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क्या है लक्षद्वीप पर समस्या?

समाचार पत्रों में लक्षद्वीप के अधिकारी प्रफुल्ल पटेल काफी चर्चा में हैं। जहां लक्षद्वीप की जनता प्रफुल्ल पटेल के निर्णयों के विरोध में सड़कों पर निकल आई है वही भाजपा की संरचना में भी दो तरह के स्वर लक्षद्वीप की धरती से निकल रहे हैं। बीजेपी लक्षद्वीप यूनिट के अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल के समर्थन में हैं वही सचिव मोहम्मद कासिम उनके कवायदो का विरोध करते नजर आए हैं । सचिव का कहना है कि वर्तमान अधिकारी को गुंडा एक्ट, लक्षद्वीप एनिमल प्रोटेक्शन एक्ट (लक्षद्वीप जीव संरक्षण अधिनियम) तथा लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण के गठन के संबंध में पुनर्विचार करना चाहिए। जानना बेहद दिलचस्प होगा कि प्रफुल्ल पटेल नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री कल में गुजरात के गृह मंत्री भी रह चुके हैं तथा अपने जनता विरोधी और कॉरपोरेट समर्थक होने के उनके इतिहास स्पष्ट है। परंतु यह सवाल अहम है कि सरकार किस प्रकार के परिवर्तन लाना चाहती है लक्षद्वीप में । पहले हम उन पक्षों को देखेंगे उसके उपरांत हम इसका विश्लेषण करेंगे।
1. गुंडा अधिनियम,जो घोषणा के साथ ही चर्चा में है मूलतः समाज विरोधी संरक्षण अधिनियम है। इसे सरकार लागू कर रही है।
2.कोस्टल इकोनॉमिक जोन(CEZ) तथा एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन(EEZ) में मत्स्य पालन पर रोक लगाना चाहती है ।
3. लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण की स्थापना का मसौदा तैयार किया गया है।
4. भूमि सुधार अधिनियम को लागू किया जाना है।

इस सारे नए आवेदनों के विश्लेषण में जाने से पूर्व लक्षद्वीप के भूगोल को जानना बेहद जरूरी है जिसका एक महत्वपूर्ण योगदान है यहां के आर्थिक और सामाजिक विकास में। लक्षद्वीप अरब सागर में स्थित एक आर्किपेलेगो(छोटे द्वीपों का समूह) है। 36 द्वीपों के समूह में केवल 10 द्वीपों पर ही लोगों का बसावट है। भारतीय क्षेत्रों में कोरल द्वीपों का एक समूह लक्षद्वीप में भी पाया जाता है जो समुद्र में कुछ खास तापमान और लवणता(salinity- amount of salt in 1000grams of water) पर ही जीवित रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां की आबादी लगभग 70000 के करीब है जिसमे 94% से ज्यादा सुन्नी मुसलमान संप्रदाय निवास करते हैं। परंतु,यह बताना भी महत्वपूर्ण होगा कि यहां को 90% से ज्यादा आबादी शेड्यूल ट्राइब के अंतर्गत आती है। अर्थव्यवस्था का मूल स्त्रोत नारियल और नारियल से जुड़े उद्योग व मातास्यपालन है। कमजोर भौगोलिक संरचना व कोरल द्वीप की पर्यावरणीय संवेदनशीलता को देखते हुए यहां बड़े उद्योगों का विकास निवासियों ने नहीं किया।
परंतु नए नियमावली में संशोधन के अंतर्गत लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण की स्थापना इस पूरे सामंजस्य को हिला कर रख देने वाला है। इस प्राधिकरण की स्थापना का मुख्य उद्देश्य सरकार यहां पर बुनियादी संरचना का विकास करना बता रही है जहां पर नए प्रकार के आर्थिक क्रियाकलापों का विकास हो सके । जिसके लिए सरकार ने ;
1. प्राधिकरण के गठन व उसकी संरचना के निर्माण का निर्णय पूरी तरह से ब्यूरोक्रेटिक(नौकरशाही) रूप में तैयार किया है। जिसमे प्रशासनिक अधिकारी के साथ शहरी विकास हेतु कॉरपोरेट को शामिल किया जाएगा तथा वहां के लोगों को स्थान नही दिया गया है।
2. खराब व अप्रचलित विकास को निर्धारित करने का अधिकार प्राधिकरण के पास होने से यह किसी भी प्रकार के स्थानीय लोगों द्वारा विकास को अवरुद्ध कर सकते हैं ।
3. यहां के भूमि के विकास के मॉडल में इसे रीयल एस्टेट के हिसाब से अनुकूल बनाना है। जिसको पूरा करने के लिए ट्रांसफरेबल डेवलपमेंट राइट(हस्तानांतरित विकास अधिकार) को मान्यता प्रदान की है। जिससे यह जमीन बाजार में बेचने खरीदने योग्य हो पाए और विदेशी पूंजी का निवेश आसानी से हो पाए। इससे व्यापक माइग्रेशन की समस्या भी उत्पन्न हो सकती है।
4. टूरिज्म के कारण पहले से पर्यावरणीय नुकसान व्यापक है परंतु इसके द्वारा इसे प्रश्रय दिया जाना वहां के पर्यावरण के लिए खतरनाक होगा।
इसे कार्य प्रयोजनों को सिद्ध करने हेतु यह आवश्यक हो जाता है कि लोगों के विरोध को पूरी तरह से कुचल दिया जाए क्योंकि लोगों की पुरानी धारणिया सामाजिक आर्थिक व्यवस्था को खत्म कर नई खतरनाक व्यवस्था का विरोध लाजमी है। इसके लिए सरकार ने “गैर सामाजिक संरक्षण अधिनियम” की व्यवस्था को लाने का निर्णय लिया है। जिसमे;
1. किसी भी व्यक्ति को बिना न्यायिक प्रक्रिया के 6 महीने से लेकर साल भर तक डिटेन किया जा सकता है।
2. इसके लिए सभी निर्णयों को लेने का अधिकार अधिकारियों के पास होगा।
यह अधिनियम एक अलग तौर पर प्रिवेंटिव डिटेंशन(निवारक निरोध) का काम करेगा। ऐसे सारे कानून UAPA, NSA,PSA के अंतर्गत लगाए जाते हैं। वही दूसरी तरफ नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2019 के रिपोर्ट की माने तो लक्षद्वीप का क्षेत्र अपराध मुक्त क्षेत्र है। यहां 2019 में मात्र 2 गंभीर मामले मौत और कल्पिबल होमिसाइड (सामूहिक निषेध) के सामने आए है। इसके अलावा यहां ड्रग ट्रैफिकिंग के एक भी मामले दर्ज नही है। वही दूसरी तरफ कुछ बीजेपी के आला कार्यकर्ता इसे आतंकवादी पनाह का अड्डा मान रहे हैं।

लक्षद्वीप ही एक मात्र ऐसा स्थान नहीं जहां राज्य इस प्रकार की नीति लागू कर रही है या ऐसे नियमों का क्रियान्वयन किया जा रहा है । इससे पूर्व में हम लगातार देखते आ रहे हैं कि चाहे तेलंगाना,झारखंड या छत्तीसगढ़ के संसाधन से भरे क्षेत्र हो या हिमालय क्षेत्र में सेब के बागान हो या असम के चाय के बागान हो। इन सारे क्षेत्रों को राज्य की दमनकारी नीतियों द्वारा वहां के संसाधनों को छिनने के साथ या तो लोगों को विस्थापित कर रहा है या उन्हीं की जमीन पर एक सस्ते श्रम के रूप में काम करने हेतु बाध्य कर रहा है। मार्क्सवादी भूगोलविद डेविड हार्वे नवउदारवाद को समझाते हुए बताते हैं कि साम्राज्यवादियों के लिए सिर्फ यह जरूरी नही की पूंजी का प्रसार हो अपितु यह भी आवश्यक है कि उस पूंजी पर कुछ खास हाथों द्वारा ही नियंत्रण किया जाए। इसमें यह आवश्यक हो जाता है कि लोगों को उनकी संपदा से बेदखल किया जाए व ज्यादातर पूंजी को अपने नियंत्रण में लाया जाए जिसे हार्वे “एक्युमुलेशन बाय डिस्पोसेशन”( अर्थात बेदखली द्वारा संचय) कहते है। इस प्रकार के विकास में मुख्य भूमिका वित्तीय पूंजी(शेयर, एफडीआई, एफआईआई) की होती है। देश के अंदर बढ़ता संसाधन संचय इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाता है कि मात्रा ऊपर के 1% लोगों के पास जीडीपी का 64% से ज्यादा बड़ा हिस्सा है और कोवीड कल में यह प्रक्रिया लगातार बढ़ी है। इस प्रकार की असामान्य प्रवृत्ति अमेरिका के भी अंदर 1980 के दशक में व्यापक रूप से बढ़ी थी। जिसके कारण देश में श्रम करने वाला वर्ग लगातार हसिए पर चला गया और भयानक बेरोजगारी फैली। यहां पर श्रम करने वाले केवल वह लोग नही थे जो फैक्ट्रियों में का रहे थे अपितु मध्यम वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसका शिकार हुआ। क्योंकि सरकारी नौकरियों में लगातार कटौती के साथ ही पब्लिक प्रॉपर्टीज को भी तेजी से निजी हाथों ने बेचा गया। यह पूरी प्रक्रिया भारत में देखने को मिल रही है वही कोरोना कल में तो यह प्रक्रिया और भी तेज हुई है। यहां पर हम अमेरिका का उद्धरण ले रहा हूं उसके पीछे कुछ कारण है हम यहां इंग्लैंड या फ्रांस का भी ले सकते थे। इसकी बड़ी वजह ये हैं कि भारतीय राज्य ने हमेशा ही भारत के लोगों को अमेरिका जैसे विकास की कल्पना करना सिखाया है और “हाउडी मोदी” के बाद जो प्रचार किया गया मानो भारत अमेरिका के समकक्ष बस बैठ ही गया। परंतु वह आधी सच्चाई थी पूरी सच्चाई ये है कि प्रोग्राम को चकाचौंध में भारत की अनेक आमूल संपदा का सौदा हो गया था।

बड़े पूंजीपति आधारभूत संरचना के विकास का हवाला देकर विकासशील देश जैसे भारत,ब्राजील जैसे देशों में दाखिल होते है और ऊपर से दिखाने के लिए देश की कंपनियों के साथ करार करते हैं या पीपीपी मॉडल(पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) जैसी संरचना के अंदर निवेश करते हैं। अर्थात जिससे भारत के अंदर मेक इन इंडिया कहा जा रहा है वह वाकई मेक इन इंडिया ही है ,पर मेड इन इंडिया नही है। ताकि लोगों का भरोसा सरकार से न उठ जाए इसके लिए सरकार कई प्रोजेक्ट के पीछे “पब्लिक ओन्ड”( जिसमे सरकारी पूंजी मालिकाना हक में होती है तथा विदेशी पूंजी का बड़ा भाग भी होता है) कंपनी जैसे शब्दों का उपयोग करती है। जैसा अभी कोरोना कल के दौरान हो रहा है। भारत के अंदर 4 महीने के अंदर 42 के स्थान पर 1320 लैब खोल दिए गए और जिस कंपनी,MolBio, आईसीएमआर( इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च) ने मान्यता प्रदान की है उसने जापान की कंपनी फुजीफिल्म और टोयोटा कॉर्पोरेशन से करार कर भारत के अंदर इन लैब्स को स्थापित किया है। अर्थात “स्टेट ऑफ आर्ट टेक्नोलॉजी” के आयात और अन्य उपकरणों के साथ इन विदेशी कंपनियों ने भारत के अंदर न केवल अपने लैब स्थापित किए अपितु अब उत्पादन केंद्रों की स्थापना भी कर रही है। बांकि आगे को कहानी के लिए हमारे 200 सालों की प्रत्यक्ष अंग्रेजी गुलामी गवाह है कि विदेशी कंपनियों ने देश की संपदा को किस प्रकार लूट के अपने देश का उत्थान किया था। रेल का विकास हो या उद्योग का विकास, उन्होंने अपने फायदे के लिए किया था और भारत के संसाधनों को गांव तक से खीच लाने के लिए किया था। कुछ ऐसा ही विकास आज भारत के अंदर बड़े बड़े हाईवे और एक्सप्रेसवे को बना कर किया जा रहा है।

कोई कह सकता है कि सड़क और रेल से तो विकास होता है तो मैं कोई बेतुकी या बेबुनियाद बात कह रहा हूं। पर गौर करिए 5000 की आबादी वाले पंचायत में जहां ज्यादातर लोग स्थानी जरूरतों को पूरा करने में स्वयं सक्षम है और साधारण संसाधनों के आधार पर अपनी जरूरतों तक पहुंच सकते हैं उस जंगल में इतने चौड़ी और बड़ी सड़कों की जरूरत किसे है? जिन्हे वहां से बड़े ट्रकों में भरके प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना है। पूंजी को हमेशा फैलने के लिए स्पेस की जरूरत होती है चाहे वह विजिबल(दृश्य) हो या इनविजिबल(अदृश्य_ जैसे कोरोना महामारी में वायरस के रूप में आया)। WTO जैसी संस्थाओं ने इस स्पेस को व्यापक और सरल बनाने का काम किया है। जिससे यह पूंजी सरलता से “इज ऑफ डूइंग बिजनेस” के द्वारा विकासशील देशों में प्रवेश कर सके। तभी माननीय नरेन्द्र मोदी जी हर एक डील से पहले इसे जरूर बोलते है कि कैसे सरलता से निवेश को बढ़ाया जाए जिससे देश में रोजगार बढ़ेगा और खुशहाली आएगी। पर माननीय प्रधानमंत्री कभी उन देशों के ब्योरा नही देते जहां ये नियम लागू किए गए को वहां पर कितनी बेरोजगारी और गरीबी व्यापक रूप से बढ़ी है। विदेशी पूंजी का एक बड़ा लक्ष्य,कैपिटल ओरिएंटेड सिटी प्लानिंग भी है। जिसमे एक खास प्रकार के शहर मॉडल को अपनाया गया है जो पूंजी के पुनरूत्पादन के लिए न केवल स्थान प्रदान करता है अपितु सटे क्षेत्रों में भी अपने प्रसार के लिए अवसर तलाश करता है। लक्षद्वीप में भी इस मॉडल को लागू करने के लिए लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण के स्थापना को मंजूरी दी जा रही है।बड़े शहरों को कंस्यूमरेबल और फैशनेबल गुड्स प्रदान करने का कार्य भी उन्ही जंगलों की खान खदान से होता हैं,जिसका एक मोटा हिस्सा विदेशी पूंजीपति खा जाते हैं और एक हिस्सा भारत के दलाल पूंजीपति, जिसमे भारतीय राज्य का कट निश्चित होता है। पिछले 73 सालों से आदिवासी क्षेत्रों से निकले वाले खनिज का कितना भाग वापस आदिवासियों को मिल पाया है? वो कल भी धूल फांक रहे थे आज भी फांक रहे है। तो यह विकास को कवायद खोखली और बेकार है।

इसके अलावा गुंडा अधिनियम के अंतर्गत प्रफुल्ल पटेल ने 100 से ज्यादा कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी जो सरकारी दफ्तरों में, मिड डे मील योजना में तथा शारीरिक शिक्षक के रूप में काम कर रहे थे उन्हें बाहर निकल दिया है । इसके अलावा प्रशासनिक नियमों द्वारा तटीय ट्रांसिट सुविधा हेतु केरल के बायपोर पर निर्भर ना रहते हुए मंगलोर(कर्नाटक) को उपयोग करने का निर्देश दिया है। जिससे की वहां के लोगों का अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आर्थिक संबंध टूट जाए।  वहां की स्थानीय डेयरी फार्म को बंद करके गुजरात में आमूल के आयात का निर्देश दिया है।
क्या हम ऐसा मानकर चल सकते हैं कि भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस बारे में पता भी होगा या उनके द्वारा लिया गया निर्णय बीजेपी सरकार के कैबिनेट के निर्णय से परे होगा। राष्ट्रपति को केंद्रशासित प्रदेश के अंदर निर्णय लेने की शक्ति संविधान नहीं देता है और जो भी निर्णय कैबिनेट का होता है उसे मानना उसकी बाध्यता होती है।
   इसके अलावा 94% मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र में बीफ को निषेध करना कहां से लोकतांत्रिक हो सकता है? लक्षद्वीप जीव संरक्षण अधिनियम के तहत गाय के काटे जाने पर प्रतिबंध लगाना कहां तक किसी के खाने के अधिकार को छीनने जैसा है यह हम सब भली भांति जन सकते हैं। परंतु इससे भी बड़ा मसला यह है कि सरकार का जीव संरक्षण का ध्यान उस समय कहां है जब बड़े देश अपने प्लास्टिक कचरों को हिंद महासागर में डाल के जा रहे हैं । दूसरी तरफ समुद्री खनन के कारण तटीय क्षेत्रों में लगातार सिल्टेशन(गाद जमाव) की समस्या उत्पन्न हो रही है और तटीय क्षेत्र अपरदन के कगार पर है। तेल के बहाव के कारण और प्रदूषण होने के कारण हजारों से ज्यादा समुद्री जीव समापन के कगार पर है और कई हजार हो चुकी है। परंतु ये “सिलेक्टेड जीववाद” मूलतः इस राज्य की इस्लामोफोबिया से निकल के आ रही है। जो मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक घोषित करने पर लगी हुई है। परंतु यह मार केवल सांस्कृतिक नही है अपितु आर्थिक भी है। नए विकास प्राधिकरण का मसौदा अगर लागू होता है तो वहां के लोग भारत के अन्य श्रमिकों की तरह ही सस्ते श्रम के रूप में भुनाए जाएंगे। इसके साथ ही उनकी आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाएगी। इसके अलावा सरकार कोस्टल रेगुलेशन जोन की घोषणा कर यहां पर मत्स्यपालन के अधिकार को भी उनसे छीन लेना चाहती है। जिसका परिणाम उनके आर्थिक दशा पर सीधे तौर पर पड़ेगा। वहां कृषि ना होने की वजह से नारियल का उत्पादन और उसके आधार पर छोटे उद्योगों की स्थापना की गई है जो स्थानीय मांग के हिसाब से उत्पादन करते हैं। जो कि नई नीति आने से झटके में समाप्त हो सकता है।
   लक्षद्वीप की लड़ाई भारत के व्यापक शोषित जनता की लड़ाई है । जो फासीवादी चक्र के विरोध में इस श्रमिक विरोधी,आदिवासी विरोधी,किसान विरोधी,मुसलमान विरोधी,दलित विरोधी, महिला विरोधी, कॉरपोरेट परस्त राज्य के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह जनता की व्यापक लड़ाई का भाग है जिसका पूरे भारत की शोषित जनता को समर्थन करना चाहिए ।
#SaveLakshdweep

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