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विज्ञापनों के द्वारा हमारे समाज में पितृसत्ता के रूप और लैंगिक भेदभाव को मज़बूत किया जा रहा है

विज्ञापनों के द्वारा हमारे समाज में पितृसत्ता के रूप और लैंगिक भेदभाव को मज़बूत किया जा रहा है

हम क्या देखते हैं? क्या खरीदते हैं? इसमें विज्ञापन का बड़ा हाथ होता है, क्योंकि विज्ञापन हमें इतने आकर्षक और लुभावने ढंग से प्रोडक्ट को पेश करता है, जिससे हमें लगने लगता है कि यही है, जिसकी हमें ज़रूरत थी।

बहरहाल, हाल ही में विज्ञापन से जुड़ी एक रिपोर्ट सामने आई है। अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनाइटेड नेशन चिल्ड्रन इमरजेंसी फंड (UNICEF) द्वारा जारी की गई रिपोर्ट Gender Bias and Inclusion in Advertising in India कहती है कि महिलाओं को विज्ञापन के बाज़ार में एक वर्किंग वुमन के तौर पर ना के बराबर दिखाया जाता है।

एक स्टडी के अनुसार इसमें 1,000 ऐसे विज्ञापनों पर रिसर्च की गई, जो सबसे ज़्यादा बार देखे गए, तब सामने आया महिलाओं का विज्ञापन स्क्रीन समय (59.7%), बोलने का समय (56.3%), व 49.6% पात्रों के रूप में दर्शाया गया है। यूनिसेफ के जेंडर बायस एंड इंक्लूजन इन एडवरटाइजिंग इन इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में यह साफ किया है की पुरुषों को घर में घरेलू कामों को करते और महिलाओं को बाहर यानी कामकाजी (वर्किंग) के रूप में बहुत कम दिखाया जाता है।

पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ज़्यादातर शॉपिंग करते (4.1% की तुलना में 2.3%), घर की सफाई करते (4.8% की तुलना में 2.2%), खाने के सामान खरीदते या बनाते हुए (5.4% की तुलना में 3.9%) दर्शाया जाता है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को ज़्यादातर शादीशुदा ही दिखाया जाता है।

वहीं, ज़्यादातर समय इन्हें घरेलू प्रोडक्ट जैसे कोई तेल, शेम्पू, साबुन, क्रीम या मसाले बेचते हुए दिखाया जाता है, जिसके साथ ही महिलाओं को एक केयरटेकर की भूमिका में दिखाया जाता है। विज्ञापन बनाने वाले, विज्ञापनों में हमेशा पुरुष पात्रों को महिला पात्रों के मुकाबले ज़्यादा बुद्धिमान और हंसमुख दिखाते हैं, साथ ही सभी बड़े फैसले पुरुष पात्र और घरेलू छोटे-मोटे फैसले महिलाओं को लेते दिखाया जाता है।

हमारे समाज एवं विज्ञापनों में महिलाओं को एक सेक्सुअल ऑब्जेक्ट माना जाता है

यह रिपोर्ट ये भी बताती है कि महिला पात्रों को पुरुष पात्रों के मुकाबले 9 गुना ज़्यादा खूबसूरत और आकर्षित दिखाया जाता है। लगभग 66.9% औरतों को हल्का या फिर मध्य हल्का रंग में दिखाया जाता है, वहीं उन्हें पुरुषों के मुकाबले 6 गुना ज़्यादा खुले कपड़ों में दिखाया जाता है और 4 गुना ज़्यादा नग्न रूप में चित्रित किया जाता है। मतलब महिलाओं का विज्ञापनों में 5 गुना ज़्यादा सेक्सुअल ऑब्जेक्टिफिकेशन किया जाता है और इतना ही काफी नहीं है! विज्ञापन में पुरुष और महिला पात्रों, बल्कि हम कहें बच्चों तक को उसी पूर्वाग्रह के साथ पेश किया जाता है।

मसलन अगर एक छोटे बच्चे (लड़के) को बार-बार एक फाइटर कार के साथ दिखाया जाता है, तब उस विज्ञापन को देखने वाले किसी भी छोटे बच्चे के ज़हन में यह बैठ जाएगा कि उसके लिए वही कार बनी है, जबकि विज्ञापनों का प्रभाव एक समाज की दिशा को ज़ल्दी बदल सकता है और ना भी बदले मगर कुछ असर, तो डालता ही है।

यह तो हुई रिपोर्ट की बात, जो ये साफ तौर पर दर्शाती है कि हम पूर्वाग्रह से ग्रसित तो हैं ही, लेकिन हमारी विज्ञापन इंडस्ट्री हमसे कहीं ज़्यादा इससे ग्रसित है और वह चाहती भी नहीं कि इन पूर्वाग्रहों को तोड़ा जाए। लेकिन, मैं पूछना चाहती हूं क्यों? क्यों कुछ प्रश्न अप्रत्याशित रूप से जस-के-तस खड़े रहते हैं? जिनके जवाब कोई देना नहीं चाहता या हम कहें हम उनसे आगे बढ़ना ही नहीं चाहते हैं।

यह सच ही है कि हमारा समाज एक महिला को सेक्स ऑब्जेक्टिवटी के तौर पर, एक नक्काशीदार सुंदर और परफेक्ट औरत के तौर पर ही तो पेश करता है। उस विज्ञापन में जिसका रंग डार्क हो ही नहीं सकता, जिसकी काया छरहरी ही होगी और उसे बोलने का अधिकार नहीं दिया जाएगा मगर परिवार में सबका ख्याल रखने का ज़िम्मा उसका ही होगा। क्या आप जानते हैं, इस पूर्वाग्रह की सबसे बड़ी गांठ कहां है? इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारा समाज, हमारा घर, हमारा परिवेश जो हमें इन पूर्वाग्रहों से बांधे रखता है।

हमारे समाज में बचपन से ही महिलाओं को पितृसत्तात्मक चुनौतियों के लिए तैयार किया जाता है 

जहां हम लड़कियों को बचपन से ही बैठने, बोलने, खाने, पहनने के साथ-साथ काम का सलीका भी सिखाते हैं और जब वो कुछ कहना, खुलकर हंसना चाहती हैं, तब उन्हें बहुत अच्छे से द्रोपदी की हंसी का उदाहरण याद करवा देते हैं। “देखो, द्रोपदी की एक हंसी ने महाभारत करवाया था।” जबकि ये कोई नहीं बताता की पांडवों ने उन्हें दांव  पर किस आधार पर लगाया था? जिस दिन पहली बार हमारे समाज, परिवार में यह उदाहरण दिया गया, यदि उसी दिन कोई पलटकर यह सवाल कर लेता तब इन विज्ञापनों की सूरत कुछ और ही होती।

वहीं, जब घरों में लड़कियां बड़ी हो रही होती हैं, तब लड़का, जी हां, वही लड़का जो बड़े होकर कभी पुरुष कहलायेगा, वो देखता है उसकी माँ, उसकी बहन घर में छोटे-बड़े कामों में लगी रहती हैं, तब उन्हें भी लगता होगा ऐसा ही होता है। यह सब देखकर बचपन से ही तय कर लिया जाता है कि लड़कियों का काम चूल्हा-चौका ही है। समाज और परिवार में लड़की को ही तरीके के कपड़े पहनने होंगे, तब एक लड़का-लड़की के दिमाग में कैसे आएगा कि यह काम बराबरी का है। इसलिए जब वे दोनों बड़े हो रहे होते हैं, तब अपने आप अपना-अपना कार्यक्षेत्र चुन लेते हैं या कहिए हमने उन्हें बचपन से ही ट्रेन्ड कर दिया है कि उन्हें बड़े होकर क्या करना है।

हमारे समाज में एक लड़की को बार-बार कहा जाता है, अच्छा खाना बनाना सीखो। ज़्यादा सपने मत देखो, ज़्यादा उड़ो मत। अच्छी दिखो, अच्छा पहनो, कुछ ऐसा लगाओ ताकि सुंदर दिख सको और भी बहुत कुछ, लेकिन ये कोई नहीं पूछता की सुंदर क्यों दिखना है? क्या है सुंदरता की परिभाषा?

क्या हम घरों में सेक्सुअल ऑब्जेक्टिफिकेशन नहीं करते? मैं दावे के साथ कह सकती हूं, ये विज्ञापन उसी का आईना है, वर्ना कभी, तो हम इन विज्ञापनों के पीछे छुपी नियत को पहचान जाते? मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानती हूं, जो चाहते हैं कि उनकी बीबियां, उनकी दोस्त, उनकी प्रेमिकाएं, बल्कि उनकी बेटियां चार लोगों में अच्छी लगें। कोई उन्हें मोटा, काला, बदसूरत बेडौल ना कहे, बल्कि उनकी सुंदरता, उनके बनावटीपन का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़े और साथ ही जो लड़कियां घरों में आज़ाद पसन्द होती हैं, परिवार, उन्हें समाज में घरेलू साबित करने की अपनी पूरी कोशिश भी करता है।

समाज में महिलाओं पर हावी पितृसत्ता का घिनौना रूप  

आप मेरी बात से सहमत /असहमत हो सकते हैं, लेकिन यह पुरुषों के वर्चस्व का उदहारण नहीं, तो और क्या है? महिलाएं हमारे समाज से क्यों नहीं पूछतीं कि क्यों उन्हें किसी और के लिए सजाया-संवारा जा रहा है? वहीं हमारे देश में कुछ मुट्ठीभर महिलाएं ही कामकाजी हैं, उन्हें भी हमारा समाज कोई बहुत अच्छी नज़रों से नहीं देखता, बल्कि वर्किंग प्लेस पर भी उन्हें पुरुषों के वर्चस्व का सामना करना पड़ता है और जब महिलाएं अपने फैसले खुद लेने लगती हैं, तब उन्हें एडवांस कहा जाने लगता है।

लेकिन, मैं उन बड़ी-बड़ी विज्ञापन कम्पनियों से लेकर इस समाज की उस सबसे छोटी इकाई तक सबके खिलाफ हूं और मैं चाहती हूं कि हर कोई इसके खिलाफ खड़ा हो जाए! मेरे खिलाफ खड़ा हो जाए, क्योंकि जब एक लड़की सवाल करती है, तब वो किसी एक शख्स से नहीं पूरे समाज से पूछा जाता है और पूछा जाना चाहिए। ऐसे सवाल ही, इस तरह के विज्ञापन और इस समाज दोनों के दोहरेपन की परतें उधेड़ सकते हैं।

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