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हमने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए पृथ्वी के अस्तित्व को संकट में ला दिया है

हमने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए पृथ्वी के अस्तित्व को संकट में ला दिया है

बचपन में ऐसा लगता था कि विश्व के शक्तिशाली देशों के पास, वो हर प्रकार का सामर्थ्य है, जिससे वो जो चाहें कर सकते हैं और मुझे ऐसा विचार इसलिए आया, क्योंकि हमें विकसित, विकासशील तथा अल्पविकसित देशों में फर्क समझाया गया है। विकसित देशों में अमेरिका, यूरोपियन देशों को रखा गया, जबकि विकासशील देशों में भारत तथा चीन जैसे देशों को, वहीं अल्पविकसित देशों में भूटान तथा अफ्रीकन देशों को रखा गया है। इस वर्गीकरण के लिए विश्व के सकल देशों के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) , बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आधारभूत संरचना जैसे मापदंड महत्वपूर्ण रहे।

आज जब कोरोना का यह भयावह संकट पूरी दुनिया में आया है, तो सबसे ज़्यादा इस की भयावहता से परेशान और जूझते हुए विकसित देश यथा अमेरिका, यूरोपियन देश दिखे, उसके बाद विकासशील देश यथा भारत, ब्राज़ील तथा अन्य इसकी भयावहता का शिकार हुए। वहीं अल्पविकसित देश यथा भूटान तथा अफ्रीकन देशों की स्थिति कोरोना की भयावहता में ठीक दिखी।

अब अगर हम इसका तुलनात्मक अध्ययन करें, तो यह देखेंगे कि इस बीमारी के पीछे चाहे जो कारण दिए जाएं, परंतु अगर क्रमवार ढंग से देखें, तो कहीं ना कहीं प्रकृति के प्रति जो हमारा बीते 100 सालों में रवैया रहा है। आज हम उसी का उसी प्रकार खामियाजा भुगत रहे हैं।

हमारे स्वार्थ एवं लालच ने प्रकृति का निर्मम दोहन किया है 

एक देश वहां के संवैधानिक नियमों पर चलता है, वैसे ही हमारी प्रकृति के भी कुछ मानक नियम होते हैं। हमे अपने स्वार्थ और लालच की पूर्ति हेतु उनका अनादर नहीं करना चाहिए। संवैधानिक नियमों के उल्लंघन पर हमारे लिए दण्ड का प्रावधान रहता है, वैसे ही प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने पर मानव जाति के लिए प्रकृति के भी दण्ड प्रावधान हैं। इसलिए प्रकृति से हमें ऐसा दण्ड मिला है, जिसकी हम सभी ने अपने जीवन में कल्पना भी नहीं की थी। आज विकसित और विकासशील देशों की भले कितनी भी बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था रही हो, लेकिन विश्व के सब देश इस बीमारी के आगे नतमस्तक ही रहे।

प्रकृति ने हमें एक सुंदर पृथ्वी दी है और जीविकोपार्जन सम्बन्धी सामग्री भी, परंतु फिर भी हम अपने स्वार्थ एवं लालच की पूर्ति हेतु उसके खिलाफ जाकर कार्य करने का प्रयास करते रहते हैं।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार बेशक ना हो, परन्तु भावनात्मक आधार अवश्य है। आज से 20 वर्ष पूर्व जब मैं अपने गाँव में जब सुबह उठता था, तो मानो लगता था कि स्वयं प्रकृति ने मुझे अपनी गोद में उठाकर बोला हो, बेटा उठ जा सुबह हो गई है। आज भी मैं उसी गाँव में हूं और मुझे सुबह उठने के लिए अलार्म लगाना पड़ता है।

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