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इस सरकार को गरीब मध्यमवर्गीय का मोल नहीं

This government does not get the support of the poor middle class

This government does not get the support of the poor middle class

गरीब और मध्‍यमवर्गीय लोग इस मंदी, आर्थिक आपातकाल, कोरोना और लॉकडाउन से जन्मे संकट की घड़ी में वर्तमान सरकार से यही उम्‍मीद करते रहे कि सरकार अब इस महंगाई और बेरोजगारी रूपी नरक से आजाद करायेगी या कुछ ऐसा कर देगी जिससे गरीब एवं मध्‍यमवर्गीय लोगों को कुछ राहत मिलेगी। लेकिन सरकार इतनी चतुर है कि वह राज्‍य से खुद का ही कल्‍याण करवाती रहती है। जब गरीब एवं मध्‍यमवर्गीय लोगों को इस आर्थिक आपातकाल में बेरोजगारी और महंगाई से राहत की जरुरत है तो सरकार बेरोजगारी और महंगाई से अपना मुँह मोड़ के पिछले सरकारों और अन्तर्राष्ट्रीय कारण बता के मुँह फेर ले रही है। गरीब और मध्‍यमवर्गीय लोगों के कल्याण की जगह वह पूँजिपतियों के कल्याण में विश्वास रखती है इसीलिए उसने कल्‍याण की परिभाषा कर दी है कर्ज।

मोदी सरकार ने कानों को अच्छा लगने वाला 20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज दिया था। जो अधिकतम कर्ज लेने पर आधारित था। सरकार को यह बात क्यों समझ नहीं आ रही है कि जब गरीब और मध्‍यमवर्गीय इस आर्थिक आपातकाल के दौर में टूट गया है तो वो कहाँ से कर्ज लेकर आत्मनिर्भर बनेगा। अगर कर्ज लेगा भी तो मुद्रा योजना की तरह भारी मात्रा  में NPA हो जायेगा। सरकार को इस संकट की घड़ी में आम आदमी को सीधे फायदे देने की जरुरत है ना की कर्ज। सरकार ने बड़ी चतुराई से शोषण को मेहनत और विलासिता को ईश्‍वर की कृपा घोषित कर दिया है। इस व्‍यवस्‍था की चरम परिणीति यह है कि हर वंचित आदमी अपनी वंचना के लिए खुद को दोषी समझता है। उसके साथी उसी को निकम्‍मा या अभागा समझते हुए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खामोशी से अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहना ही गुलामी है। अगर हम सब चुप है और सरकार से इस आपातकाल में राहत न माँग रहे है तो हम सब गुलाम हैं। गुलामों के जिस्‍म का मोल होता है, जिंदगी का नहीं। इसलिए ऐसी सरकारें लोकतंत्र के लिये खतरा है जो आपके साथ संकट में भी नहीं खड़ी  है।

कोरोना संकट के नाम पर संस्था को काम ना होने या नया काम ना मिलने के नाम पर अधिकांश संस्थाओं के द्वारा काम करने वालों को या तो सैलरी नहीं दी जा रही, या तो काट कर कुछ हिस्सा दिया जा रहा इसके बाद तेजी से छटनी करके शेष बचे कर्मचारियों से अधिक या कहें की दुगुना काम लिया जा रहा है। क्योंकि संस्थाओं द्वारा छटनी का डर दिखा कर दोगुना से ज्यादा मेहनत कराई जा रही है और सैलरी भी काटी जा रही है। जिससे संस्थाओं के मालिक द्वारा सैलरी ना देकर, सैलरी काट कर या छटनी करके अपने आमदनी और बैंक बैलैंस को बरकरार रखने में कामयाब हो जा रहे है। लेकिन मध्यमवर्गीय लोग खर्च कम करने के बाद भी अपनी जमा पूँजी खर्च करने को मजबूर हो रहे है। क्योंकि इनके पास किसी की सैलरी काट कर या नौकरी से निकाल कर मुनाफा बरकरार रखने का साधन नहीं है।

एक मध्यमवर्गीय परिवार जो किसी महानगर में किराये के मकान में रहता है, मकान या कार की EMI देता है , बच्चों की फीस देता है , घर का खर्च उठाता है, गाँव में बूढ़े माँ बाप को खर्च भेजता है उसे लगातार कई महीनों तक सैलरी काट कर दी जाय या नहीं मिले या नौकरी से निकाल दिया जाये उसके ऊपर क्या बीतेगा, कैसे संभालेगा अपने आप को अपने परिवार को, अपने जिम्मेदारियों को इसके पास क्या रास्ता बचता है एक बार आप अपने आप को इस स्थिति में रखकर सोचों क्योंकि गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों के लिये वर्तमान सरकार कुछ नहीं सोच रही है।

उनके ऊपर क्या बीतेगी जिसे कोरोना काल में महीनों से सैलरी कट के मिल रही हो और फिर नौकरी से निकाल दिया जा रहा है।  जिसकी माली हालात सैलरी कट के मिलने से पहले से ही खराब हो चुकी है और अब नौकरी भी नहीं है जो पैसा मिल रहा था वो भी नहीं मिलेगा और ना जाने कब तक नौकरी भी नहीं मिलेगी सोचों उसके ऊपर क्या बीतती होगी और क्या सोचता होगा? मध्यमवर्गीय लोगों की हालत तो दिनप्रति दिन खराब होती जा ही रही है। जो लोग गरीबी रेखा के अंतर्गत आते थे वो भुखमरी के कगार पर पहुँच गये है क्योंकि उनके पास कुछ बचा ही नहीं है ना ही उनके पास रोजगार बचा है।

इस संकट की घड़ी में अपने भाई-बहन, दोस्त-मित्र, रिश्तेदार और पड़ोसी जिनकी नौकरी छूट गयी हो या सैलरी नहीं मिल रही हो उनका ध्यान रखना होगा और इस आर्थिक तंगी में उनकी हर सम्भव मदद करनी होगी। क्योंकि वर्तमान सरकार को आम आदमी की चिंता से ज्यादा उद्योगपतियों की चिंता है इसलिये सरकार द्वारा उद्योगपतियों को लगातार रिबेट पर रिबेट दिया जा रहा है और आम आदमी को सरकार की तरफ़ से तेजी से बढ़ती महंगाई का तोफा दिया जा रहा है। आम आदमी महंगाई की मार झेल रहे है इसलिए हर दिन आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या जैसी खबरें तेजी से आ रही है। लेकिन वर्तमान सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।  

इस महामारी में एक बात समझ आई है कि जो चाह के कुछ नहीं कर सकता है वो है मध्यम वर्ग क्योंकि इस महामारी में आम दिनों से ज्यादा या कहे की दोगुना काम करने के बाद भी उसे आम दिनों से कम सैलरी दी जा रही, काम दोगुना करने के बाद भी सैलरी काट के दी जा रही है, संस्थानों के मालिक इस आपदा को अवसर बना रहे है उनकी आमदनी कम न हो लगातार अपने कामगारों की सैलरी काट रहे है या नहीं दे रहे है। इसके बाद भी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे नौकरीपेशा आदमी मजबूरीवश लगातार काम किये जा रहा है। नौकरीपेशा आदमी की मज़बूरी हो सकती है जिम्मेदारियों की इसलिए वो कुछ नहीं बोल पा रहा है लेकिन वर्तमान सरकार की क्या मजबूरी है कि वो भी कुछ नहीं बोल रही है?

कोरोना संकट काल में भी आये दिन महंगाई आसमान छू रही है, डीजल पेट्रोल के दाम प्रतिदिन बढ़ रहे है। घरेलु गैस का दाम लगभग हर हफ्ते ही बढ़ जा रहा है. बेवजह यात्रा करने वालों पर रोक और भीड़ कम करने का वाहियात तर्क देते हुये मोदी सरकार ने पैसेंजर ट्रेनों का किराया 2 से 3 गुना कर दिया. पैसेंजर ट्रेनों से गरीब और मध्यमवर्ग के लाखों नौकरीपेशा लोग प्रतिदिन अपने छोटे काम धंधे पर इन ट्रेनों से जाते है. सरकार द्वारा जान बूझ कर बढाई गयी महंगाई और लॉकडाउन के कारण  सैलरी ना मिलने, कटने या नौकरी से निकाल देने के कारण मध्यमवर्गीय लोगों को बहुत बड़े आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है और लोग आर्थिक तंगी न सहन कर पाने पर आत्महत्या जैसे कदम तेजी से उठा रहे है।

बेरोजगारी के कारण हो रही आत्‍महत्‍या के मामले में व्‍यवस्‍था को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। भारत आज भयानक मंदी के दौर में है। इस मंदी का सिलसिला नोटबंदी के साथ शुरू हुआ था, GST और अन्य सरकार के नीतिगत विफलता के कारण बढ़ता ही गया। आंकड़ों और खबरों की दुनिया रंगीन या गुलाबी हो सकती है, लेकिन हम सब अपनी जेबों में हाथ डालें तो पायेंगे कि वहां माल कम ही होता जा रहा है। कोरोना आने से पहले ही अर्थव्‍यवस्‍था मंदी के भवर में डगमगाने लगी थी और फिर कोरोना के आघात से सन्निपात हो गया और लगभग 24 फीसदी नकारात्मक हो गयी।

कितने बड़े पैमाने पर मजदूर वर्ग और मध्‍यम वर्ग की नौकरियां गई हैं, उसका कोई हिसाब ना तों हमारे पास है ना ही सरकारों के पास है। प्राइवेट सेक्‍टर में कितने कर्मचारी निकाले गये हैं, कितने का वेतन कटा है। कितनों की तरक्की होनी थी नहीं हुयी है।

नौकरी और काम काज के आभाव में जब खाने की कमी दिखाई पड़ने लगी और सरकार द्वारा कोई मदद ना मिल पाई तों प्रवासी मजदूर पैदल ही चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गाँवों की ओर चल दिये थे। जिसके कारण उन्हें दुर्घटना का शिकार होना पड़ा। इस बेपरवाह सरकार से प्रवासी मजदूरों के मौतों का आँकड़ा और उन्हें मुआवजा देने को कहा जाता है तों कहती है कि सरकार के पास आँकड़ा नहीं है तो मुआवजे देने का सवाल ही नहीं है। गाँवों में राशन की दुकान के बाहर पहली बार इतनी बड़ी संख्या में जमावड़ा शुरू हुआ था । क्‍योंकि इसके पहले वे मजदूर थे। जो किसी बड़ें शहर में कमा रहे थे लेकिन रोजगार ना होने के कारण भुखमरी से बचने के लिये वो पहली बार एक साथ गाँव की तरफ़ चल दिये थे उन्हें पता था वह भूखे नहीं मरेंगे। लेकिन अब गाँव में भी ज्यादा दिन तक वो बिना कमायें कैसे जीवन यापन करे उनके लिये अब भी वो समस्या मुँह खोले खड़ी है।

आम आदमी की आमदनी में इस कटौती के साथ खर्चे बहुत ज्‍यादा नहीं काटे जा सकते। मकानों के लोन जो बैंक से लिए गए हैं, वह चुकाने ही हैं। यानी यही हाल कार लोन का है। इसी तरह बच्‍चों के स्‍कूल की फीस है। अगर आदमी बेघर होता है तो बदनामी है, उसकी कार बैंक वाले उठा ले जाएं तो बदनामी है और बच्‍चों का नाम स्‍कूल से काट दिया तब तो वह अपनी ही नजरों में गिर जाएगा। मेडिकल इमरजेंसी आ जाए, जो कि आती ही है, तो उसका क्‍या होगा। क्‍योंकि नौकरी जाने के साथ उससे जुड़ा हेल्‍थ बीमा भी गया।

यह मध्‍यमवर्ग के वे सीधे सरल आर्थिक हालात हैं, जिनके लिए कोई व्‍यक्ति निजी तौर पर दोषी नहीं है। यह एक ऐसा समय है जिसमें वह कितनी भी मेहनत कर ले, लेकिन इससे उसकी नौकरी बचे रहने की कोई गारंटी नहीं है। यह आर्थिक आपातकाल है। इसमें कोई व्‍यक्ति निजी तौर पर कुछ नहीं कर सकता है अगर कोई कुछ कर सकता है तों सरकार, सरकार चाहे तों उद्योगपतियों की जगह रिबेट आम आदमी को दे सकती है।

ऐसे ही आर्थिक आपातकाल 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी जिसे “द ग्रेट डिप्रेसन” कहा जाता है उस पर अमेरिका में एक उपन्‍यास लिखा गया था: डेथ ऑफ ऐ सेल्‍समैन। उस उपन्‍यास का सार यही था कि सुनहरे भविष्‍य और आर्थिक तेजी की मनोदशा में जो लोग कामकाज में लगे थे और वह उसी हिसाब से अपने जीवन यापन के लिये आर्थिक गुणा भाग किए थे, वे मंदी में मारे जाते हैं। क्योंकि वे न खुद भीख मांग सकते हैं और न इस बात की कल्‍पना कर पाते हैं कि उनके बच्चें और प्रियजन उनकी नजरों के सामने दर दर की ठोकरें खाएंगे। उनकी सारी प्रतिभा बाजार (अर्थव्यवस्था) के मुनाफे की मोहताज होती है, अगर अर्थव्यवस्था चरमराई तों सबसे ज्यादा असर उन्हें ही पड़ता है। क्योंकि मजदूरी उन्‍हें आती नहीं। वे मजदूर या ब्‍लूकॉलर लोग नहीं होते, वे मध्‍यमवर्गीय लोग होते हैं। ऐसी मंदी उन्‍हें मौत के मुँह में धकेलती है। वे खुदकुशी या सदमे से मरते हैं, लेकिन उनकी खुदकुशी में व्‍यवस्‍था का पूरा हाथ होता है। एक तरह से व्‍यवस्‍था/सरकार उनकी हत्‍या करती है। एनसीआरबी रिपोर्ट, 2019 के अनुसार हर रोज 38 बेरोजगार और 28 विद्यार्थी आत्महत्या कर रहें है। लगभग हर 2 घंटे में 3 बेरोजगार खुदकुशी कर रहे।

आंकड़ों का विस्तार से अध्ययन करने पर पता चलता है कि वर्ष 2018 में रोजाना लगभग 35 बेरोजगार लोगों ने, 2017 में  लगभग 34 बेरोजगार लोगों ने और 2016 में ये 30 बेरोजगार लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर खुदकुशी किया था। बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करने वालों का यह आंकड़ा पिछले 25 सालों में सबसे अधिक है और इन 25 सालों में पहली बार बेरोजगार लोगों की आत्महत्या का प्रतिशत दहाई अंकों (10.1%) में पहुंचा है। यह आँकड़ा इस आर्थिक आपातकाल, कोरोना और लॉकडाउन से जन्मे संकट से पहले का जब वर्ष 2020 और वर्ष 2021 का आँकड़ा आयेगा तों वह और भी दुखदायी और कष्टदायक होगा।

 

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