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पी.पी की आवाज़ करती एम्बुलेंस आखिर क्या सोचती है?

पी.पी की आवाज़ करती एम्बुलेंस आखिर क्या सोचती है?

1487, में जब प्रथम बार रोगीवाहन (ambulance) का इस्तेमाल हुआ होगा, तब यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन दुनिया भर में इसके इस्तेमाल के लिए लोग बाध्य हो जाएंगे। इस महामारी में इसका इस्तेमाल कुछ ज़्यादा होने भी लगा है। पहले पी पी की धुन सुनाई देती थी, तो दिल थम जाता था। ऐसा लगता था कि कहीं कोई बुरी घटना घटी होगी।

अगर घर के पास जा रही हो, तो रास्ते में अपने परिवार की चिंता भी होने लगती थी, लेकिन अब ये धुन किसी रोमांटिक गाने की तरह हो गई है। जरा सोचिए कि वो 18 साल का लड़का जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी है, उससे रोगीवाहन चलाने वाले और उनके साथ अन्य मौजूद लोग उस बच्चे को कह रहे हैं कि अपने पिता का शव उठाओ, हमें आगे जाना है। शायद किसी हिंदी फिल्म में इसकी कल्पना की जा सकती थी और बाद में वही हीरो बनकर बदला लेता, लेकिन इस महामारी में यह सच्चाई है।

मेरे पिता कों अभी एक महीने पहले ही दिल में दर्द की शिकायत हुई, मैंने एम्बुलेंस बुलाई जब पिता जी को हम अस्पताल ले जा रहे थे, तो 15 मिनट जाम में फंसे रहे।  उनकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन अपनी आंखें बंद करके एम्बुलेंस की पी पी ज़रूर सुन रहा था। जब अस्पताल पहुंचे, तो लेने से मना कर दिया फिर दुबारा आपको वही सफर करना था, पिता जी को दवा देकर सही कराया गया। जब मैं रास्ते में था, तो कई छोटी और बड़ी एम्बुलेंस आगे निकली मानो मुझे चिढ़ा रही हों, लेकिन फिर भी ये नेताओं के ट्विटर पे दिखने वाली सुंदर दुनिया अंदर से कितनी परेशान है इसको महसूस किया।

आजकल हरा गलियारा (green corridor ) बनाया जाता है, जिसके कारण गंभीर मरीजों को कम समय में अस्पताल पहुंचाया जाता है। जहां समय रहते उनको बेहतर इलाज मिल सके, लेकिन आज के समय में अस्पताल जाने पर भी मरीज़ को वापिस भेज दिया जाता है। किन्तु, उस सुंदर एम्बुलेंस का सोचिए कि उसके मन में क्या बीतती होगी और आखिर क्या सोचती होगी? वो जब एक मरीज़ को ज़िन्दगी हारते हुए देखती होगी। कई बार खुद को सबसे बड़ा दोषी मान कर शायद पेट्रोल पीना छोड़ देती होगी या मन बना लेती होगी की जंतर मंतर पर जाकर क्रांति लाई जाए।

अगर एक दो लाठी पुलिस की पडती भी है और अगर एक दो बत्ती टूट भी जाती है, तो सरकार से मुआवजा मांग लिया जायेगा। अब क्या करें ! एम्बुलेंस तो निर्जीव है, कुछ नहीं कर सकती, लेकिन जो राजनेता जीवित होकर भी निर्जीव बने रहते हैं और फिर बयानबाजी करते हैं कि सब ठीक है क्या अपने आपको माफ कर पाएंगे?

एम्बुलेंस के आविष्कार होने के इतने दिन बाद भी क्यों मरीज़ो के परिजनो को उन्हें कंधे पर उठा के अस्पताल ले जाना पड़ रहा है? क्यों 17 साल के बेटे कों अपने मृतक बाप का शव और 46 साल के बाप को अपने बेटे का शव ढोना पड़ रहा है? क्या इसका कोई जवाब नहीं है, जनाब? और ज़्यादा कौन बनेगा करोड़पति खेलोगे, तो जेल में  डाल दिए जाओगे फिर अपनी कॉलेज मे सबसे सुंदर दिखने वाली लड़की के लिए जो साहित्य की कला अपने किताबों के पीछे लिखी थी, वो जेल की दीवारों पर लिखना।

सिर्फ संवेदनाएं देने से क्या किसी का अपना वापिस आ जाता है? जब वही एम्बुलेंस गंगा के पास से गुज़रती होगी, तो सोचती होगी उन लाशो कों तैरते हुए देखकर कि ये तो मुझसे भी बदनसीब हैं या फिर बदनसीब तंत्र के शिकार हैं। उसको सिर्फ पी-पी करके लोगो को रास्ते से हटाना है, अगर उसके पी-पी के साथ पो-पो करने से सिस्टम सुधर पाता, तो ज़रूर कानों को वो मोहम्मद रफी साहब के दर्ज़े का सुकून दे पाता, लेकिन ये भारत है, यहां दूध में पानी, बेरोजगारी मे जवानी, और ट्विटर पर कहानी की आदत पड़ चुकी है। 

एक अस्पताल के पास खड़ी एम्बुलेंस

 

विशाल झा
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