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“आखिर कब खत्म होगा एक-दूसरे से मजहबी घृणा करने का दौर?”

आखिर कब खत्म होगा, यह एक-दूसरे से महजबी घृणा करने का दौर

पाकिस्तान चले जाओ, यहाँ क्या कर रहे हो? इस वाक्य को आप “डायलॉग ऑफ द डेकेड” कह सकते हैं। अभी कुछ देर पहले मैं शबनम विरमानी की डॉक्यूमेंट्री देख रहा था। हिंदू-मुस्लिम समाज के बर्ताव पर यह  डॉक्यूमेंट्री बनाई गई है।

मैं एक मुसलमान की नज़र से बताऊं, तो हालात कुछ ठीक नहीं हैं। देश अब दो धड़ों में बट चुका है। एक धड़ा वो है, जो कुंभ मेले को कोरोना का सुपर स्प्रेडर मानता है। वहीं एक ऐसा धड़ा भी है, जो तबलीगी जमात को कोरोना का अब्बा मानता है। मुझे अपवाद ना गिनाइये। अपराधी, गद्दार, रेपिस्ट आदि मुसलमानों में भी उतने ही हैं जितने अन्य धर्मों में। यह मनुष्यों की खामियां हैं। इन्हें मज़हब से जोड़ कर एक पूरी कौम को खारिज करना अपराध जैसा ही है।

वर्ष 2014 में, जब से सत्ता में बीजेपी आई है, मुसलमानों में असहिष्णुता आ गई है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा  हूं, क्योंकि जब भी कोई मुसलमान मोहल्ले से गुज़रता हूं या अपने ही रिश्तेदारों से मिलता हूं, तो सारे लोग राजनीतिक विशेषज्ञ बनकर मुझे बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी में क्या खामियां हैं। अगर मैं जरा सा कुछ मोदी जी के सर्मथन में बोल दूं, तो मुझे खुदा बचाए। राम मंदिर, नागरिकता कानून, तीन तलाक, भारतीय मुसलमानों ने इनको अपने से जोड़कर देखा और शायद ये उनके लिए हैं भी।

खैर, वापस विषय पर आएं, तो बीजेपी ने ज़रूर नफरत की राजनीति खेली है। मोदी जी हिंसा करने वालों को उनके कपड़ों से पहचानते हैं। शाहीन बाग पाकिस्तान का हिस्सा कब बन गया और हमें पता ही नहीं चला। लेकिन, क्या सिर्फ एक पार्टी से  देश का देश का  माहौल खराब होता है? 15 मिनट खुला छोड़ दो फिर बताते हैं, यह छोटे ओवैसी का बयान है। इस देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक है। यह कहा था पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने इसको सेकुलर का दुपट्टा क्यों पहना दिया जाता है? सही को सही और गलत को गलत, आजकल धर्म देख कर डिसाइड किया जाता है।

कई लोग मुझे प्रोग्रेसिव मुसलमान का तमगा देते हैं। पर,यह तो कॉमन सेंस है। कबीर जैसे करुणावान, लेकिन कटु सत्य बोलने वाले महात्माओं को तो आज हम एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। उन्हें जीने भी नहीं देते हैं। आज गौरक्षा के नाम पर हिंसा पर अच्छे लहज़े में कुछ कहा, तो उसको मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम दे दिया जाता है।

ठीक इसी तरह भूल से भी आपने भारतीय परंपरा का ज़िक्र किया, तो इसे “हिंदू तुष्टिकरण” का नाम दे दिया जाएगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमने उदारता, तटस्थता और अनेकांतता के नज़रिए से विचारों और घटनाओं को देखना बंद कर दिया है। कबीर जैसे संतों के कंधे पर बंदूक रखकर, एक समुदाय को निशाना बनाना वैसा ही होगा जैसे डेविल बाइबल लिखना(शैतान ख़ुद लिखता है)।  इसलिए ज़रूरी यह है कि अपने अंदर पनप रहे शैतान को बाहर निकालकर भगा दीजिए।

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