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तभी सुधरेंगे हालात, जब पुरुष भी करेंगे माहवारी के विषय में खुल कर बात

तभी सुधरेंगे हालात, जब पुरुष भी करेंगे माहवारी के विषय में खुल कर बात

माहवारी एक ऐसा मुद्दा है, जो सदियों से आज तक हमारे समाज में शर्म,  झिझक और सामाजिक-धार्मिक रुढियों की चादर में लिपटा हुआ है। हर महीने, हर महिला को (किशोरावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक) 3 से 5 दिनों तक इस प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, बावजूद इसके ज़्यादातर लोग इस विषय में बात करने या अपनी राय जाहिर करने से कतराते हैं।

दो साल पूर्व ऑस्कर अवॉर्ड विनिंग फिल्म पीरियड : एंड ऑफ सेंटेंस की निर्माता गुनीत मोंगा का कहना है कि पुरुषों को भी मासिक धर्म से जुड़े हाइजीन पर खुल कर बात करनी चाहिए और इसे सामान्य रूप से ही लेना चाहिए।

हमें पीरियड्स(माहवारी) से जुड़ी मिथ्या और झूठी धारणाओं को त्यागना होगा और अब तक चले आ रहे इस कचरे को हटाना ही होगा। दरअसल, इस बेहद सामान्य सी प्रक्रिया को हमारे पित्तृसत्तात्मक समाज ने इतना जटिल और गूढ़ बना रखा है कि पुरुष तो छोड़िए, खुद महिलाएं भी आपस में इस बारे में बात करने से झिझकती हैं।

ऐसी स्थिति में झारखंड के कुछ युवाओं ने यह बीड़ा उठाया है कि वे माहवारी को सामाजिक रुढ़ियों के दायरे से बाहर निकाल कर उसे एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया के तौर पर स्थापित करके रहेंगे।

 माहवारी केवल महिलाओं का मुद्दा नहीं है

रांची में डेवलपमेंटल प्रोफेशनल्स का एक ग्रुप है, जिसमें सात्विक मिश्रा, राकेश सिंह, अभिनव किशोर, विश्वजीत कुमार और विशम्भरनाथ नायक आदि हैं। इन सबने एक साथ मिल कर Men 4 Menstruation (M4M) नामक एक डिजिटल कैंपेन की शुरुआत की है, जिसका उद्देश्य है लंबे समय से चली आ रही मेंस्ट्रुएशन से संबंधित भ्रांतियों और सामाजिक रुढ़ियों को तोड़ना और लोगों को खास कर पुरुषों तथा लड़कों को इस विषय में बात करने के लिए प्रोत्साहित करना।

 

इस मुहिम का लक्ष्य है माहवारी के मुद्दे पर आम जनमानस में जागरूकता फैलाना और झारखंड एवं आसपास के इलाकों में महिलाओ को इस विषय में समुचित शिक्षा देकर सशक्त बनाना। इस ग्रुप के एक सदस्य सात्विक मिश्रा का कहना है कि माहवारी केवल महिलाओं का ही मुद्दा नहीं हैं, बल्कि यह एक पुरुष की भी ज़िम्मेदारी है कि वह महिलाओं( अपने परिवार, पत्नी एवं सहकर्मी) को पीरियड्स के समय कंफर्ट फील करवाएं।

हमें समाज में माहवारी जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जागरूक माहौल बनाने की ज़रूरत है

पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम क्षेत्र में पिछले चार वर्षों से अधिक समय से माहवारी स्वच्छता की दिशा में कार्यरत तरुण कुमार अपने साथ अब करीब 150+ वॉलटियर्स को जोड़ चुके हैं। ये सारे लोग गाँव-गाँव जाकर किशारियों और महिलाओं को मुफ्त सैनिटरी पैड्स वितरित करने के साथ ही माहवारी स्वच्छता तथा व्यक्तित्व संबंधी अन्य जानकारियां भी देते हैं।

कभी यूनिसेफ के साथ काम कर चुके तरूण बताते हैं कि पिछले साल जब लॉकडाउन लगा, तो किशोरियों और महिलाओं के समक्ष सबसे बड़ी समस्या आई सैनिटरी पैड्स खरीदने की। जो बच्चियां सैनिटरी पैड यूज़ करती थी, उनके पास पैसे होते हुए भी वे उसे खरीद नहीं पा रही थीं।

शहरों में दुकानें बंद होने की वजह से गाँवों तक समुचित सप्लाई भी नहीं पहुंच पा रही थी। ऐसे में हमें दूर-दराज के गांवों से भी किशोरियों ने संपर्क किया, जहां हम कभी गए ही नहीं थे। तब हमने तय किया कि इस समस्या को दूर करने के लिए हमें कुछ-ना -कुछ करना होगा।

तरुण कुमार

हमने व्यक्तिगत संपर्क और सोशल मीडिया के ज़रिये लोगों से अपील की कि वे एक महीने में मात्र 30 रुपये डोनेट करें, ताकि हम एक बच्ची को सैनिटरी पैड्स उपलब्ध करवा पाएं।  हमारी इस अपील का नतीजा यह हुआ कि हमने करीब 70-80 हज़ार रुपये कलेक्ट कर लिए फिर प्रशासन से अनुमति लेकर गाँव-गाँव में उन्हें बांटना शुरू किया। अब तक हम करीब 10 हज़ार किशोरियों और महिलाओं के बीच सैनिडरी पैड्स वितरित कर चुके हैं।

तरुण की मानें, तो वह एक बच्ची को एक बार में तीन से चार महीने का सैनिटरी पैड कोटा देते हैं, लेकिन आगे एक साल तक वे बच्चियां उनसे जुड़ी होती हैं। इस दौरान वे उन बच्चियों को स्व-बचत द्वारा खुद सैनिटरी पैड खरीदने और घर-परिवार में उनकी इस ज़रूरत के लिए अनुकूल माहौल बनाने का प्रयास करते हैं।

सैनिटरी पैड्स के डिस्पोजल को लेकर कई पर्यावरणविद पिछले कुछ सालों से लगातार सवाल उठा रहे हैं। तरुण ने इस समस्या का हल ढूंढा एक पैड, एक पेड़  योजना की शुरुआत की। इसके तहत हर किशोरी को हर महीने एक पैकेट पैड यूज़ करने के बाद एक पेड़ लगाना होता है ताकि आज इसकी वजह से पर्यावरण का जो नुकसान हुआ है, कल उसकी भरपाई हो सके।

तरुण कुमार

तरुण का कहना है कि सैनिटरी पैड्स से लाख गुना अधिक प्रदूषण कल-कारखानों, वाहन आदि से फैलता है, लेकिन उनको लेकर इतना बवाल कभी नहीं मचता, जितना पिछले कुछ सालों से सैनिटरी पैड्स के डिस्पोजल को लेकर मचा है।

यह महिला स्वास्थ्य की अनिवार्य ज़रूरत है, इसलिए हम पूरी तरह से इस पर पाबंदी नहीं लगा सकते हैं। हां, उसके डिस्पोजल की समस्या के प्रभाव को कम करने के लिए कुछ उपाय ज़रूर कर सकते हैं।

इसके अलावा, तरुण ने ग्रामीण क्षेत्रों में माहवारी स्वच्छता और लैंगिक संवेदनशीलता की दिशा में एक अनुकूल माहौल बनाने के लिए प्रोजेक्ट पैड ह्यमैन मुहिम की शुरुआत भी की है। इसके तहत उनकी कोशिश एक ऐसा माहौल विकसित करने की है, जहां ना सिर्फ महिलाएं आपस में, बल्कि वे पुरुषों के साथ भी माहवारी के मुद्दे पर खुल कर बातचीत कर सकें।

माहवारी के बारे में पुरुषों का बात करना बेहद ज़रूरी है

रांची से करीब 30 किलोमीटर दूर अनगढ़ा प्रखंड के गेतलसूद नामक गांव के निवासी आयुष पिछले दो साल से माहवारी स्वच्छता की दिशा में कार्य कर रहे हैं। एक पुरुष होकर भी माहवारी स्वच्छता की दिशा में काम करने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, इस बारे में आयुष बताते हैं कि मेरे पापा की एक ग्रोसरी शॉप है।

मैं भी कभी-कभी वहां बैठता हूं, उस समय मैंने महसूस किया कि अगर कभी वहां कोई महिला या किशोरी सेनेटरी पैड खरीदने आती, तो वो हमें उसे पेपर में लपेट कर देने के लिए कहती थीं। यह बात मुझे बड़ी अजीब लगती थी, क्योंकि मैं जानता हूं कि माहवारी एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है।

आयुष

फिर भी इस बारे में अभी तक जो सामाजिक झिझक बनी हुई है, उसकी एक बड़ी वजह शायद यही है कि इस विषय पर किशोर-किशोरियों को सही जानकारी नहीं दी जाती है। इसी वजह से मैंने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिल कर स्कूलेां में विजिट करना शुरू किया और वहां माहवारी स्वच्छता को लेकर  मिशन बबुनिया नामक जागरूकता अभियान चलाया।

आयुष बताते हैं कि अब तक उनकी टीम मेंस्ट्रुअल हाइजीन के विषय पर करीब 10 हज़ार स्कूल स्टूडेंट्स की काउंसलिंग कर चुकी है। हमारी कोशिश होती है कि ना सिर्फ लड़कियां, बल्कि लड़के भी इस मुद्दे पर खुल कर बात करें।

अगर उनके मन में कोई सवाल है, तो वे बेझिझक होकर हमसे पूछें। मुझे लगता है कि जब तक लड़के-लड़कियां दोनों लैंगिक मुद्दों पर खुल कर बात नहीं करेंगे, तब तक हम लैंगिक रूप से एक संवेदनशील समाज नहीं बना सकेंगे।

आयुष, मिशन बबुनिया नामक जागरूकता अभियान में बच्चों के साथ

वर्तमान में करीब 300 किशोरियां नियमित रूप से हमारे साथ जुड़ी हुई हैं, जिन्हें हम हर माह फ्री सैनिटरी पैड्स मुहैया करवाते हैं। इसके लिए हम साल में एक बार रांची या अन्य किसी बड़े शहर में कैंप लगाते हैं और वहां से फंड रेजिंग करके गांवों में किशोरियों और महिलाअेां की मदद करते हैं।

इसके अलावा, आयुष और उनकी टीम  राची, गुमला और धनबाद में ज़रूरतमंद बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैया करवाने का काम भी करती है। आयुष की मानें, तो इस काम में उन्हें अपनी फैमिली का फुल सपोर्ट मिलता है और वे लोग उन्हें आइडिया भी देते रहते हैं कि अब आगे इस मुहिम को कैसे और किस दिशा में बढ़ाना चाहिए।

 वैचारिक तथा व्यवहारिक स्तर पर बदलाव की है ज़रूरत

मूल रूप से बिहार के मधुबनी ज़िला निवासी मंगेश झा पिछले कई वर्षों से ‘पैडमैन ऑफ झारखंड’ के नाम से जाने जाते हैं। माहवारी स्वच्छता की दिशा में उनका मुख्य कार्यक्षेत्र रांची के आसपास के इलाके मसलन- जोन्हा, तमाड़, हुन्डर, बुंडू आदि हैं।

मंगेश की मानें, तो उनका मुख्य फोकस उन इलाकों पर है, जहां अभी भी पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ना  केवल माहवारी, बल्कि जल-संचयन, प्राथमिक शिक्षा और मासिक राशन सुविधा मुहैया करवाना भी उनकी मुहिम का प्रमुख हिस्सा हैं।

मंगेश झा

मंगेश कहते हैं कि पिछले साल लॉकडाउन से लेकर अब तक हमने विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं तथा धात्री माताओं को सैनिटरी पैड्स मुहैया करवाया है, क्योंकि नेशनल फैमिली सर्वे की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश की महिलाओं में एनिमिया की समस्या सबसे ज़्यादा है। इसकी वजह से ही आज भी मातृ मृत्यु दर और बाल मृत्यु दर की सूची में हम निचले पायदान पर हैं।

हमारी कोशिश है कि हम ना सिर्फ विचार के स्तर पर, बल्कि व्यवहार के स्तर पर भी बदलाव ला सकें। घर के अन्य सामानों की तरह सैनिटरी पैड्स को भी मासिक राशन की एक अहम ज़रूरत बना सकें।

यह भी जानें

दिल्ली के अंशु गुप्ता द्वारा गठित स्वयंसेवी संस्था गूंज भारत के कई गांवों में माहवारी पर चुप्पी तोड़ो बैठक कराती है। इनमें गांव की महिलाएं माहवारी से जुड़े अपने अनुभव साझा करती हैं। यहां उन्हें सेनेटरी पैड की अहमियत के बारे में बताया जाता है।

यह बैठक माहवारी से जुड़ी शर्म और चुप्पी को हटाने का एक ज़रिया है ताकि महिलाएं अपनी सेहत को माहवारी से जोड़ कर देख सकें और इस विषय पर नि:संकोच अपनी बात रख सकें।

यह एनजीओ शहरों से प्राप्त कपड़ों से महिलाओं के लिए सूती कपड़े के सैनिटरी पैड बनाता है। इन्हें देश भर के गांवों में माहवारी डिग्निटी पैक्स के रूप में बांटा जाता है। एक किट में 10 कपड़े के बने सैनिटरी पैड के साथ-साथ महिलाओं के लिए अंडर-गारमेंट्स भी रखे जातें हैं।

ये डिग्निटी पैक्स उन महिलाओं के लिए एक बड़ी राहत होते हैं, जिन्हें माहवारी के दौरान एक कपड़े का टुकड़ा भी नहीं मिल पाता है।अंत में किशोरावस्था में पीरियड्स की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए मेंस्टुपीडिया Menstrupedia (पीरियड की समस्या को सुलझानेवाला एक फ्रेंडली गाइड) की लेखिका मिस अदित गुप्ता का मानना है कि माहवारी को अब तक लड़कों से छुपाया जाता रहा है। इसी वजह से वे इस संदर्भ में पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं।

उन्हें माहवारी संबंधी परिचर्चा में आप आप जिस दिन से शामिल  करेंगे, चीज़ें अपने आप बेहतर होने लगेंगी और लड़कियों के प्रति हमारा समाज भी खुद-ब-खुद संवेदनशील हो जायेगा।

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