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ग्रामीण भारत में अन्धविश्वास और अशिक्षा से नहीं, आम जनमानस की जागरूकता से हारेगा कोरोना

ग्रामीण भारत में अन्धविश्वास और अशिक्षा से नहीं, आम जनमानस की जागरूकता से हारेगा कोरोना

कोरोना की लहरों की भयावहता के कहर से पूरा देश लगातार जूझ रहा है। भले ही आंकड़ों के कम होने पर देश के कई राज्य अनलॉक की प्रक्रिया अपना रहे हैं, लेकिन स्थिति के अभी भी सामान्य होने की उम्मीद दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही है।

पहले डेल्टा और अब डेल्टा प्लस वैरियंट ने सरकार से लेकर वैज्ञानिकों तक की चिंता बढ़ा दी है। लगभग एक साल से लोग कोरोना से ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रहे हैं। कुछ महीने पहले ही देश में कोरोना का भयंकर प्रकोप लोगों के बीच इस कदर टूटा है कि वह अपनों को खोने के बाद उन्हें सम्मानपूर्वक आखिरी विदाई भी नहीं दे सके।

देश में हर दिन कोरोना सम्बन्धी आंकड़ों की रिपोर्टस आती हैं, लेकिन इसका दर्द केवल वही इंसान समझ सकता है, जिसके अपने भी इन आंकड़ों में शामिल हैं। हालांकि, केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारें इस महामारी के कारण बिगड़े हालातों से लड़ने में अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे थे, लेकिन हमारा कमज़ोर स्वास्थ्य ढांचा इससे लड़ने में नाकाफी साबित हुआ, जिससे कोविड से होने वाली मौतों का आंकड़ा तेज़ी से बढ़ा। इस दौरान कई राज्यों के उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी सराहनीय थी, तो कई संस्थाओं और व्यक्तिगत रूप से लोगों ने भी आगे बढ़ कर इंसानियत को बचाने में अपना अतुलनीय योगदान दिया था।

कोरोना की दूसरी लहर ने ग्रामीण भारत में भी अपने पैर पसारे 

कोरोना की दूसरी लहर ने शहरों के साथ-साथ देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपना रौद्र रूप दिखाया है, जिसके कारण देश में मौतों का आंकड़ा भी तेज़ी से बढ़ा है। पहली लहर की तुलना में इस बार ग्रामीण क्षेत्र भी कोरोना की चपेट में आए हैं। एक आंकड़े के मुताबिक, देश के 13 राज्यों के ग्रामीण इलाकों में कोरोना वायरस फैला था। इनमें महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश प्रमुख हैं। 

कोविड संक्रमण के नए मामलों में यहां के ग्रामीण इलाकों ने तो शहरी क्षेत्रों को भी पीछे छोड़ दिया है। बढ़ते आंकड़े इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि हमें तत्काल ऐसे उपायों को अपनाने की ज़रूरत है, जिससे आने वाले संकट पर समय रहते काबू पाया जा सके।

कोरोना की दूसरी लहर के थमने से पहले ही उसकी तीसरी लहर की चर्चा अपने शबाब पर है, जिसमें बच्चों में संक्रमण का खतरा बताया जा रहा है। हालांकि, अभी भी इस मुद्दे पर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं लेकिन इसके बावजूद ऐसी हालत में ज़रूरत है कि हम कोरोना की दूसरी लहर की आपदा से सीख लेकर आने वाले संकट की तैयारी में जुट जाएं।

हमारा कमज़ोर स्वास्थ्य तंत्र एवं आम जनमानस में जागरूकता की कमी   

कोरोना की दूसरी लहर ने शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है। गाँवों में स्वास्थ्य व्यवस्था के कमज़ोर बुनियादी ढांचे की कमी ने इस संकट को और भी गहरा कर दिया था। इसके अलावा आम जनमानस में कोरोना के प्रति जागरूकता की कमी ने भी इस महामारी को अपने पैर पसारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

पूरे देश में लगभग साढ़े 6 लाख गाँव हैं, जिनमें 90 करोड़ की आबादी रहती है। ऐसे में ग्रामीण इलाकों में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के समय बढ़ते आंकड़ों ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया था। इन आंकड़ों में वैसे लोग शामिल थे, जिन्होंने अपना टेस्ट करवाया था। हालांकि, अब भी ऐसे कितने लोग हैं, जिनका टेस्ट तक नहीं हुआ? 

वहीं अधिकांश लोगों को कोरोना के लिए करवाए जाने वाले टेस्ट्स (जांच) की जानकारी तक नहीं थी। गाँवों में प्रशिक्षित लैब कर्मी, डॉक्टर, सुविधाओं से लैस अस्पताल, ऑक्सीजन और दवाइयों की कमी को अनदेखा किए जाने के कारण ही कोविड की समस्या को इस स्तर तक पहुंचाया है।

इसके अलावा जागरूकता की कमी के कारण भी लोग कोरोना के लक्षणों से अंजान थे, जिस कारण वे सर्दी-खांसी के लिए मामूली कफ सिरप का सहारा ले रहे थे। वहीं ग्रामीणों के लिए उनके दवाई दुकानदार ही डॉक्टर हैं, जिनकी निगरानी में रहकर वह अपना आधा-अधूरा इलाज करवा रहे थे।

ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त अन्धविश्वास एवं अशिक्षा 

लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों को जिस चीज़ ने सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया, वह था उनका अंधविश्वास। शिक्षा की कमी के कारण लोग इस महामारी को चिकित्सीय दृष्टिकोण की जगह अंधविश्वास की नज़रों से देखने लगे। इसका इलाज कराने की जगह इसे दैवीय प्रकोप समझने लगे और टीका की जगह इसे धार्मिक अनुष्ठान के माध्यम से दूर करने के उपाय ढूंढने लगे।

इस बीमारी के खतरे से लापरवाह ग्रामीण सामाजिक दूरियों को अपनाने की जगह शादी-ब्याह और अन्य गतिविधियों में मगशूल रहे। सरकार और प्रशासन ने भी धरातल पर सामाजिक दूरियों का पालन करवाने की जगह विज्ञापनों के माध्यम से संदेश पहुंचा कर अपनी इतिश्री पूरी कर ली। अंधविश्वास और लापरवाही ने कोरोना से बचने के सभी सामाजिक नियमों को ध्वस्त कर दिया, जिसके गंभीर परिणाम ग्रामीण क्षेत्रों को भुगतने पड़े।

एक खबर के अनुसार राजस्थान में नागौर के मकराना, मंगलाना, बोरावड़ सहित इनसे जुड़े गाँवों में महिलाएं अपने बच्चों को कोरोना की तीसरी लहर से बचाने के लिए जादू-टोना का इस्तेमाल कर रहीं हैं। यहां 18 साल से कम उम्र के बच्चों की लावण झाड़ने अर्थात नज़र उतारने का काम किया जा रहा है।

कोरोना वायरस की नज़र बच्चों पर ना पड़े इसलिए महिलाएं मन्नत मांगते हुए तेल भरी बाती जलाकर लावण, नज़र उतारती हैं। यह कार्यक्रम लगभग 15 मिनट तक चलता है, जिसमें बच्चों समेत घर के बड़े-बुजुर्ग बहुत मन लगाकर बैठते हैं। अचंभित करने वाली बात यह भी है कि कोरोना के डर ने कई परंपराओं को दोबारा ज़िंदा करने का काम भी किया है, जिसमें लावण झाड़ना भी एक है।

कोरोना की तीसरी लहर की आशंका के चलते बच्चों के टीके का ट्रॉयल 

हालांकि, बच्चों को इस आपदा से बचाने के लिए केंद्र सरकार लगातार प्रयासरत है। वह सभी राज्य सरकारों के साथ मिल कर इस दिशा में समन्वय बनाने का काम भी कर रही है। बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए जहां ऑनलाइन कक्षाएं चलाई जा रही हैं, वहीं दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं को रद्द कर दिया गया है।

इसके अतिरिक्त दिल्ली से लेकर पटना और देश के कई भागों में बच्चों की वैक्सीन के लिए क्लिनिकल ट्रायल का काम भी शुरू हो चुका है। उम्मीद की जा रही है कि किसी अन्य आपदा के आने से पहले पहले बच्चों के लिए भी टीकाकरण का काम शुरू हो जाएगा, ताकि बुज़ुर्गों और युवाओं के साथ-साथ शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक के नौनिहालों की ज़िंदगी बचाई जा सके। 

लेकिन इससे पहले ज़रूरी है लोगों को जागरूक करना। विशेषकर देश के ग्रामीण क्षेत्रों को कोरोना के प्रति वैज्ञानिक सोच के साथ तैयार करना, उन्हें वैक्सीन से होने वाले फायदों को बताना, वैक्सीन को लेकर उनके संशय को दूर करना, इसे लेकर फैलाई जा रही किसी भी अफवाहों के प्रति उन्हें सचेत करना ताकि वह अंधविश्वास से खुद को और अपने बच्चों की ज़िंदगी को बचा सकें।

आपदाओं या विपदा के साथ एक सकारात्मक बात यह होती है कि वह सुधार की प्रक्रिया को तेज़ करने का काम करती हैं। देश में जब बच्चों के लिए दूध की किल्लत थी, तब श्वेत क्रांति द्वारा नौनिहालों की भूख को शांत किया गया था, जब देश में अन्न नहीं था, तब हरित क्रांति द्वारा लोगों को भरपूर अनाज मुहैया करवाया गया था।

वहीं आर्थिक विपन्नता होने पर आर्थिक सुधार लागू किए गए थे। इन सब बातों से सीख लेकर अब हमें स्वास्थ्य क्रांति की ओर अपने कदम बढ़ाने की ज़रूरत है, इसके लिए शहर से लेकर ग्रामीण स्तर तक लोगों में अलख जगाने की ज़रूरत है, ताकि वह झाड़फूंक की जगह वैज्ञानिक रूप से कोरोना को हरा सकें।

नोट- यह लेख मुजफ्फरपुर, बिहार से सौम्या ज्योत्सना ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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