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आइए जानते हैं उन 10 फिल्मों के बारे में जो समाज में समलैंगिकों के अधिकारों की कवायद करती हैं

आइए जानते हैं उन 10 फिल्मों के बारे में जो समाज में समलैंगिकों के अधिकारों की कवायद करती हैं

इतिहास हमेशा ही ताकतवर और सुविधा सम्पन्न लोगों की तरफदारी करता रहा है। इतिहास में पीछे मुड़कर देखें, तो दलित, औरतें, आदिवासी और समलैंगिक तबका हमेशा हमारे समाज में हाशिए पर रहा है। ना ही इतिहास के पन्नों में उनको जगह मिली और ना ही समाज में उनकी सशक्त स्थिति है।

फिर ऐसा इतिहास किस काम का जो समावेशी ना हो। दुनिया में कला की हर विधा का इतिहास होता है। उसका वर्तमान ही आगे इतिहास बनता है। अगर हम सिनेमा की बात करें और वहां हम LGBTQ से जुड़े विषयों पर बनी फिल्मों पर नज़र डालें, तो ऐसी फिल्मों की संख्या को उंगलियों में गिना जा सकता है। 

हम फिल्मों में LGBTQ से संबंधित विषयों को देखें, तो इन विषयों पर ज़्यादातर चुप्पी ही रखी गई है। फिल्में समाज का दर्पण होती हैं। जैसा समाज वैसी फिल्में या जैसी फिल्में वैसा समाज, अगर हम इस बात को समझें, तो उपरोक्त तथ्य को समझने में हमें ज़्यादा आसानी होगी।

 चूंकि, समाज में समलैंगिकता को बहुत सारे लोग अच्छी नज़र से नहीं देखते, तो फिल्म बनाने वाले भी उस पर चुप रहते हैं या इस विषय पर अच्छी फिल्में नहीं बनती हैं, तो समाज की सोच भी नहीं बदल पाती है। अब अगर हम सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालें, तो 1927 में आई फिल्म विंग्स पहली फिल्म है, जिसमें दो पुरुषों के बीच सार्वजनिक रूप से चुंबनदृश्य सिनेमा पर दिखाया गया था।

हम यह भी कह सकते हैं कि फिल्मों में समान लिंग के बीच दिखाया यह पहला किस सीन था। उस वक्त के हिसाब से यह छोटी घटना नहीं कही जा सकती है। इस लेख में मैंने कुछ फिल्मों का ज़िक्र करने की कोशिश की है, जिनमें गंभीरता से इस विषय को उठाया गया है। 

ये फिल्में ना केवल हमारे साथ संवाद करती हैं, बल्कि हमें सोचने के लिए कुछ सवाल भी छोड़ती हैं। फिल्म देखने के बाद भी हम इन फिल्मों के साथ बात करते रहते हैं।

1. कॉल मी बाय योर नेम 

बड़ी आरजू थी कि वो दिन भी आए तेरे नाम से हम खुद को बुलाएं!

ये बोल गुलज़ार के हैं और जिस फिल्म का मैं ज़िक्र कर रहा हूं, वो लूका गुडागिनो के निर्देशन में बनी है। कॉल मी बाय योर नेम 2017 की फिल्म है, जो उत्तरी इटली की पृष्ठभूमि में सेट है। इसमें किस्सा 1980 का है। फिल्म में संगीत है, पुरातत्व शास्त्र है और सबसे खूबसूरत बात है एक अलग-अलग उम्र के दो पुरुषों के बीच बनते एक कोमल रिश्ते की कहानी है।

ओलिवर चौबीस साल का एक रिसर्चर है, जो अपने प्रोफेसर के यहां गर्मियों में कुछ नया सीखने आया है। वहीं एलियो प्रोफेसर का सत्रह साल का बेटा है। उन दोनों के बीच कई सारी विभिन्नताएं हैं, लम्बी खामोशियां हैं, जिनमें अंदर कई आवाज़ें हैं, ये आवाज़ें बाद में विकसित होते जज्बातों के लिए गीत का काम करती हैं। 

गर्मियों के दिन हैं। इटली की सागरीय रुत अपने चरम पर है। आड़ू और खुबानी पके हुए हैं। दो रूहें नदी में तैर रही हैं और सामने किताबें हैं, वाद्य यन्त्र हैं। एक-दूसरे की रुचियों पर बातें हो रही हैं, आंखें पढ़ी जा रही हैं। सांसें  उलझ रही हैं। एक भविष्य का पुरातत्वशास्त्री है और दूसरा संगीतकार।

आंखों में सपने हैं। गर्मियों की ठण्डी रातें हैं और मौसम प्यार की ऊष्मा का है। ओलिवर, एलियो से कहता है कि तुम मुझे अपने नाम से पुकारो, मैं तुमको खुद के नाम से बुलाता हूं। दरअसल, ये सिर्फ नाम बदल लेना भर नहीं है, बल्कि ये एक-दूसरे में खो जाना है। अलग-अलग ना होना, बल्कि एक हो जाना, एक शायर ने कहा है कि ‘ना मैं रहा ना तुम रहे रह गई, तो बस एक बेखबरी रही’। ये बेखबरी ही प्यार में एकाकार करती है। 

फिल्म में दोनों के बीच कई अंतरंग दृश्य भी हैं, जो सेल्युलॉयड पर तैरती एक मासूम कविता की तरह लगते हैं, खासकर आखिर के दृश्यों में एलियो का ओलिवर को गले लगाना और आंसुओं में भीग जाना। ट्रेन जा रही है, ओलिवर उसमें सवार है और एलियो ट्रेन के अपनी आंखों से अझल होने तक देखता रहता है और फिर बोझिल होकर स्टेशन पर बैठ जाता है।

असल में यह जाती हुई ट्रेन नहीं है, यह जाता हुआ प्रेम है। एक दृश्य में एलियो ओलिवर से कहता है कि हमने इतना वक्त यूं ही बर्बाद कर दिया, तो ओलिवर जवाब देता है कि मैंने इशारा किया था, तुम ही नहीं समझे। ये इशारा ना समझना कितना दर्द दे जाता है, जबकि दोनों खुद को भीतर-ही-भीतर समझ गए हैं।

चूंकि यह फिल्म 1983 की कथा कहती है, ओलिवर एलियो को फोन करता है कि वसंत में उसकी शादी है। वे दोनों एक-दूसरे को उनके नामों से बुलाते हैं। इधर एलियो के पिता उसको समझाते हुए कहते हैं उनको भी अपनी टीन एज में ऐसा आकर्षण हुआ था। एलियो आग के पास बैठा है और फायर प्लेस में लकड़ियों की जगह कच्चे ख्वाब जल रहे हैं।

 2.दरमियां

एक और फिल्म जो स्थापित लैंगिकता से इतर बनी और काफी चर्चित रही वो है दरमियां। इस फिल्म में एक ऐसी अभिनेत्री की कहानी है, जो माँ तो बनती है, लेकिन एक किन्नर को जन्म देती है। माँ का रोल किरन खेर और बेटा जो कि किन्नर है, उसका रोल आरिफ जकारिया ने निभाया है। फिल्म में दोनों ने ही अपने अभिनय की भिन्न ऊंचाइयों को छुआ है। 

यह फिल्म माँ और किन्नर बेटे के बीच की अनसुलझी दास्तां बयां करती है। वह समाज के डर की वजह से अपने बच्चे को अपनाती भी नहीं है। उसको ताउम्र अपना भाई कहती है। हिजड़ों के समाज की विद्रूपता को भी दिखाया, लेकिन कारणों के साथ यह फिल्म करीब 25 साल पहले आई थी, फिर भी इस थर्ड जेंडर के प्रति हमारी सोच अब भी वही है।

 जैसे कमला दास अपनी कविता ‘डांस ऑफ ए यूनिक’ में कहती हैं हिजड़े बाहरी तौर पर खुद को खुश करते हैं, सुंदर दिखने का अर्थहीन प्रयास करते हैं, लेकिन अंदर से आनंदविहीन होते हैं। उसी तरह से फिल्म भी उनका एक अलग जीवन चित्र खींचती है और दर्शक एक अलग तरह की संवेदना से भर जाते हैं।

दरमियां, भारत की उन शुरूआती फिल्मों में से है, जो थर्ड जेंडर की समस्याओं पर होने वाली बहस को एक अलग स्तर पर ले जाती हैं, नहीं तो फिल्मों में ज़्यादातर उनका मज़ाक ही उड़ाया जाता है।

3. दायरा 

1996 में रिलीज हुई अमोल पालेकर की दायरा फिल्म के किरदार की अपनी ही पीड़ाएं हैं। पुरुष के रूप में केवल उसका बाहरी शरीर है, लेकिन भीतर से वो एक औरत है जिसको औरतों की तरह रहना, कपड़े पहनना और जीवन जीना पसंद है।

वो अपने लिए ऐसा जीवन चुनता भी है। अंत में भी वह खुद को एक औरत के रूप में सजा के अपनी इस निर्मम दुनिया से विदाई चाहता है। सच में यह संसार बहुत निर्मम है। लोगों की खुशियों पर हमेशा चोट करता है। निर्मल पांडे ने ट्रान्स वेसटाइट के उस रोल को अमर कर दिया। परदे पर इतनी गरिमा के साथ इस तरह की भूमिका कम ही नज़र आती है।

4. फायर 

लेसबियन रिश्तों पर आधारित फायर फिल्म की चर्चा किए बिना यह लेख अधूरा रहेगा। फिल्म में शबाना आज़मी और नंदिता दास ने अभिनय की नवीन ऊंचाइयों को छुआ है। यह कहानी ऐसी दो औरतों की है, जो एक ही घर में दो भाइयों से ब्याही हैं, लेकिन अपने पतियों के प्रेम से वंचित हैं। प्रेम की वंचना उनको अलग तरह की सेक्सुअलिटी को एक्सप्लोर करने की ओर ले जाती है फिर शुरू होता है एक नाजुक सा रिश्ता, जो इस दुनिया को नागवार है लेकिन प्रेम दुनिया की मंजूरी लेकर कब होता है। वो बस हो जाता है रंग, जाति, धर्म और लैंगिकता के बंधनों से परे।

5. माय ब्रदर निखिल 

यहां मुझे  2005 में आई फिल्म My Brother Nikhil का ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी लगता है। यह फिल्म HIV पॉजिटिव समलैंगिकों की दिक्कतों को समाज के सामने रखती है। फिल्म में संजय सूरी ने मुख्य भूमिका अदा की थी। फिल्म में दिखाया गया है कि एक समलैंगिक तैराक जब HIV पॉजिटिव हो जाता है, तो उसे आइसोलेट कर देते और उस पर अत्याचार करते हैं।

यहां उसकी बहन और उसके दो दोस्त, जिनमें से एक उसका बॉयफ्रेंड है, उसकी मुक्ति की लड़ाई लड़ते हैं। अंत में उसकी मौत के बाद एड्स पीड़ितों के लिए काम करते हैं। यह फिल्म LGBTQ की लड़ाई को एक अलग आयाम देती है।

6. आई एम 

एक फिल्म और आई थी, आई एम। इस फिल्म में दो लड़के रात को खुली जगह में पुलिस वाले के द्वारा सेक्स करते हुए पकड़े जाते हैं और पुलिस वाला पैसे मांगने लगता है। इसके बाद में एक लड़के को यह मालूम होता है कि दूसरा लड़का पुलिस के साथ मिला हुआ है। यहां भी सेक्शन 377 की बाध्यता है और दूसरा ठगे जाने की पीड़ा। हाल की एक खबर पर गौर करते हैं, दिल्ली में सोशल नेटवर्किंग से मिले दो लड़कों में से एक लड़के ने दूसरे को जान से मार दिया।

7. मागरेटा विथ ए स्ट्रॉ

मागरेटा विथ ए स्ट्रॉ, एक अन्य फिल्म है, जो बाईसेक्सुअल्स के मुद्दे को उठाती है। बाईसेक्सुअल्स के जीवनों में आने वाले असमंजस को यह फिल्म समाज के सामने रखती है। कहानी लैला की है, जो मस्तिष्क पक्षाघात से पीड़ित है। वो दो लोगों को पसंद करती है। उसका अपने एक पुरुष साथी के साथ अंतरंग सम्बन्ध है, जैसे ही यह बात उसकी महिला साथी को मालूम होती है। वह समझ नहीं पाती और लैला को छोड़ देती है। 

बाइसेक्सुअलिटी को लेकर समझ बनाना और लोगों के साथ संवेदनशीलता से पेश आना ज़रूरी है। खुद बाईसेक्सुअल्स खुद से जूझ रहे होते हैं और बाहरी दुनिया फिर उन पर अलग-अलग तरह के दबाव बनाती है।

 8. अलीगढ़

हाल की फिल्मों की बात अगर करें, तो अलीगढ़ एक फिल्म आई थी, जिसमें मनोज वाजपेयी ने एक समलैंगिक की भूमिका निभाई थी। रामचन्द्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मराठी भाषा साहित्य का प्रोफेसर है और उसका एक रिक्शा चालक के साथ शारीरिक संबंध होता है, जिसे कैमरों में कैद करके उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया जाता है और उसे विश्वविद्यालय से निकाल देते हैं।

फिल्म मानव जीवन की निजता के उल्लंघन के कई सवालों को समाज के सामने रखती है। किसी व्यक्ति के निजी क्षणों को कोई कैसे सार्वजनिक कर सकता है और उसके कारण उस इंसान के सार्वजनिक जीवन की समाप्ति हो जाती है। समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली सेक्शन 377  का 2018 में समाप्त होना इस दिशा में एक सार्थक पहल है।

9. कपूर एण्ड संस

एक फिल्म है कपूर एण्ड संस, जिसमें फवाद खान ने समलैंगिक लेखक का रोल किया है, जो विदेश में रहता है। देश लौटने पर उसके लैपटॉप में उसकी माँ उसके साथी के साथ कुछ अंतरंग फोटो देख लेती है और उसको कहती है कि कुछ तो सोचा होता हमारे बारे में या छि: शर्म नहीं आती इन वाक्यों ने इस विषय पर समाज की सोच को हमारे सामने रख दिया था।

लोग क्या सोचेंगे, आगे क्या होगा? लोक-लाज जैसे शब्दों ने सैंकड़ों सालों से लोगों की अंदर की खुशियों को बंद कर रखा है और उनके सोचने-समझने की शक्ति को क्षीण कर रखा है, जबकि हम दूसरों को तभी खुश रख सकते हैं जब हम खुद खुश हों।

10. शुभमंगल ज़्यादा सावधान

यहां शुभमंगल ज़्यादा सावधान जैसी फिल्में हैं, जिनमें हल्के-फुल्के मज़ाक के साथ इस विषय को उठाया है। बॉम्बे टॉकीज़ फिल्म में शादीशुदा एक आदमी और उसकी पत्नी के इंटर्न के बीच बनती-बिगड़ती कहानी को यह फिल्म खूबसूरती से बयां करती है। दोस्ताना जैसी फिल्म में इस विषय का एक टच था, लेकिन मज़ाक के साथ। लेसबियन रिश्तों को लेकर फिल्म ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ का नाम लिया जा सकता है।

इस तरह हम देखें, तो कुछ कोशिशें हुई हैं, जब सिनेमा ने इस विषय पर खुलकर बात की है और एक स्तर पर सार्थक बात की है, जिस तरह के समाज में हम रहे हैं, वहां ये छोटी-छोटी कोशिशें बहुत अहम हैं। कई बार गाँवों , छोटे शहरों जहां लोगों के बीच संवाद कम है, संसाधन कम हैं, वहां सिनेमा लोगों तक इस मुद्दे को ले जाने का एक बेहतर साधन है।

काफी सारी बातें हमें फिल्मों से ही पहले-पहल मालूम चलती हैं। जैसे जब फायर फिल्म रिलीज हुई, हम हाई स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल बंक करके फिल्म देखना, उन दिनों एक महत्वपूर्ण काम हुआ करता था। जब दो औरतों को फिल्म में पहली बार एक दूसरे को चूमते देखा, उस वक्त, तो हम सबको बहुत अजीब लगा, लेकिन बाद में हमारी समझ पुख्ता हुई, तो लगा ऐसा भी हो सकता है। 

गलत कुछ नहीं, बस अलग है, क्योंकि कई बार तो लोग अपनी सेक्सुअलिटी को ठीक से एक्सप्लोर ही नहीं कर पाते। जहां तक लर्निंग का सवाल है, वो हमेशा एक साधन से नहीं कई साधनों से होती है। अगर हम फिल्म देखते हैं, कुछ पढ़ते हैं और कुछ संवाद करते हैं, तो नए  विचार बनते हैं और इसके साथ ही लोग सोचने लगते हैं और फिर अभी तो मीलों दूरी तय करनी है और इसके साथ ही बहुत सारे ऐसे विचारों का टूटना अभी बाकी है। 

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