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कोरोना की इस भयावह त्रासदी में झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे था ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन

कोरोना की इस भयावह त्रासदी में झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे था, ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन

कोरोना की दूसरी लहर का प्रभाव भले ही धीरे-धीरे कम हो रहा है, लेकिन इसका खौफ अब भी शहरों से लेकर गाँवों तक देखा जा सकता है। चारों तरफ चीख, पुकार, मदद की गुहार, सांसों को थामे रखने के लिए जद्दोजहद ने हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है।

महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार समेत पूरे देश के गाँव-गाँव में कोरोना ने दस्तक दे दी है। डॉक्टर, दवा, अस्पताल, ऑक्सीजन, जांच और टीकाकरण के लिए लोग अपने स्तर से व्यवस्था कर रहे हैं।

इस दौरान सरकारी व्यवस्था केवल नाम की रह गई है। दूसरी ओर आपदा के इस अवसर पर जीवनरक्षक उपकरणों और दवाओं की जमकर कालाबाज़ारी भी हुई। कई शहरों में निर्धारित मूल्य से अधिक दवाओं के बिकने की खबरें आती रहीं। वहीं देश के छोटे शहरों में संचालित निजी अस्पताल और नर्सिंग होम पर सेवा के नाम पर लूट मचाने के संगीन आरोप भी पढ़ने को मिले।

ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाएं पूर्ण रूप से नदारद हैं 

कोरोना के इस त्राहिमाम में बिहार का ग्रामीण क्षेत्र पूरी तरह से ग्रामीण चिकित्सकों (झोलाछाप डॉक्टरों) के भरोसे पर टिका हुआ था। गाँव के टोले-मोहल्ले में अधिकांश परिवार के सदस्य टाइफाइड, सर्दी, खांसी, बुखार, उल्टी, दस्त से ग्रसित थे।

कई मरीज़ों में कोरोना के लक्षण भी सामने आ चुके थे, लेकिन शहर के तमाम सरकारी और निजी अस्पताल पहले ही कोरोना मरीज़ों से भर चुके थे। ऐसी मुश्किल घड़ी में इनका उपचार इन्हीं तथाकथित झोलाछाप डाॅक्टर (ग्रामीण चिकित्सकों) द्वारा हो रहा था। शुरू में टाॅयफायड के लक्षण, बाद में कोरोना में परिवर्तित होते चले गए, जिसने तेज़ी से गाँवों को अपनी चपेट में ले लिया।

गाँव एवं ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता के घोर अभाव ने सोशल डिस्टेंसिंग के तमाम प्रयासों को ध्वस्त कर दिया। मास्क, सेनिटाइज़र, शारीरिक दूरी आदि से कोई वास्ता नहीं था। शहरों में महामारी के तेज़ी से पांव पसारने की खबरों के बीच गाँव-घर में शादी, अनुष्ठान, यज्ञ, श्राद्धकर्म और जुम्मे की नमाज़ में लोगों की भीड़ कम नहीं हो रही थी। 

लोगों की इसी लापरवाही ने गाँवों में भी कोरोना को आसानी से अपने पैर पसारने का भरपूर मौका दिया। इसका नतीजा यह रहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी कोरोना से मौतों की तादाद तेज़ी से बढ़ती चली गई। हालांकि, शहर से गाँव लौटे लोग मास्क, सेनिटाइज़र, साबुन एवं शारीरिक दूरी का पूरा ख्याल रख रहे थे, लेकिन इन नियमों का पालन करने वालों की संख्या नाममात्र की ही थी।

ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना के प्रति जन-जागरूकता के अभाव में लोग इससे भयभीत हैं   

इधर बिना जांच के ही सर्दी, खांसी, बुखार से पीड़ित होकर लोग ग्रामीण क्षेत्रों में दम तोड़ रहे थे। इन सब में चिंता की बात यह थी कि लोगों में कोरोना जांच के प्रति भी काफी भ्रांतियां थीं, जिसे प्रशासनिक स्तर पर भी दूर करने के गंभीर प्रयास नहीं किए गए। दूसरी तरफ सरकारी अस्पताल, पीएचसी, दवा व उपचार और टीकाकरण की खबरें मीडिया में ज़्यादा और गाँवों में कम थीं।

गाँव के सरकारी अस्पतालों में पदस्थापित डॉक्टर भी नदारद हो चुके थे। जो डॉक्टर सेवाएं दे भी रहे थे, वह मरीज़ों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण सभी का इलाज कर पाने में असमर्थ थे। ऐसे मुश्किल समय में गाँव के लोगों के स्वास्थ्य और उनके इलाज की ज़िम्मेदारी, इन्हीं झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हो गई थी।

कोरोना की इस त्रासदी में लीची का शहर कहे जाने वाले मुजफ्फरपुर ज़िले के ग्रामीण क्षेत्रों का हाल भी बुरा था। यह राज्य के उन ज़िलों में एक था, जहां कोरोना मरीज़ों की संख्या सबसे अधिक दर्ज़ की गई थी। याद रहे कि कुछ वर्ष पूर्व चमकी बुखार से कई बच्चों की मौत के कारण भी यह शहर मीडिया की सुर्खियों में रहा था।

शहर के सिकन्दरपुर, मोतीझील, टाउन थाना क्षेत्र, खबड़ा, रामदयालु, भिखनपुरा, भगवानपुर, पताही सहित ग्रामीण क्षेत्रों में असंख्य लोग कोरोना से पीड़ित हुए हैं। समय पर इलाज के अभाव में इनमें से कई मरीज़ों की जान भी चली गई है।

अलकापुरी मोहल्ले की रागिनी कहती हैं कि लोग कोरोना के नाम से ही भयभीत हो रहे हैं। वे मानसिक रूप से इस कदर डर गए हैं कि पड़ोसी भी मदद करने तक नहीं आ रहे हैं। कोरोना पीड़ित को एक कमरे में आइसोलेट ज़रूर कर रहे हैं, लेकिन उनके साथ दोयम दर्ज़े का व्यवहार किया जाता है। ऐसे में गाँवों की क्या हालत होती होगी, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।

ग्रामीण क्षेत्रों में अपने पैर पसारता कोरोना और सरकार की उदासीनता 

इस संबंध में मुशहरी प्रखंड अंतर्गत मनिका गांव के अंकुश सिंह कहते हैं कि अपने छोटे भाई की तबियत खराब होने पर कोरोना जांच के लिए ब्लॉक अस्पताल गया था। एहतियात के तौर पर मैंने भी अपनी जांच कराई। हम दोनों की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई, लेकिन वहां मौजूद डॉक्टर ने बहुत प्रयास करने के बाद अनमने ढंग से हमें पेरासिटामोल, डॉक्सीसाइक्लिन और विटामिन की गोलियां दीं।

उन्होंने आरोप लगाया कि ब्लॉक के अस्पताल में इलाज के नाम पर केवल खानापूर्ति हो रही थी, जबकि समुचित इलाज गाँव के दवा दुकानदारों और झोलाछाप डॉक्टरों के माध्यम से ही मुमकिन हो रहा था। उन्होंने कहा कि कोरोना पॉज़िटिव होने की खबर सुनकर लोग हमें ऐसे घूर रहे थे, जैसे हमने कोई पाप किया है।

 दो सप्ताह के बाद मैं ठीक हो गया था, लेकिन इसके बावजूद लोग डर से हाल तक पूछने नहीं आ रहे थे। ज़िले के पारू प्रखंड के दर्जनों गाँवों में भी कोरोना से लोग पीड़ित थे। इनका पूरा इलाज गाँव की डिस्पेंसरी चलाने वाले या फिर झोलाछाप डॉक्टरों के सहारे ही हुआ है, जो दिन-रात सैकड़ों लोगों की ज़िन्दगी बचाने में जुटे रहे।

इस संबंध में स्थानीय ज़िला पार्षद देवेश चंद्र भी स्वीकार करते हैं कि कोरोना के समय ब्लाॅक के तकरीबन 50 हज़ार से अधिक जनसंख्या के लोगों की लाइफलाइन यही झोलाछाप डाॅक्टर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यदि गाँव में यह झोलाछाप ग्रामीण चिकित्सक नहीं होते, तो गाँव भी वुहान बन जाता और ग्रामीणों की ज़िंदगी बचानी मुश्किल पड़ जाती।

कोरोना की भयावहता में ग्रामीण क्षेत्रों में बस ग्रामीण चिकित्सकों का ही सहारा है 

इस संबंध में ग्रामीण चिकित्सक (झोलाछाप डॉक्टर) बलराम साह, उमेश प्रसाद, गणेश पंडित, अशर्फी भगत और परमेश्वर प्रसाद आदि कहते हैं कि संकट की इस घड़ी में हम लोगों ने धैर्य के साथ निर्णय लिया है कि अब चाहे जो हो जाए, हम लोगों को इस तरह तड़पते हुए नहीं देख सकते, जितना भी हमने काम करके तजुर्बें हासिल किए हैं उसका फायदा गाँव के लोगों को मिल रहा है। इस समय गाँवों की हालत, तो ऐसी है कि डर से कोई इंजेक्शन तक लगाने नहीं जा रहा है। 

लेकिन, हम सभी ने निश्चय किया है कि इस विपदा में लोगों को छोड़ नहीं सकते हैं। सीमित संसाधनों के बावजूद भी हमने कोरोना पीड़ितों के इलाज में यथासंभव प्रयास किए हैं। हालांकि, हमें स्वयं भी संक्रमित होने का खतरा था, इसके बावजूद गाँव वालों के इलाज में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। वहीं इस बाबत प्रखंड के चिकित्सा प्रभारी का कहना है कि अब ग्रामीण स्तर पर जांच, टीकाकरण, दवा आदि के लिए प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों को गाँव-गाँव और घर-घर भेजा जा रहा है। ब्लॉक स्तर पर परामर्श, दवाएं देने और जांच का काम जारी है।

कुछ ऐसा ही हाल बगल के वैशाली ज़िले का भी है, जहां कोरोना महामारी के दौरान सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई थी। ज़िले के चकअल्लाहदाद गाँव के होम्योपैथिक प्रैक्टिशनर बसंत कुमार नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि सरकारी सिस्टम बिल्कुल भ्रष्ट हो गया है।

वह कहते हैं कि मैं अपनी एंटीजन जांच के लिए प्रखंड स्वास्थ्य केंद्र गया था, जहां लोगों की लंबी-लंबी कतारें लगी हुई थीं और कोरोना गाइडलाइन की धज्जियां उड़ रही थीं। किसी तरह भीड़ का सामना करते हुए केवल पहचान-पत्र और मोबाइल नंबर जमा करा सका और देर होने के बाद बिना जांच के लौट आया। दो दिनों के बाद मेरे मोबाइल पर मैसेज आता है कि आप कोरोना निगेटिव हैं। इस मैसेज को पढ़कर मैं हैरान रह गया, क्योंकि जब मेरी जांच ही नहीं हुई, तो पॉज़िटिव या निगेटिव होने का सवाल ही कहां होता है?

बसंत कुमार ने दावा किया है कि ऐसा केवल मेरी रिपोर्ट के साथ ही नहीं हुआ है, अपितु अन्य कई लोगों को भी बिना जांच के ही निगेटिव करार दे दिया गया है। उन्होंने कहा कि मेडिकल कॉलेज तक में कोरोना मरीजों की उचित देखभाल नहीं हो रही है।

कोरोना की भयंकर त्रासदी से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ा है 

यही कारण है कि गाँव के लोग सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज जाने से कतरा रहे हैं। बहुत लोग, तो सिस्टम से इतना डर गए हैं कि वह घर पर मरना मुनासिब समझ रहे हैं और झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज करा रहे हैं। इस वक्त सरकार, प्रशासन और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को अपनी संस्थाओं का निरीक्षण करने, जवाबदेही तय करने और विश्वसनीयता कायम करने के लिए धरातल पर उतरने की ज़रूरत है। अन्यथा ग्रामीण झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे ही खुद की ज़िंदगी को बचाने की जद्दोजहद करते रह जाएंगे, जिसका परिणाम बहुत अच्छा नहीं हो सकता है।

बहरहाल, मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि इस आलेख के माध्यम से मेरा झोलाछाप डॉक्टरों को मान्यता देना अथवा उनका गुणगान करना उद्देश्य नहीं है लेकिन महामारी के इस कठिन दौर में गाँव की बड़ी आबादी की जान की रक्षा करने वाले इन झोलाछाप डॉक्टरों की महत्वपूर्ण भूमिका को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता है।

सरकार भले ही डिग्री नहीं होने के कारण इन्हें मान्यता ना दे, लेकिन ग्रामीण सच्चे कोरोना योद्धाओं के रूप में अपनी भूमिका निभाने वाले इन झोलाछाप डॉक्टरों को सलाम कर रहे हैं। वास्तव में हिन्दी की कहावत ‘नीम हकीम खतरे जान’ झूठी साबित हो गई है। अब गाँव वालों की जुबान पर ‘नीम हकीम रक्षे जान’ की कहावत चरितार्थ हो रही है।

नोट – यह आलेख मुजफ्फपुर, बिहार से अमृतांज इंदीवर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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