Site icon Youth Ki Awaaz

“जाति, तू ना गई मेरे मन से”

जाति, तू ना गई मेरे मन से (व्यंग्य)

हाल ही में एक दोस्त के इलाज के सिलसिले में हॉस्पिटल गया। हॉस्पिटल के पार्किंग में लगी एक जातीय कार ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। कार के पीछे वाले शीशे के बीचो-बीच, बड़े-बड़े अक्षरों में ब्राह्मण लिखा हुआ था और एक साइड कोने में छोटे-छोटे पिद्दी अक्षरों में डॉक्टर लिखा हुआ था। मैंने सोचा इसके मालिक ब्राह्मण होने के साथ-साथ एक डॉक्टर भी हैं। शायद ब्राह्मण ज़्यादा और डॉक्टर कम हैं।

दोस्त के इलाज करवाने के बाद अपनी उत्सुकता मिटाने के लिए मैंने उस ब्राह्मण गाड़ी वाले डॉक्टर से मिलने का सोचा।

मैंने सामने देखा, तो एक सफाई कर्मचारी हॉस्पिटल के चूती छत से फर्श पर बने तालाब को पोंछने की कोशिश कर रहा था। वह उसे पोंछ कर साफ कर देता और थोड़ी देर में फिर से वहां एक जलाशय बन जाता, वह उसी तरह इस चक्र में फंसा हुआ था, जैसे ऋण के मारे फंसती हैं पीढ़ियां गरीबी और भुखमरी के चक्र में। 

मैंने उस सफाई कर्मचारी से पूछा, भाई, यहां ब्राह्मण डॉक्टर कहां मिलेंगे? उसने बोला, यहां तो सभी डॉक्टर ब्राह्मण हैं, बड़े भाई आपको कौन से वाले से मिलना है? उसकी बात सुन कर एक पल के लिए, तो मुझे लगा कि कहीं मैं गलती से वैद्य  चिकित्सालय तो नहीं आ पहुंचा, मैंने कहा भाई वो जिन्होंने अपने कार के शीशे पर गर्व से छपवा रखा है कि वो ब्राह्मण हैं।  

“अच्छा वो! डॉ. मिश्रा नाम है उनका, सेकेंड फ्लोर पर चौथा रूम”

“ ठीक है भाई, थैंक यू !” 

उनके कमरे के सामने पहुंचने पर मालूम पड़ा कि डॉक्टर साहब आज के दिन अपने प्राइवेट क्लिनिक पर दर्शन देते हैं। उनसे मुलाकात, तो हो नहीं पाई, पर अपनी जाति का पब्लिसिटी करने के पीछे मैंने उनकी मनोभावना भांपने की कोशिश की। 

शायद, यह डॉक्टर कस्टमर को लुभाने के लिए कह रहे हों देखो भाई, मैं डॉक्टर तो हूं, पर कोई ऐरे-गैरे कुल का नहीं, ब्राह्मण हूं ! वो अलग बात है की अपना पुराना धंधा आजकल थोड़ा मंदा चल रहा है, तो पार्ट-टाइम डाक्टरी करनी पड़ रही है। 

 मगर अभी भी अपनी हैसियत कोई कम नहीं हुई है। वर्ण-व्यवस्था में हम सबसे टॉप पर हैं, अपना भगवान से सीधा कांटैक्ट है। देखो, अंदर की बात बताता हूं, वैसे, तो हूं मैं पारम्परिक पुरोहित ही, सारे मंत्र बाई हर्ट याद हैं और जो नहीं याद हैं उसमें तो जीभ लपलपा कर कुछ भी बरबरा देता हूं। मूर्ख बनाने की कला में, तो मुझे परम्परागत परमार्थ हासिल है।

वैसे, पिताजी ने सोचा कि नाम के आगे डॉक्टर लग जाए, तो थोड़ी इज्ज़त बढ़ जाएगी, तो उन्होंने डोनेशन देकर मेडिकल कॉलेज में एक सीट दिला दी और फिर करना क्या था खींच-तान कर मैंने डिग्री पूरी कर ली, सच बताऊं, तो कुछ प्रोफेसर से सांठ-गांठ भी बैठा रखी थी। 

अरे अपनी बिरादरी वाले, और कौन! अरे अपने ही तो अपनों के काम आते हैं। हमारी मदद नहीं करेंगे, तो क्या उन आरक्षण वालों की करेंगे। अरे वो लोग तो नौसिखिए हैं, हमारे पूर्वजों ने उनके आत्मबल को इतना गिरा दिया है कि पहले तो वो हमारे लेवल तक पहुंचना तो दूर, वहां तक पहुंच पाने का सपना तक नहीं देख पाते। 

जो इक्के-दुक्के पहुंच भी जाते हैं, तो हम मेरिट का चोचला फैलाकर इस तरह से उनकी आत्मबल की हत्या कर देते हैं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। उन्हें कहां मालूम धर्म-करम का दाव-पेंच बस मेडिकल साइन्स के सहारे तुम्हारा इलाज करेंगे।

अरे ये मेडिकल साइन्स-वाईन्स से भी कभी कोई ठीक हुआ। तुम्हीं बताओ दुःख की घडी में किसे याद करते हो? डॉक्टर को या पंडित को। तुम्हारे घर में कोई मानसिक क्लेश होता है, तो साइकोलॉजिस्ट (मनोचिकित्सक) के पास थोड़े ही ना जाते हो इलाज करवाने, आखिर हमारे बिरादरी के किसी बाबा के पास जाकर झाड-फूंक करवा आते हो या फिर ज़्यादा से ज़्यादा हम ब्राह्मणों को ही बुलाकर सत्यनारायण भगवान का पाठ करवा लेते हो। 

अब देखो मेरे पास, तुम्हारे लिए दो पैकेज हैं-

एक तो यह है कि इलाज के साथ मैं तुम्हें अतिरिक्त सुविधाए भी दूंगा, जैसे- तुम्हारे शीघ्र तंदुरुस्ती के लिए, तुम्हारे नाम पर हवन और महामृत्युंजय का जाप भी कर दूंगा, अरे तुम्हें पता नहीं इस विषय पर ICMR द्वारा फंडेड रिसर्च भी चल रही है, अब तो सरकार भी अस्पतालों के  I.C.U में हवन ही करवाएगी, ज़रूरत ही नहीं फालतू महंगे उपकरणों की।

दूसरा इसमें ऊपर वाले पैकेज के साथ ऐडिसनल बेनिफिट(फायदा) यह है कि अगर तुम इलाज के दौरान टें बोल गए, तो मरने-उपरांत तुम्हारे सारे कर्म-कांड का ठेका मेरा और हां, पिंडदान में सोना-चांदी, रोटी, कपड़ा, मकान दान करने का कोई झंझट ही नहीं, सीधे कैश में डीलिंग है अपनी (इसके चार्जेज अलग से लगेंगे)। 

जहां तक बात है पोस्ट-डेथ स्वर्ग या नरक में जाने का तो एक बात बताओ! अपनी बिरादरी से हो क्या? अगर हो तो तुम्हें ऐडिसनल 50% डिस्काउंट दे दूंगा और स्वर्ग में एक सीट पक्की समझो अपनी। अरे अपना चित्रगुप्त के साथ उठना बैठना है, आखिर चरित्र-प्रमाणपत्र तो उन्हें ही बनाना है।

अरे नहीं! ये आरक्षण थोड़ी ना है। यह तो बपौती है तुम्हारी और अगर आरक्षण वाले हो, तो कोई डिस्काउंट-विसकाउंट नहीं मिलेगा। 1 लाख दोगे तो एडमिट करूंगा, यह बस एडमिट करने का चार्ज है, इलाज का अलग पैसा लगेगा। पैसे नहीं है? अमा! ज़मीन बेच दो अपनी, घर बेच दो या मवेशी बेच दो। वो भी नहीं हैं! तो बेटा वैसे भी तुम जन्म-जात नरक भोगी हो, मर ही जाओ तुम, नरक में एडजस्ट करने में ज़्यादा दिक्कत भी नहीं होगी तुम्हें।”

Exit mobile version