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तीन दिन बाद स्कूल आने पर भी कोई लड़की यह नहीं कह पाती थी कि उसे पीरियड्स थे

तीन दिन बाद स्कूल आने पर भी कोई लड़की यह नहीं कह पाती थी कि उसे पीरियड्स थे

बारह-तेरह साल तक कि उम्र में मेरी क्लास में लगभग सभी लड़कियों को पीरियड्स आने लग गए थे। मेरा गर्ल्स स्कूल था और लड़कियां चुपचुप के अजीब-अजीब बातें करती थीं। बचपन मानो पीरियड्स के फ्लो में बह गया था।

कोई नहीं कह पाता था पीरियड्स हैं!

मेरी क्लास में आए दिन कोई ना कोई लड़की एब्सेंट(अनुपस्थित) रहती थी। पहले इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता था, पर अब सब दिन गिनते हैं,अच्छा ! 3 दिन छुट्टी पर थी। फिर आपस में एक-दूसरे को देखकर हंसती थीं, जो लड़की छुट्टी करती थी। वह वापिस क्लास में लौटने पर बहाने ढूंढती मगर कोई भी लड़की, यहां तक कि सारी लड़कियां ही पीरियड्स के दौर गुज़रती हैं। यह जानते हुए भी सच नहीं कहती थी कि मुझे पीरियड्स थे। 

यहां राजस्थान में पीरियड्स यूं भी गजब टॉर्चर है। शारीरिक, तो है ही मानसिक रूप से भी है। आज भी यहां लड़कियों के हाईज़ीन और शारीरिक स्वास्थ्य की बात, तो छोड़िए! इन दिनों मानसिक स्वास्थ्य तक के बारे में भी नहीं सोचा जाता है, फिर आज से 20 साल पहले क्या हालात होते होंगे? यह सोच भर के ही मेरी रूह कांप जाती है।

पैड्स के लिए कभी किसी ने प्रोत्साहित ही नहीं किया

हमारे स्कूल में हर साल सातवीं क्लास की लड़कियों को पीरियड्स से सम्बन्धित फिल्म दिखाई जाती थी। आप को यकीन नहीं होगा, लेकिन लड़कियां फिल्म देखने के बाद भी दिया जाने वाला गिफ्ट हैम्पर घर नहीं ले जाती थीं और ना ही वहां के टीचर्स उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करती थीं।

मेरे पीरियडस 16 साल की उम्र में शुरू हुए। मम्मी की सहेली, हमारे पड़ोस की आंटी, रिश्तेदार बुआ,चाची,मौसी सब मेरे पीरियड्स में बहुत दिलचस्पी लेती थीं। मसलन और कोई जानकारी ज़रूरी भी नहीं हो, जहां एक ओर माँ के दिमाग में सो कॉल्ड देरी से आए पीरियड्स का डर बैठा ही रहता था, वहीं दूसरी तरफ मेरे दिमाग में इन सभी हमदर्दों के प्रति गहरी चिढ़ बैठ गई थी।

पीरियड्स के दिनों में बिस्तर तक अलग होते हैं यहां

यहां पीरियड्स में सिर्फ मंदिर में जाना ही निषेध नहीं होता, बल्कि आप पानी पीने की मटकी को भी नहीं छू सकते हैं। रसोई में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। आपके पीरियड्स वाले बिस्तर अलग होते हैं और-तो-और आप किसी पेड़ में पानी नहीं डाल सकते हैं और ना ही अचार खा सकते हैं और अचार का बर्तन भी गलती से छू भी नहीं सकते हैं।

इन सबके साथ 10-12 साल की बच्ची की मनोदशा क्या होती होगी? इसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है।रातों-रात उन्हें ना जाने क्या-क्या सिखा दिया जाता है।

रैशेज होने पर भी कुछ पूछ नहीं पाती थी

यह आपको बीते ज़माने की बातें लग सकती हैं, मगर आज 2021 में भी बहुत बदलाव नहीं आए हैं और जो थोड़े बहुत बदलाव आए भी हैं, तो वे नितांत निजी हैं, जब हम किसी ग्रुप का हिस्सा होते हैं तब हम अनजाने ही रूढ़िवाद को परम्परा बना देते हैं।

 यही हम सबके साथ होता है। मुझे भी पैड्स अपनी ग्रेजुएशन के दौरान नसीब हुए। महंगे लगते थे, तो बार-बार बदलने में हिचकती थी। कई बार रैशेज तक हो जाते थे, मगर मैं किसी से पूछ भी नहीं पाती थी कि मैं क्या करूं?

20 सालों में पीरियड्स को लेकर समाज में ज़्यादा कुछ बदला नहीं है

पहले दिन इतना दर्द होता था कि मैं अच्छे से चल भी नहीं पाती थी, फिर हर महीने ये सब होना तय था।  ऐसे में खुद की प्राईवेसी से समझौता होता देखना एक अलग ही प्रकार का ट्रॉमा होता है। आज भी स्कूलों में पीरियड्स वाला चैप्टर टीचर पढ़ाती ही नहीं हैं ।

मैं आज एक शिक्षिका हूं। ऐसे में मौका मिलते ही  बच्चों से बात करती हूं और उन में हो रहे शारीरिक बदलाव और पीरियड्स के बारे में उन्हें समझाने की कोशिश करती हूं। अब चूंकि भाषा पढ़ाती हूं और अपनी साथी शिक्षिकाओं को जब वहीं 20 साल पहले अटका देखती हूं, तब समझ में आता है कि आज भी कुछ नहीं बदला है, सब पहले जैसा ही है। 

काश! लड़कियां भी हाईजीन को चैलेंज कर पातीं

मुझे बेहद घुटन होती है, समाज में अब भी पीरियड्स को छुआछूत का विषय बनता देख कर। हां! आजकल स्कूल में ही लड़के दाढ़ी-मूंछ का स्पेशल वर्जन ज़रूर रखने लगे हैं, जिसके लिए बच्चों को पाबंद करना स्कूल के लिए एक बहुत बड़ा कड़ा चैलेंज होता है।

काश! लड़कियां भी हाईजीन और पैड्स उपलब्ध करवाने को लेकर अपने स्कूलों को चैलेंज दे पाएं। काश! पीरियड्स को लेकर सिस्टरहुड विकसित हो और इंसानियत भी। टीचर्स प्यूबर्टी और पीरियड्स को सेंसिबली और सेंसिटिव होकर हैंडल करें।

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