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“आत्मनिर्भरता के कंधों पर निकल रहा है भारत का जनाज़ा”

आत्मनिर्भरता के कंधों पर निकल रहा है, भारत का जनाजा (व्यंग्य)

देश के स्वघोषित प्रधान सेवक अच्छे दिन, आत्मनिर्भर भारत, सबका साथ-सबका विकास, बेटी बचाओ -बेटी पढ़ाओ, खेलो इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी दिलकश सियासी जुमलेबाजी के लिए मशहूर हैं। हालांकि, इन सियासी हुंकारों को अंजाम देने की खातिर, जिस जज्बे और जोशो-जुनून की दरकार थी, वह हमेशा नदारद रही है। लेकिन, आत्मनिर्भर भारत के बारे में ऐसा दावा, गलतबयानी होगा। आत्मनिर्भर भारत का हसीन ख्वाब पूरा करने की खातिर देश के वजीर-ए-आज़म मोदी साहब दिन-रात कड़ी मशक्कत कर रहे हैं। इस कड़ी मशक्कत का ही नतीजा है कि आज देश कोरोना के समय में पहले से ज़्यादा आत्मनिर्भर हो चला है। वह भारतीय स्टॉक मार्केट की तर्ज पर तेज़ी से आत्मनिर्भरता की तरफ उछला है और नित नई ऐतिहासिक उचाइयां व कीर्तिमान हासिल कर रहा है।

यूं, तो हम घर-परिवार में यदा-कदा आत्मनिर्भर होने का प्रवचन सुनते हुए ही बड़े हुए हैं। प्रवचन सुनाने की यह ज़िम्मेदारी अक्सर रिश्ते में बाप बतलाए गए शख्स पर होती है। आत्मनिर्भर बनो, अपने पैर पर खड़ा होना सीखो, सरीखे प्रवचनों से यह शख्स अपनी ज़िम्मेदारियां बखूबी निभाता है। बाप बिरादरी के इन सक्रिय सदस्यों का आत्मनिर्भरता सम्बन्धी दर्शन मुख्य रूप से आत्मनिर्भर होकर रोटी का जुगाड़ करने और परनिर्भरता से मुक्ति तक सीमित रहता है। लेकिन, देश की सरकार ने आत्मनिर्भरता के इस दर्शन को उसके संकीर्ण दायरे से निकालकर ऐतिहासिक काम किया है। उसने आत्मनिर्भरता को नई दिशा में पुन:परिभाषित किया है।

 रोटी के लिए आत्मनिर्भरता को सरकार ने रोटी बिन आत्मनिर्भरता तक पहुंचा दिया है। आत्मनिर्भरता की यह नई परिभाषा गढ़ने का दारोमदार मोदी साहब को ही जाता है। पिछले वर्ष, देश के जनसाधारण को लॉकडाउन में रोटी बिन आत्मनिर्भर करने का बेजोड़ प्रयास हुआ था, लेकिन यह प्रयास नाकाफी साबित हुआ। यही कारण है कि आज फिर से विभिन्न राज्य सरकारें लॉकडाउन को नजीर मानते हुए, इस बाबत प्रयासरत हैं।

अब आप ही बताइए, यदि सरकारें लॉकडाउन करें ही नहीं और बाज़ार, कारखाने, फैक्ट्रियां व औद्योगिक इकाइयां बंद ही ना हों, तो क्या आम लोगों और खासकर, मज़दूरों को आत्मनिर्भर होने का मौका मिलेगा? क्या वह आत्मनिर्भर होने की कोशिश करेगा? वह निरा विलासी बना रहेगा और सांसारिक भौतिक वस्तुओं के मोहपाश में फंसा रहेगा। रोटी की माया, तो उसके सिर चढ़कर बोलती है, जिसके लिए वह फैक्ट्रियों, कारखानों के पीड़ादायी प्रतिकूल हालातों में चौदह-चौदह घंटे काम करने को खुशी-खुशी तैयार हो जाता है। यह तो मालिक कौम की भलमानसता ही कहिए कि वह उसे ज़्यादा काम करने से रोकते हैं और रात को फैक्ट्री बंद कर देते हैं।

 अन्यथा यह अतिविलासी जीव अपनी अतिविलासी इच्छाओं के वशीभूत होकर बीबी-बच्चों को भूल बैठे और चौबीसों घंटे काम करे। वास्तव में रोटी और रोटी के जुगाड़ के लिए इनकी निर्भरता आत्मनिर्भर भारत में एक बड़ी रुकावट है। ऐसे में सरकारें कोरोना की जुगत से लॉकडाउन करके, इन्हें आत्मनिर्भर बना रही हैं। लॉकडाउन इनके आत्मनिर्भर होने की घड़ी है। बस, अब इन्हें रोटी और रोटी के जुगाड़ की पर-निर्भरता को खत्म करके, भूखे पेट रहकर, स्वयं को आत्मनिर्भर या रोटी बिन आत्मनिर्भर साबित करना है और जब देश का बहुसंख्यक आत्मनिर्भर हो जाएगा, तो देश खुद-ब-खुद आत्मनिर्भर बन जाएगा।

देश को आत्मनिर्भर बनाने की तमाम सरकारी कोशिशों के बाद भी कुछ अतिविलासी किस्म के लोग लॉकडाउन में रोटी का जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। दरअसल, यह वही अतिभोगी लोग हैं। जो पिछली बार के लॉकडाउन में भी इसी तरह सड़कों पर बाहर टहल रहे थे। परिवार, बीबी व छोटे-छोटे बच्चों के संग गर्मी और लू के थपेड़ों की परवाह किए,  बगैर हज़ारों मील पैदल, साईकिल या रिक्शा से घूम रहे थे, सरकार पर हमले कर रहे थे, दंगे कर रहे थे, रोटियां  लूट रहे थे और यहां तक कि पानी भी लूट कर जमा कर ले रहे थे। दरअसल, यह सब केवल विलासिता-ए-रोटी की क्षुद्र भूख की तृप्ति और आत्मनिर्भर भारत के पावन महायज्ञ में रुकावट डालने के उद्देश्य से हो रहा था, नहीं, तो क्या कुछ दिनों या महीनों में रोटी बिन आत्मनिर्भर होना, कोई मुश्किल काम है भला?

ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन का यह प्रयोग सफल नहीं रहा। अनेक लोगों ने इस दौरान भूखे रहकर रोटी से आत्मनिर्भर होना सीखा, लेकिन 138 करोड़ लोगों को किसी एक नीति से आत्मनिर्भर नहीं बनाया जा सकता इसलिए सरकार अन्य रणनीतियों को भी साथ-साथ अमल में ला रही है। अपनी नई तरकीब से वह शारीरिक रूप से अशक्त मरीजों को आत्मनिर्भर बना रही है। वह इन बीमार लोगों को दवाई, ऑक्सीजन, इलाज, डॉक्टर, अस्पताल के आलंबन से मुक्त करना चाहती है, जिसके फलस्वरूप सरकार ने इन चीज़ों की मांग बढ़ने पर भी, इनकी आपूर्ति और सेवाओं में कोई इजाफा नहीं किया है।

रोगियों में यह बुरी आदत रहती है कि हल्का सा खांसी-जुकाम हुआ नहीं कि मुंह उठाया और पहुंच गए केमिस्ट या डॉक्टर की दुकान पर। वह अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता और इच्छाशक्ति पर रत्ती भर भरोसा नहीं करते। जबकि समाज में अक्सर यह सुनने में आता है कि व्यक्ति यदि मन से चाहे, तो सबकुछ हासिल कर सकता है यानी रोगी यदि बिन दवाई ठीक होना चाहे, तो अपनी इच्छाशक्ति के बलबूते वह ठीक हो सकता है। संभवत: इसी अतिवैज्ञानिक सूत्र के आधार पर सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं को ना बढ़ाने का सटीक रणनीतिक फैसला किया है।

वैसे, तो देश स्वास्थ्य के मामले में पहले से ही आत्मनिर्भर रहा है। देश के दूर-दराज के आदिवासी इलाकों और गाँवों में लोग स्वास्थ्य सेवाओं की परनिर्भरता से स्वतंत्र रहे हैं। इन इलाकों में पैरासिटामोल जैसी सामान्य दवाइयों की पहुंच बमुश्किल होती है, जिससे यह लोग अब आत्मनिर्भरता की उच्चतम अवस्था तक पहुंच चुके हैं। लेकिन, देश के शहरी बाशिंदों को देखिए, एक छोटे से विषाणु से पनपी कोरोना बीमारी में पैरासिटामोल और दूसरी दवाइयों (रेमडेसिविर, फेबिफ्लू) की आपूर्ति थोड़ी कम क्या पड़ी? लगे हाय-तौबा मचाने।

लोगों की भारी भीड़ केमिस्ट की दुकानों के बाहर ऐसे जुट गई, जैसे लंगर बंट रहा हो। रेमडेसिविर की दवाई कई गुना ऊंचे दाम पर 20,000 से 25,000 रुपये में खरीदी गई। वैसे, दवाइयों की यह परनिर्भरता आर्थिक रूप से सशक्त मध्यमवर्ग में ज्यादा देखी गई, जबकि ज़्यादातर निम्नवर्ग के लोगों ने दवाइयों पर निर्भर हुए बिना आत्मनिर्भर भारत की मुहिम को सशक्त करने का काम किया।

­­­ऑक्सीजन की निर्भरता का भी आलम कुछ ऐसा ही रहा है। यूं, तो एक छोटा ऑक्सीजन सिलिंडर आम दिनों में 5000 रुपये तक का मिलता है, लेकिन ऑक्सीजन पाने की विलासी-आकांक्षाओं ने इसके दामों को 50,000 रुपये  के पार तक पहुंचा दिया है। इतनी ऊंची कीमत के बावजूद ऑक्सीजन और ऑक्सीजन सिलिंडर पाने की चाहत लोगों के मन में कमज़ोरी हो गई हो, ऐसी बात नहीं है। ऑक्सीजन पाने की चाहत में लोग रात-दिन, सुबह-शाम मारे-मारे फिर रहे हैं। कैसे भी करके एक सिलिंडर ऑक्सीजन मिल जाए, इसके लिए वह ऑक्सीजन फिलिंग स्टेशन के बाहर लम्बी-लम्बी कतारों में घंटों तक भूखे-प्यासे खड़े रहते हैं।

हालांकि, कतारबद्ध होना, यह कतई गारंटी नहीं देता कि ऑक्सीजन मिलेगी, क्योंकि मोदी सरकार आत्मनिर्भर भारत के महामिशन के मद्देनज़र ऑक्सीजन की परनिर्भरता को खत्म करना चाहती है। अब आप ही बताइए इतने पराश्रित लोग क्या किसी देश को आगे ले जा सकते हैं? क्या ऐसे परनिर्भर लोगों का समाज तरक्की कर सकता है? क्या ऐसी पराश्रित संतानों की वजह से भारत माता की दुनिया भर में बदनामी नहीं होगी? दुनिया भर के लोग थू-थू करेंगे, हंसी उड़ाएंगे  कि भारत माँ की संतानें सांसों के लिए फेफड़ों पर नहीं, ऑक्सीजन सिलिंडर पर निर्भर रहती है। यही कारण है कि लोगों की उत्कट चाहतों के बावजूद सरकार ने ऑक्सीजन के उत्पादन को नहीं बढ़ाया और लोगों को सिलिंडरी निश्वास की परनिर्भरता से मुक्ति दिलाने का काम किया।

हालांकि, ऑक्सीजन की ऐसी चाहत और आश्रितता भी प्राय: आर्थिक रूप से सबल अभिजात वर्ग में देखने को ज़्यादा मिली है, जबकि निम्न वर्ग के अनेक लोगों ने शुरु में ऑक्सीजन के लिए कुछ जद्दोजहद ज़रूर की, लेकिन आत्मनिर्भरता की मुहिम का भान होने पर, उन्होंने आत्मनिर्भरता का परिचय देते हुए सजग रूप से प्रोनिंग व शव आसन के जरिये ऑक्सीजन की मात्रा को नियंत्रित करने का काम किया। आत्मनिर्भर भारत की मुहिम का ही परिणाम है कि आज वेंटीलेटर की ज़रूरत पड़ने पर लोगों ने माउथ टू माउथ थेरेपी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।

आज डॉक्टर की ज़रूरत होने पर मरीज अस्पताल पर निर्भर नहीं है, वह घर पर स्वयं ही काढ़ा या देशी उपचार कर रहा है। यही नहीं मरीज़ उच्चस्तरीय आत्मनिर्भरता हासिल कर सके, इस मद्देनज़र सरकार ने आज विभिन्न सरकारी अस्पतालों में ओपीडी को बंद कर दिया है। सरकारी अस्पतालों की ओपीडी बंद होने के बाद से दिल, गुर्दे, लीवर, फेफड़े, कैंसर, टीबी, दमा जैसे श्वसन रोगों व अन्य दूसरे गंभीर रोगों से पीड़ित मरीज़ इन रोगों के इलाज के लिए अब पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं। हकीकत में, आत्मनिर्भरता की ऐसी हिरन-कुलांच देश के जनसाधारण के लिए असाधारण, अकल्पनीय, अनिर्वचनीय और अविश्वसनीय रही है।

देश को इस कदर आत्मनिर्भर बनाने के लिए मोदी सरकार का जितना यशोगान किया जाए, वह उतना कम होगा। अब जरा सोचिए, यदि सरकार पैरासिटामोल, रेमडेसिविर, फेबिफ्लू का उत्पादन बढ़ा देती, तो शारीरिक रूप से अशक्त ज़्यादातर मरीज़ आत्मनिर्भर बनने की कोशिश ही नहीं करते। सभी मरीज़ दवाई खरीद लाते और दवाई की निर्भरता पर जीवित रहते हैं। इसी तरह यदि सरकार पिछले एक वर्ष के दौरान महज 202 करोड़ रुपये खर्च करके ऑक्सीजन के 162 प्लांट लगा देती, तो क्या आज मरीज़ प्रोंनिंग करते? जी नहीं, वह ऑक्सीजन का सिलिंडर भरवाते और आत्मनिर्भर होने की बजाए सिलिंडर-निर्भर हो जाते। यह आत्मनिर्भर भारत का ही परिणाम है कि आज मरीज प्रोनिंग करके ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ा ले रहा है और अगर वह इसी प्रतिबद्धता से निरंतर प्रोनिंग करता रहा, तो यह संभव है कि एक दिन ऐसा आए जब वह ऑक्सीजन छोड़ने भी लगे।

इसी तरह पिछले वर्ष जून माह की घोषणा के अनुसार यदि सरकार 50,000 वेंटीलेटर खरीद लेती, तो क्या मरीज़  माउथ टू माउथ थेरेपी का इस्तेमाल करते? जी नहीं, मरीज वेंटिलेटर पर निर्भर हो जाते। वेंटीलेटर ना  खरीदने के कारण ही आज घर-घर में देशी वेंटीलेटर और आईसीयू मौजूद हैं और जब-तब मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है, माउथ टू माउथ थेरेपी देकर उसे बचा लिया जाता है। इसी तरह यदि सरकार नए डॉक्टर, नए नर्स की भर्ती करती और नए अस्पताल बनाती, तो क्या मरीज़ घर में रहकर काढ़े और देशी उपचार को इस्तेमाल में लाते? जी नहीं, मरीज सीधे अस्पताल पर निर्भर होकर, अस्पताल में भर्ती हो जाते।

 डॉक्टर और नर्स भर्ती ना करने के कारण आज देश के हर घर में एकदम ठेठ डॉक्टर पैदा हो रहे हैं। किस बीमारी  में क्या दवाई देनी है? कैसे देनी है? कितनी देनी है? कब देनी है? यह इन्हें मालूम रहता है। घरों में कोरोना का इलाज भी इन्हीं ठेठ डॉक्टरों के हाथों से हो रहा है। मरीज को कब ऑक्सीजन देनी है? कितनी मात्रा में देनी है? कितने प्रेशर से देनी है? आदि के सम्बन्ध में इन देशी हाकिमों की चकित कर देने वाली अक्लमंदी और सूझबूझ को देखकर लगता है जैसे यह पलमोनरी (फेफड़ा) रोग के पेशेवर चिकित्सक हों। यही नहीं ओपीडी बंद होने के बाद इन घरेलू डॉक्टरों ने दिल, लीवर, गुर्दे, कैंसर, सांस के रोगों का उपचार भी घर में ही शुरू कर दिया है। 

वास्तव में, दुनिया में भारत इकलौता ऐसा देश है, जिसने इतनी तेज़ रफ्तार से डॉक्टर पैदा करने का खिताब हासिल किया है। यानी सरकार की दवाई व ऑक्सीजन के उत्पादन को कम रखने, डॉक्टर व अस्पताल की संख्या ना  बढ़ाने और ओपीडी को बंद रखने की योजना पूरी तरह से सही साबित हुई है। निस्संदेह, यह सरकारी जिद्द का ही परिणाम है कि आज देश स्वास्थ्य की दृष्टि से पहले से ज़्यादा आत्मनिर्भर हो चला है।

आत्मनिर्भर भारत के महायज्ञ के खिलाफ कुछ विपक्षी पक्ष के मरीज़ साजिशन पैरासिटामोल, रेमडेसिविर, फेबिफ्लू की दवाइयां, ऑक्सीजन सिलिंडर खरीद रहे हैं और वेंटीलेटर व अस्पतालों की सेवाएं ग्रहण कर रहे हैं। दरअसल, यह विपक्षी पक्ष के मरीज़ वास्तव में सरकार के आत्मनिर्भरता के इस पावन महायज्ञ में विघ्न डालना चाहते हैं। पर, इसमें घबराने वाली कोई बात नहीं है, क्योंकि लाखों-करोड़ों आत्मनिर्भर मरीजों की तुलना में अस्पतालों और डॉक्टरों के मोहताज मरीजों की संख्या बहुत कम ठहरती है। इसी तरह, कुछ लोग दुष्प्रचार कर रहे हैं कि सरकार आत्मनिर्भर भारत के महत्वाकांक्षी महामिशन को बंद करने वाली है। कहा जा रहा है कि सरकार नए वेंटीलेटर लगाएगी, डॉक्टरों और नर्सों की भर्ती करेगी, नए अस्पताल बनाएगी, नए ऑक्सीजन प्लांट लगाएगी, दवाइयों का उत्पादन बढ़ाएगी और इस मिशन को बंद कर देगी।

दरअसल, यह सरकार-विरोधी सोशल मीडिया गैंग है, जो सरकार को ट्रोल करने में लगा हुआ है। चलिए एक पल को मान भी लें कि सरकार ने ऐसी घोषणाएं कर दी हैं, लेकिन इसमें घबराने वाली बात क्या है? सरकार ने पहले भी सालाना दो करोड़ रोज़गार देने, सभी के खातों में पन्द्रह लाख रुपये जमा करने, सबका साथ-सबका विकास जैसी घोषणाएं की थीं, लेकिन हम तो अपने निकट अतीत से जानते ही हैं कि सरकार ने आत्मनिर्भर भारत के विकास में अवरोधक इन घोषणाओं को कभी पूरा नहीं किया। यानी इन कथित घोषणाओं को गंभीरता से ना लेकर, मात्र कूटनीतिक जुमले समझा जाना ही बेहतर है।

हालांकि, यह संभव है कि आत्मनिर्भरता के इस निर्दोष महायज्ञ में अनेक लोग शिकस्त खाकर स्वर्गगमन कर जाएं, लेकिन आप ही बताइए कि कोई महायज्ञ आहुतियों की विधिमान्यता के बिना संपन्न हो सका है भला? यही नहीं महायज्ञ में होम हुए मरीजों के परिजनों की गजब आत्मनिर्भरता भी देखते ही बनती है। मृतकों के शरीर को  शववाहन या एम्बुलेंस के जरिये उसके परिजनों के घर या शमशान तक लाया जाता है, लेकिन यदि मृतक के शव को मोड़-माड़कर ऑटो, रिक्शा, साईकिल या अकेला व्यक्ति कन्धों पर उठाता या घसीटता दिखे, तो इससे विचलित न होइएगा और इसे केवल आत्मनिर्भर भारत की पराकाष्ठा का विशुद्ध मनोरम दृश्य ही समझियेगा, आत्मनिर्भर भारत की पराकाष्ठा का विशुद्ध मनोरम दृश्य!

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