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कविता : जलते भारत पर राजनीति

कविता : जलते भारत पर राजनीति

भारत जल रहा है,

राजनीति अपनी चरम सीमा पर है।
अचंभित हूं, यह देख कर
स्वार्थ, देशहित से श्रेष्ठ है
चुनाव, चिताओं से श्रेष्ठ है
कालाबाज़ारी, जीवन से श्रेष्ठ है।
स्तब्ध हूं, यह सोच कर
कैसे कोई कह सकता है, इतनी जनता को एक साथ देख कर मेरा दिल खुश है
कैसे कोई प्रचार कर सकता है, जब मोक्षधाम में एक टुकड़ा ज़मीन की कमी है
कैसे कोई खुद को ज़िम्मेदार नहीं ठहराता, अस्पताल में असुविधाओं और श्मशान में लगी लाइनों का।
विस्मित हूं, यह जानकर,
जिस मीडिया का काम जनता को सच से रूबरू कराना है, वो चंद नेताओं के तलवे चाट रही है
धर्म देश से बड़ा हो जाता है, कुंभ मेला बंद नहीं होता
पूजा-पाठ के नाम घंटो ऑक्सीजन की गाड़ियां रोक दी, इंसान सांसों के लिए मुहताज हो दम तोड देता है।
हैरान हूं, मैं
आई. पी. एल देश से ज़्यादा ज़रूरी है
तरस जाओगे एक टुकड़े कफन के लिए
धरा रह जाएगा यह पैसा।

भारत जल रहा है,

राजनीति अपनी चरम सीमा पर है।
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