Site icon Youth Ki Awaaz

गरीब एवं वंचितों की चिंता और असहमतियों सवालों का सम्मान करने वाली नेता : सोनिया गांधी

गरीब एवं वंचितों की चिंता और असहमतियों सवालों का सम्मान करने वाली नेता : सोनिया गांधी

ऐसे माहौल में जब आज सत्ताधारी पार्टी आलोचना सुनने को तैयार नहीं है, उनकी उपस्थिति निर्णायक है। यूपीए शासन के दौरान उनके योगदान की वजह से भारत के संवैधानिक लोकतंत्र ने गैर-बराबरी और सत्ता का केंद्रीकरण खत्म करने की शुरुआत की।

मैं अपनी बात को सोनिया गांधी की गरीबों और वंचितों के लिए चिंता से शुरू करना चाहता हूं। यह चिंता कृत्रिम या सतही नहीं है। उन्होंने इसके लिए राजनीतिक करियर में अनेक खतरे उठाए। वह बहुत साहसी हैं, जिन्हें मैंने हमेशा न्याय के लिए दृढ़ता के साथ खड़े होते देखा है।

उनकी दूसरी महत्वपूर्ण खासियत यह है कि वह आलोचना सुनती हैं। वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करती हैं। यह उनके लोकतांत्रिक व्यक्तित्व में झलकता है। यह इसलिए है क्योंकि वह तमाम दबावों के बावजूद लगातार सीखने की इच्छा रखती हैं और अधिक-से-अधिक लोगों को शामिल करने की दिशा में काम करती हैं।

इसके लिए उन्होंने खुद राष्ट्रीय न्यूनतम कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना शुरू किया और व्यापक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया पर जोर दिया। एक चीज़ का उल्लेख करना यहां काफी अहम होगा कि वह सभी के साथ समान व्यवहार करती हैं। किसी के भी साथ भेदभाव नहीं करतीं और सभी से गर्मजोशी से मिलती हैं। उनका व्यक्तित्व लोगों के दिमाग पर विशिष्ट छाप छोड़ता है। सोनिया गांधी को गरीबों और वंचितों से जुड़े मुद्दों को देश की मुख्यधारा के राजनीतिक विमर्श में लाने का श्रेय भी दिया जाना चाहिए।

गरीबों और वंचितों के हितों के लिए प्रतिबद्धता वह प्रमुख तत्व है, जहां से किसी को सोनिया गांधी की राजनीतिक विरासत का मूल्यांकन करना चाहिए। यह उनके अधिकार आधारित कानून लागू करने में सर्वाधिक मौलिक योगदान के रूप में परिलक्षित होता है। इसके मूल में सामाजिक क्षेत्र को न्याय देने की अवधारणा थी।

आरटीआई और मनरेगा जैसे दो लोककल्याणकारी कानूनों की स्तम्भ थीं

इस संदर्भ में,  मैं 2005 के दो कानूनों – आरटीआई और मनरेगा का उल्लेख करना चाहता हूं, जो सामाजिक क्षेत्र के कानून के लिए ऐतिहासिक रहे हैं। ये आज़ादी के बाद के भारत में हिस्सेदारी आधारित लोकतांत्रिक विकास और शासन प्रणाली की दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव का संकेतक हैं। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ये कानून संसद के भीतर और बाहर गंभीर बहस और विचार-विमर्श के बाद पारित किए गए। गरीबों के लिए जीडीपी के एक छोटे हिस्से के लिए इस तर्कसंगत मांग का सत्ता के केंद्रों से विरोध असंगत तरीके से होता रहा।

नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों की ओर से आलोचना और उपहास ने इस कानून को बाधित करने की कोशिश की। इसके बावजूद वे आर्थिक तर्कों के बारे में प्रायोगिक थीं। मनरेगा से संबंधित कुछ जटिल सिफारिशें अंततः उनके समर्थन से ही शामिल की गईं। ये उदाहरण हैं कि कैसे दबाव बनाकर और व्यवस्था पर नज़र रखते हुए गरीबों के हितों के लिए काम किया जा सकता है।

इसे वंचितों की मूलभूत ज़रूरतें पूरा करने के लिए, उनके प्रतिनिधित्व और सशक्तिकरण को मज़बूती प्रदान करने के लिए अनेक अधिकार आधारित कानूनों को लागू कराने के उदाहरणों से समझा जा सकता है। इस दौरान, कार्यकर्ताओं को बारीकी से जानने-समझने का अवसर मिला कि कैसे राजनीति और दबावों को परे धकेला जा सकता है। आप प्रत्येक बिंदु पर तर्क कर सकते हैं, लड़ सकते हैं या असहमत हो सकते हैं और यह सब सोनिया गांधी की वजह से संभव हो सका है।

वन अधिकार कानून, शिक्षा का अधिकार कानून, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून, घरेलू हिंसा कानून, स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट, सामाजिक सुरक्षा कानून, संशोधित एससी/एसटी अत्याचार कानून आदि अनेक कानून इस स्वरूप में पारित नहीं किए जा सकते थे, अगर सोनिया गांधी ने बतौर यूपीए और एनएसी प्रमुख अपने प्रभाव का इस्तेमाल नहीं किया होता। इन कानूनों ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।

जनहितकारी कानूनों के क्रियान्वयन एवं निर्माण में आम जनमानस की भूमिका तय की

लोगों ने महसूस किया कि अपनी मांगों पर कानून बनाने की प्रक्रिया में वे भी भागीदार हो सकते हैं। अगर आप याद करें, उस समय कोई कानून बनने या पास होने के पहले लंबे समय तक विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क का दौर चला, मुद्दों से जुड़े हर पक्ष पर बहस की गई। यह एक राजनीतिक निर्णय था और सोनिया गांधी पर इसका प्रभार था। इस प्रयोग ने नागरिकों और लाभार्थियों को निर्णय प्रक्रिया के केंद्र में ला दिया। यह विकास और शासन प्रणाली में प्रतिमानात्मक बदलाव था।

जब मैं कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी की लंबी यात्रा को देखता हूं, वह ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठा वाली व्यक्ति के रूप में नज़र  आती हैं। उन्होंने पार्टी में नए सिरे से जान डालने के अलावा बहुत चुपचाप अनेक महत्वपूर्ण बदलाव किए। मैं महसूस करता हूं कि इस पथ प्रदर्शक भूमिका के लिए सोनिया गांधी को संतुष्टि की अनुभूति होनी चाहिए।

खासतौर पर मैं महसूस करता हूं, सामाजिक क्षेत्र के मुद्दों को और भारत के फैसले लेने वाले मंचों पर वंचितों की वास्तविक चिंताओं को दूर करने के लिए जिस उद्देश्य और दृढ़ विश्वास की शक्ति की ज़रूरत होती है, उस पर सोनिया गांधी खरी उतरती हैं।

चाहे मददगार हो अथवा आलोचनात्मक, यह सर्वोच्च हिस्सेदारी आधारित लोकतांत्रिक शासन प्रणाली थी। हम जानते हैं कि उनकी पार्टी के ही कई बड़े निष्ठावान उत्साहित नहीं थे। भारत के वंचितों में से बहुतायत लोग समझते हैं कि इन कानूनों से उनके जीवन में कितना परिवर्तन आया है और इसीलिए यूपीए-2 में सरकार ने उन क्षेत्रों पर काम करना शुरू किया, जहां जनमानस में असंतोष था, जिसे मैं महसूस करता हूं कि सोनिया गांधी ही समझ सकती थीं।

यह प्रक्रिया 2004 के चुनाव परिणामों के दौरान शुरू की गई। यह मेरे जैसे तमाम लोगों के लिए विस्मयकारी था। यह स्पष्ट करता है कि इंडिया शाइनिंग का नारा देश की आबादी के आधे हिस्से के लिए लाभदायक साबित नहीं हो सकता। लोगों की इन इच्छाओं और सवालों को यूपीए द्वारा प्रतिपादित राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में स्थान मिला। दूसरा विस्मय यह था कि यूपीए की नेता सोनिया गांधी ने यह तय किया कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी।

वह उस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की चेयरपर्सन बनीं, जो राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम (एनसीएमपी) में किए वादे लागू करने के बारे में प्रधानमंत्री और सरकार को सलाह देने के लिए बनाई गई थी। सोनिया गांधी का सरकार के बजाय सत्ताधारी गठबंधन के सलाहकार परिषद का प्रमुख बनना इतिहास की अभूतपूर्व घटना थी। जनादेश सामाजिक क्षेत्र के लिए किए वादों को अमली जामा पहनाने के लिए था और इसके लिए की गई पहलकदमियां महत्वपूर्ण थीं।

गरीब एवं वंचितों के हितों की सरंक्षक एवं एक मज़बूत राजनैतिक हस्ती

उन्होंने एनएसी में उदार विचार वाले सदस्यों के समूह का चयन किया, राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया और एक नई ज़मीन तैयार की। अंतिम आश्चर्य यह था कि एनएसी का सदस्य उन लोगों को बनाया गया जो किसी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं थे, सिविल सोसायटी के विभिन्न हिस्सों से आते थे और नीतियों के विशेषज्ञ थे। एनएसी ने इन मुद्दों को विशिष्ट महत्व दिया। कानून और नीति के कार्यकारी ढांचे में नागरिकों के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के रूपांतरण को मज़बूती प्रदान की।

हालांकि, हम तब भी उनसे सवालों पर विचार-विमर्श करते थे, जब वह विपक्ष की नेता थीं। उनसे मिलना बहुत आसान था और सकारात्मक बिंदु यह था कि वह हमें बहुत ध्यानपूर्वक सुनती थीं। वह प्रत्येक मुद्दे को अत्यंत विस्तार से समझने की कोशिश करती थीं। उस समय उन्होंने सूचना का अधिकार आंदोलन को समर्थन दिया और इसके मूल बिंदुओं को समझा कि कैसे गरीब लोग सरकार पर बड़ा नियंत्रण प्राप्त कर सकेंगे। सोनिया गांधी के दृढ़ प्रयासों से बाहर से वामदलों के मज़बूत  राजनीतिक समर्थन के साथ गरीबों के पक्षधर तत्व उनकी पार्टी और सरकार में साथ आए। इससे समर्थन का एक व्यापक परिक्षेत्र निर्मित हुआ।

आज सत्ताधारी पार्टी किसी भी तरह की आलोचना सुनने को तैयार नहीं है। ऐसे माहौल में सोनिया गांधी की उपस्थिति बहुत निर्णायक और महत्वपूर्ण है, जिस तरह सोनिया गांधी ने वंचित तबके के लोगों को संवैधानिक गारंटी प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया, वह बहुत ही उल्लेखनीय है। सोनिया गांधी का योगदान इतिहास और विरासत का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, जब भारत के संवैधानिक लोकतंत्र ने गैरबराबरी और सत्ता का केंद्रीकरण खत्म करने की शुरुआत की।

Exit mobile version