहाड़ जेल में हैं और ना जाने उन जैसे कितने ही और भी लोग होंगे।

आखिरी तक बेटी के साथ खड़े दिखे महावीर

नताशा के पिता महावीर नरवाल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवाद) के वरिष्ठ सदस्य थे। साथ ही वो एक वैज्ञानिक भी थे। महावीर नरवाल हिसार की CCS हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से बतौर वरिष्ठ वैज्ञानिक रिटायर हुए थे। महावीर हरियाणा में पीपल्स साइंस मूवमेंट और ज्ञान-विज्ञान आंदोलन की शुरुआत से ही उसके साथ जुड़े हुए थे।

पिंजरा तोड़ ने अपने बयान में कहा कि महावीर नरवाल आखिर तक प्रगतिवादी राजनीति में शामिल और उसके लिए प्रतिबद्ध रहे।

बीते साल बेटी (नताशा नरवाल) की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने पॉलिटिकल इंटरव्यू के दौरान अपने एक स्टेटमेंट में कहा था कि “उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है और वे सदा उसके साथ खड़े रहेंगे।” साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि “ऐसा भी हो सकता है कि जब मैं दुनिया से जाऊं तब शायद बेटी जेल में ही रहे” और आखिरकार हुआ भी वही।

बीते नवंबर राजनीतिक कैदियों की रिहाई पर उन्होंने कहा था कि उनकी बेटी अब भी जेल में है। लड़ाई सिर्फ इसलिए नहीं लड़ी जा रही है कि ऐसे लोगों को जेल से रिहा किया जाए, बल्कि ये लड़ाई सभी अच्छे विचारों को बचाने का संघर्ष है।

अपराधी किसे माना जाए?

वामपंथी दल माकपा ने भी महावीर नरवाल के निधन पर शोक जताया है और कहा कि यह मोदी सरकार का आपराधिक कृत्य है कि उनकी बेटी नताशा नरवाल को पिछले साल यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था और वह अपने पिता से मिल भी नहीं सकीं। ये तो हुई खबर लेकिन विचारणीय क्या है?

नताशा नरवाल अपने पिता से नहीं मिल पाईं, इसका अपराधी किसे माना जाए? नताशा नरवाल को या उनकी बेबाकी को? या उस सिस्टम को जो उन्हें अब तक बगैर किसी ट्रायल के जेल में रखे हुए है? या उस न्यायिक प्रक्रिया को जिसने महामारी की नज़ाकत को नहीं समझा और फैसले को 9 मई तक के लिए सुरक्षित रख लिया? या उस पिता को जिसे अगर अपनी बेटी पर गर्व था तो उसे अपनी बेटी के आने तक रूक जाना चाहिए था! सांसों को थमने नहीं देना चाहिए था बल्कि मौत से कुछ सुलह कर लेनी चाहिए थी।

हां शायद नरवाल और नताशा ही तो हैं असल अपराधी। अगर 28 अप्रैल को ही नताशा को जमानत मिल जाती तब शायद वे अपने पिता से मिल पातीं।

कई युवा एक्टिविस्ट अभी भी जेलों में बंद

हमारा देश जहां कई युवा एक्टिविस्ट जेलों में बंद कर दिए गए। चाहे वो CAA आंदोलन का समय रहा हो या किसान आंदोलन या कोई भी आंदोलन। एक तरफ वो लड़की है, जिसे अपने पिता से आखिरी बार मिलने के लिए भी उनकी मौत तक इंतज़ार करना पड़ गया, वहीं दूसरी और ऐसे हज़ारों अपराधी नेता और दबंग खुलेआम घूम रहे हैं, जिनके कोर्ट की सीढ़ी पर कदम पड़ने से पहले ही जमानती लेटर उनके हाथ में होता है।

जहां एक तरफ सत्ता के नशे में चूर प्रचारवादी सरकार युवाओं को राम के नाम पर उन्मादी बनाती रही और वो उन्माद इतना है कि महामारी, एक चरमराती अर्थव्यवस्था और खत्म होती ऑक्सीज़न भी उस उन्माद की सांसे नहीं उखाड़ पा रही है।

वहीं दूसरी तरफ वो युवा हैं, जो अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर सिस्टम की आंखों में आंखें गढ़ाकर खड़े होने का दम रखते हैं लेकिन सत्ता उन आंखों से इतना डरती है कि उन्हें पकड़कर किसी चारदीवारी में बंद कर देना चाहती है बल्कि कर रही है। कितने मंत्री और नेता दंगा-फसाद से लेकर खून-खराबे तक के हज़ारों केस में जमानती वॉरन्ट लेकर लोकतंत्र के मंदिर (संसद) में काबिज़ हैं और नताशा जैसे कई युवा जेल के अंदर!

वो अकेली नहीं हैं, ऐसे ना जाने कितने ही नाम हैं, जो सत्ता के दम्भ का दंश झेल रहे हैं। मगर आज भले ही इन सबको अंदर करने पर सत्ता को क्लीनचिट मिल जाए, वो आसानी से बचकर निकल जाएं, क्योंकि उससे सवाल-जबाव करने वाला कोई है नहीं। मगर इतिहास आज नहीं तो कल इन सत्ताधारियों को कटघरे में ला ही पटकेगा।

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