कुछ वर्ष पूर्व मैंने दरभंगा (बिहार) से सीतामढ़ी जाने के लिए भारतीय-रेल का उपयोग करने का सोचा। हालांकि, लम्बी यात्राएं अक्सर मैं रेल से ही करता हूं, पर कुछ घंटों की छोटी-मोटी यात्राओं के लिए बस या अन्य सड़क यातायात वाहनों का ही उपयोग करता हूं, खासकर जब मैं बिहार में होता हूं।
मैं दरभंगा-रक्सौल DMU ट्रेन में चढ़ा, जो सीतामढ़ी से होते हुए रक्सौल जाती है। अब मैं आपको बता दूं कि अगर आपने अपने जीवन में संघर्ष नहीं देखा है या किया है, तो भारतीय रेल आपको कुछ घंटो में उसका क्रैश-कोर्स करवाता है।
बिहार के किसी भी ट्रेन में आरक्षित या अनारक्षित डिब्बे में एक सीट हासिल करना खुद में एक संघर्ष है। स्लीपर या एसी डिब्बे में सीट आरक्षित करवाना, तो टुटपुंजिया दर्ज़े का संघर्ष है, पर आपको अगर जीवन में असली संघर्ष की अनुभूति करनी है, तो आप अनारक्षित या जनरल डिब्बे में एक सीट कब्ज़ा करने को अपना मुकाम बना सकते हैं।
गाड़ी प्लेटफार्म पर घुसते ही, रुकने से पहले ही लोग रुमाल, कंघी, सेप्टी-पिन, हेयर-बैंड, सामान, बोरा, बीवी,बच्चा या खुद को खिड़की से फेंक कर सीट कब्जिया लेते हैं (डिस्क्लेमर- अगर आपको अपने जान की परवाह है और आप इस कला में माहिर नहीं हैं, तो इस करतब को खुद करने की कोशिश ना करें), अगर गलती से आप बच गए और अगर एक भी सीट कब्जियाने में आपने सफलता हासिल कर ली, तो आपने अपने जीवन का आधा संघर्ष पूरा कर लिया है और आधा भारतीय-रेल आपको अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचाते-पहुंचाते करवा देगा।
ट्रेन के डिब्बे के अंदर का माहौल मुझे काफी हरा-भरा और जैविक लगा, अंदर लोगों में इंसानों को छोड़कर बाकी मौजूद जीवों और वस्तुओं जैसे बकरी, बछड़े, घास की गठरी, सब्जी की गठरी, दूध के गैलन, साइकिल, मोटर-साइकिल, के लिए काफी सहिष्णुता दिखी ।
आपको यह ध्यान देना होगा कि अगर आप अपने पीठ टिकाने की जगह हासिल कर लेते हैं, तो आपको अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने तक उसी मुद्रा में टिके रहना होगा। अगर आप गलती से भी अपने पड़ोस वाले टिके हुए इंसान को बिना इस वास्तविकता का बोध कराते हुए उठ गए कि वह सीट आपकी निजी है और आप दो मिनट में वापस आकर उसी मुद्रा में फिर से टिक जाएंगे, तो वो स्थान जिसे अब तक आप अपना सीट समझ रहे थे।
वो आपके पड़ोस वाले महोदय या मोहतरमा के पैर फैलाने की जगह मात्र बनकर रह जाएगी या कोई सौभाग्य-पूर्ण व्यक्ति जो आपके बैठने के समय से आप पर नज़र टिकाया हुआ है, वहां आकर टिक जाएगा। यह एक अकथित नियम है, जिसका बोध बिना अनुभव के आपको नहीं हो सकता है।
हर आम भारतीय युवा की तरह हर जनरल-कम्पीटीशन में होड़ लगाने का आदि होने के कारण कम-से-कम इस होड़ में मैंने एक सीट हासिल कर ली और अपने सांसदों की तरह इस संकल्प से टिक गया कि प्राकृतिक आपदा भी आ जाए, तो भी सीट नहीं छोडूंगा।
ट्रेन चल पड़ी, अगले हाल्ट आने से पहले ही अनेक यात्री अपने-अपने सुविधाजनक स्थान पाते ही चेन खींचकर, जो की उनके लिए एक स्वाभाविक नियम है, ट्रेन रुकवा कर उतर चुके थे। इसी बीच पिछले सीट पर बैठे हुए एक सज्जन ने ज्योतिषी की तरह अखबार पढ़ते-पढ़ते आगामी चुनाव की भविष्यवाणी कर दी।
मुझे लगा श्रीमान सेफोलॉजिस्ट हैं, मैंने पूछ दिया। वो बोले हमारे तो खून में ही राजनीति है, मैंने सोचा उनके खून में लाल रक्त कोशिका और श्वेत रक्त कोशिका आपस में चुनाव लड़ते होंगे। उन्होंने अपनी राजनैतिक विश्लेषण जारी रखी, कहा विपक्ष इतना निकम्मा है कि खुद तो कुछ काम करता नहीं है और सरकार को भी कोई काम नहीं करने देता है।
मैंने उन्हें टोक दिया कि विपक्ष का तो काम ही है विरोध और आलोचना करना और किसी भी मज़बूत लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत विपक्ष का होना बहुत ज़रूरी है। इसी बीच बाजू वाली सीट पर बैठे एक और महोदय बोल पड़े जी, यही तो विडंबना है हमारे देश के साथ, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, जो काम विपक्ष को करने चाहिए, वो उल्टा सत्ता-पक्ष कर रही है।
पिछले 5 सालों से सरकार, वर्तमान में विपक्ष मान लिए जाने वाली और पूर्व सत्ताधारी पार्टी के 70 सालों के कामों का क्रिटिकल एनालिसिस कर रही है। इस बीच बहस जारी रही, ट्रेन के सीतामढ़ी पहुंचने के निर्धारित समय से 1 घंटा ज़्यादा हो चुका था, पर ट्रेन आधे रास्ते में किसी हाल्ट से पहले आउटर में रोक दी गई थी। इसी बीच किसी ने कह दिया लगता है ड्राइवर को शौच लग गई है! शौच सुनते ही मेरी काफी देर से रोकी गई लघुशंका, जिसे मैंने सीट हड़प लिए जाने के भय से दबा दिया था, फिर से तेज़ हो गई।
कुछ देर बाद, बिहार में बनाए जाने वाले किसी भी आम बांधों की तरह, मेरा भी सब्र का बांध टूट गया। मैंने अपने बगल वाले भाईसाहब से आग्रह किया कि अपने तन-मन-बल से मेरे सीट की रक्षा करें, मेरे और टॉयलेट के बीच बस कुछ हज़ार लोगों, कुछ सौ पेटियों और गठरियों का फासला था।
एक पल को तो मैंने ना जाने का सोचा पर सामने से आ रहे पापड़वाले ने, जो बीच के तमाम जनता के सिर, हाथ, पैर और गठरियों पर चढ़कर गाता हुआ आ रहा था तेरा ध्यान किधर है? पापड़ इधर है, उसने मेरा हौसला बुलंद किया। आखिरकार मैं भी तमाम सिर, पैर और हाथों पर चढ़कर और बदले में खुद पर कौटुम्बिक व्यभिचार (माँ-बहन के बारे में सुविचार) के आरोप लगवाता टॉयलेट के पास पहुंच गया।
अंदर बड़े-बड़े अक्षरों में बायो-टॉयलेट लिखा हुआ था, यानि कि जैविक-शौचालय और नीचे चमकती टॉयलेट सीट पर हमारे दैनिक क्रिया का अवशेष, जो अब जैविक प्रक्रिया से होकर ईंधन बनाने वाला था, गोवर्धन पहाड़ की तरह टिका हुआ था। मैंने उसे बहाने के लिए नल खोला, पानी नहीं था, सामने दीवार पर एक चौकोर स्टील प्लेट पर टट्टी से ईंधन बनाने की प्रक्रिया लिखी हुई थी।
बायो टॉयलेट्स में शौचालय के नीचे बायो डाइजेस्टर कंटेनर में एनेरोबिक बैक्टीरिया होते हैं, जो मानव-मल को पानी और गैसों में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया के तहत मल सड़ने के बाद केवल मीथेन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को पुनःचक्रित (री-साइकिल) कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है। उस समय अंदर की तेज़ जैविक महक से प्रतीत हो रहा था कि शायद यह प्रक्रिया अपने चरम पर है और कुछ ही देर में इस प्रक्रिया से उत्पन्न पानी पुनःचक्रित होकर नलों में आ जाएगा।
कुछ पल के लिए मुझे जल-संरक्षण के लिए इस क्रांतिकारी तकनीक को अपनाने के लिए अपने वर्तमान रेलमंत्री, प्रधानमंत्री के लिए राष्ट्रवादी-सम्मान आया। सोचा नील-चिरैया भेजकर(ट्वीट करकर) उनकी महानता को विश्वव्यापी बना दूं पर उसी वक़्त मेरी लघुशंका असहिष्णु हो गई और मैंने जैविक प्रक्रिया से उत्त्पन्न होने वाले पानी का इंतज़ार छोड़कर अपनी शारीरिक क्रिया से पुनःचक्रित होने वाले पानी से इस जैविक प्रक्रिया में अपना योगदान दे दिया।
यह पूरा प्रक्रिया मुझे काफी जैविक लगा, इसमें जल-संरक्षण के लिए रेल-गाड़ियों के टंकियों में पानी रखने का झंझट ही खत्म हो जाता है। मैंने शौचालय से बाहर निकलकर काफी हल्का महसूस किया, फिर मैंने अपनी सीट तक पहुंच पाने के संघर्ष के लिए, खुद को तैयार किया, वापस सीट पर पहुंचने पर देखा कि एक नव-वैवाहिक नवयुवती अपने नवजात शिशु को गोद में लिए बैठी है।
आखिरकार मैंने मेट्रो और डी.टी.सी बस में खड़े होकर सफर करने के मौलिक कर्त्तव्य को याद किया और लटककर सीतामढ़ी पहुंच गया।