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सामाजिक न्याय की लड़ाई में समाज से पीछे छूटता दलित एवं पिछड़ा वर्ग

सामाजिक न्याय की लड़ाई में समाज से पीछे छूटता दलित एवं पिछड़ा वर्ग

हमारे देश भारत में एक परंपरा सी रही है कि किसकी मौत पर कितना शोर मचेगा? यह उसके सरनेम पर निर्भर रहेगा अर्थात देश के राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और देश का मीडिया किसके खिलाफ हुए अत्याचार पर देश में हल्ला काटेंगे ये उसकी जाति से निर्धारित होता है।

अब सोचने वाला प्रश्न यह है कि अत्याचार की खबरों को आखिर सरनेम देख कर क्यों उठाया जाता है? जबकि सरकार चुनते वक्त, तो सभी लोग वोट देते हैं। अभी हालिया संपन्न हुए उ.प्र के त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के बाद उ.प्र में पूछे जा रहे दलित-पिछड़े समुदाय से अगले 5 वर्षों तक ज़्यादातर जनप्रतिनिधी सरोकार नहीं रखेंगे।

जो कल तक जीते हुए प्रतिनिधियों के घरों में बैठ हुए पाए जा रहे थे, अब उनको घरों में भी नहीं घुसने दिया जाएगा, तब आप समझ सकते हैं कि उनके लिए न्याय कि बात करना, तो बहुत दूर की बात रहेगी ऐसे जनप्रतिनिधियों के लिए।

अब हम आते हैं इसके कारण पर कि ऐसा क्यों होता है?

जब चुनाव आते हैं, तो चुनाव प्रत्याशी सबसे अधिक वोटों वाले समुदाय अर्थात दलितों एवं पिछड़ों के मध्य जाकर उनसे वोटों की अपील करते हैं, किंतु यह केवल दिखावे के तौर पर होता है। असल में चुनावों के वक्त दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोग प्रत्याशियों से वोट के बदले कभी दारू, मुर्गा, तो कभी साड़ी, शॉल, चादर इत्यादि चीज़ें लेते हैं।

प्रत्याशीगण जब तक चुनाव चलते हैं तब तक दलित समुदाय के लोगों को शराब के नशे में डुबाए रखते हैं और अंतिम रात तक यह होता है कि दलितों एवं पिछड़े वर्ग की बस्तियों में उनका वोट लेने के लिए नोट भी बांटे जाते हैं, किंतु इसके उलट सवर्ण वर्ग की बस्तियों में इस तरह के कोई भी क्रियाकलाप आपको देखने को नहीं मिलेंगे और यदि मिलेंगे भी, तो बहुत ही कम।

चुनावी प्रत्याशी यह भली-भांति जानते हैं कि दलितों और पिछड़ों के वोटों के लिए उनको दारू, पैसा एवं अन्य लालचों द्वारा उनका वोट लिया जा सकता है, किंतु सवर्ण वोट उसी को देता है जो उनके के प्रभाव में रहे और उनकी लड़ाई मज़बूती से लड़े। दलित एवं पिछड़ा वर्ग चुनाव के वक्त यह बात ध्यान में नहीं रखता है कि चुनाव के बाद वह उस प्रत्याशी से कैसे काम लेंगे या उससे कैसे अपने मुद्दों को उठाने के लिए कहेंगे, जिस प्रत्याशी कि दारू और पैसा वे अपने घरों में ला रहे हैं।

चुनाव बाद प्रत्याशी उसी तरह व्यवहार करता है, जिस तरह चुनाव के वक्त आपने उससे किया हो अर्थात यदि चुनाव के वक्त आपने प्रत्याशी से पैसा, दारू इत्यादि कोई भी चीज़ ली हो, जिसके बदले आपने उसको वोट दिया हो, तो वह चुनाव के बाद आपके समुदाय के किसी भी काम नहीं आएगा।

दलित एवं पिछडे वर्ग से सम्बन्ध महज़ चुनावों तक ही रखा जाता है  

वहीं जो समुदाय प्रत्याशियों को बिना लालच के वोट देते हैं तब ऐसे लोगों के मुद्दों को उठाना प्रत्याशी की मज़बूरी हो जाती है। बहुत बार यह भी देखने में आता है कि दलित एवं पिछड़े वर्ग के वोटर किसी एक खास सवर्ण के जाति के लोगों के प्रभाव में रहते हैं, तब वहां भी चुनावी प्रत्याशी सवर्ण वर्ग के लोगों के बीच में जाते हैं, क्योंकि वह यह भली-भांति जानते हैं कि दलित और पिछड़ों के बीच में जाने का कोई फायदा नहीं है। उनका वोट सवर्ण वर्ग के लोग उन्हें आसानी से दिलवा देंगे बशर्ते वह अपने आप को दलितों का हितेषी स्थापित कर दें।

जिस प्रत्याशी ने आपका वोट खरीद लिया हो, तब वह आपके मुद्दों को नहीं उठाएगा और दलित एवं पिछड़े वर्ग के ज़्यादातर वोटर यही गलती हर बार दोहराते हैं कि चुनाव के वक्त वह प्रत्याशियों को अपना वोट बेच देते हैं। वहीं सवर्ण वर्ग अपने वोट को संभाल कर रखता है और अपना वोट उसी को देता है, जो प्रत्याशी उनके मुद्दों को लड़ने के लिए तैयार रहता है।

इसलिए चुनाव बीत जाने के बाद दलितों और पिछड़ों के मुद्दे बहुत पीछे छूट जाते हैं, क्योंकि मुद्दों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने वोट दिया ही नहीं था, बल्कि उन्होंने, तो अपना वोट बेचने का काम चुनाव में किया था‌। यह बात जितनी ज़ल्दी  दलित एवं पिछड़ें समझ लेंगे उतनी ही ज़ल्दी भारत में इनकी लड़ाई मज़बूत हो पाएगी।

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