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कविता : सफेदपोश राजनेता और आम आदमी

कविता : सफेदपोश राजनेता और आम आदमी

वो खेलते रहे आंकड़ों के खेल सरेआम
हम अपने आंकड़े बताने में लगे रहे

वो एक के बाद एक हमारे अपनों को मारते रहे
हम बेचैन, शमशानों, कब्रिस्तानों में जगह ढूंढते रहे

वो बेखबर कर अपनी उपलब्धियां गिनाते रहे
हम बेबस, बेसहारा अपने दर्द को छिपाते रहे

वो हमारे अपनों को बोरे में सिलते रहे
हम उनकी आखिरी झलक पाने को तरसते रहे

वो आर्थिक पैकेज का ऐलान करते रहे
हम बिन पानी, बिन दाने मरते रहे

वो बुलेट ट्रेन बनाते रहे
हम सड़कों पर चल, पैरों में छाले बनाते रहे

वो अपने आलीशान बंगले बनाते रहे
हम एक झोपड़ी को तरसते रहे

वो सूरज की गर्मी से बचते रहे
हम चूल्हे की भट्टी में तपते रहे

वो फाइव ट्रिलियन इकोनॉमी बनाते रहे
हम अपनों के कफन बनाने को तरसते रहे

वो जब-जब अपने हालात सुधारते गए
हम तब-तब अपने हालात बिगड़ते देखते रहे

वो जब-जब महंगी गाड़ियां खरीदते रहे
हम तब-तब अपनी टूटी साईकिल बेचते रहे

वो हमें इंसान मानने से इनकार करते रहे
हम मुसलसल अपनी इंसानियत दिखाते रहे।

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