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फिल्म समीक्षा : शेरनी वन, वन्यजीवन, पर्यावरण और मर्दवादी पितृसत्ता पर दहाड़ती है

फिल्म समीक्षा : शेरनी वन, वन्यजीवन, पर्यावरण और मर्दवादी पितृसत्ता पर दहाड़ती है

हाल ही में अमेज़न प्राइम पर विद्या बालन की एक फिल्म रिलीज हुई जिसका नाम शेरनी है। दरअसल, इसकी कहानी पर्यावरण से लेकर पितृसता के संबंध को बयान करती है। यही नहीं, यह फिल्म जंगली जीवों और उनसे जुड़ी राजनीति पर भी प्रकाश डालती है। इसमें मुख्य बात यह है कि फिल्म शेरनी अपनी कहानी सुनाने के साथ- साथ एक महिला फॉरेस्ट अफसर की कहानी को भी साथ ही साथ बयां करती है, जो मर्दो के वर्चस्व वाली नौकरी में अपना काम बस ठीक से करना चाहती है। 

इस फिल्म की कहानी में एक शेरनी है, जिसको पकड़ने के लिए पूरा वन विभाग लगा हुआ है। वह मार दी जाती है, परंतु वह अपने दो सुंदर शावकों को छोड़ जाती है। दूसरी शेरनी, विद्या विंसेट है, जो कि एक फॉरेस्ट ऑफिसर है।  वह अपने घर से लेकर बाहर ऑफिस तक दोनों जगह हमारे समाज की पितृसत्ता से अपनी लड़ाई लड़ती रहती है। वह हमारे समाज की पितृसत्ता से ना ही अपने घर में घुटने टेकती है और ना ही अपने दफ्तर में मौजूद मर्दवादी व्यवहार के सामने।

दरअसल, वह दफ्तर में हमारे समाज की पितृसत्ता (मर्दवादी) सोच से लड़ रही है, तो अपने घर में औरत-मर्द का भेद पति-पत्नी के रिश्ते को भी व्यावहारिक नहीं रहने देता, इस बात से भी लड़ रही है।

विद्या विन्सेंट की कहानी के साथ सबसे खास बात यह है कि वह अपनी ज़िन्दगी की तमाम दिक्कत-परेशानियों से भागती नहीं है। वह मज़बूती से लड़ती है, टिकी रहती है और ठोकर खाने के बाद संभल भी जाती है और फिर नए सिरे से संघर्ष करने लगती है।

वह अपने दफ्तर में ना ही आर्दशवादी बातों के बीच फंसकर रहती है और ना ही अपने घर में आदर्श बहू-पत्नी के तयशुदा ढांचे में। वह अपने मन के खिलाफ हो रही चीज़ों के लिए दफ्तर में भी संघर्ष करती है और घर में ज़बरदस्ती संस्कृति और सभ्यता के नाम पर लादी जा रही बातों के खिलाफ भी।    

क्या है फिल्म शेरनी की असल कहानी?

निर्देशक अमित मसुर्कर ने फिल्म शेरनी की कहानी के मुख्य बिंदु को अधिक महत्व देने के लिए मुख्य पात्र फॉरेस्ट ऑफिसर विद्या विन्सेंट (विद्या बालन) को रचा है। वह वन विभाग के काम करने के तरीकों से परेशान है और नौकरी छोड़ना चाहती है।

जो चार-पांच साल की ऑफिस पोस्टिंग के बाद फील्ड पर तैनात हुई है। जहां पेड़ लगाने के सरकारी आदेश पर जानवर चराने की ज़मीन पर सागवान के पेड़ लगा दिए गए हैं और तांबे की खदान का काम चल रहा है, जहां जंगल में एक शेरनी आदमखोर हो गई है। वह जंगल के समीपवर्ती कुछ गाँवों के स्थानीय निवासियों को घायल कर चुकी है। शेरनी को पकड़ने के लिए जंगल में कैमरे लगाए जाते हैं। पहरेदारी बढ़ाई जाती है, यहां तक कि दफ्तर में यज्ञ-हवन भी कराया जाता है, परंतु शेरनी को पकड़ने में कामयाबी नहीं मिलती है। 

इस समय राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, तो राजनीति भी तेज़ है। विद्या विन्सेंट( विद्या बालन) किसी भी तरह से आदमखोर बाघिन के शिकार के पक्ष में नहीं है। विद्या का सीनियर अफसर बंसल (बृजेन्द्र काला) अपनी ज़िम्मेदारी उठाना नहीं चाहता है। इसलिए वह उस आदमखोर शेरनी को मारने के लिए प्राइवेट शिकारी रंजन राजहंस उर्फ पिंटू भैया (शरत सक्सेना) की मदद लेता है। इसी बीच यह भी पता चलता है कि शेरनी के दो बच्चे भी हैं। उस समय पूरा वन विभाग शेरनी को मारना चाहता है और विद्या शेरनी को बचाकर नेशनल पार्क छोड़ना चाहती है।

विद्या अपने इस मकसद में कामयाब होती है या नहीं? उसे दफ्तर में अपने अभियान के लिए किस पितृसत्तात्मक माहौल को झेलना पड़ता है? यह सब जानने के लिए आपको शेरनी फिल्म देखनी होगी। आप यकीन रखें कि प्रकृति और प्राकृतिक जीवों के साथ हमारा व्यवहार और हमारी सोच कैसे पितृसतात्मक है? इसकी जानकारी आपको फिल्म देखने के बाद ज़रूर हो जाएगी।

क्यों देखनी चाहिए फिल्म शेरनी?

इस फिल्म के निर्देशक अमित मसुर्कर ने शेरनी की कहानी सुनाने के लिए बृजेंद्र काला, शरत सक्सेना, इला अरुण, नीरज काबी, विजय राय और विद्या बालन के साथ पर्यावरण के साथ पितृसता व्यवहार के पक्ष को रखने के लिए जो जैसा है, उसको वैसा ही रहने दिया है।

जिसकी वजह से वह कई बारीक बातों को पकड़ने में कामयाब हो सके हैं। मसलन जंगल के जानवरों की सुरक्षा, मूलभूत सुविधाओं और जानकारी के अभाव में काम करते जंगल के सुरक्षाकर्मी, जंगल पर आश्रित जीवन की उम्मीद में जी रही आदिवासी महिलाएं, प्रकृत्ति को बर्बाद करती खदानें। यह सारी बातें जिस तरह से इस फिल्म की कहानी के कथानक में आती हैं, वह बेवजह ड्रामा खड़ा नहीं करती हैं जैसा है, वह ठीक वैसा कह देती हैं।

इस फिल्म की कहानी में जंगल को उसकी खूबसूरती के साथ फिल्माना और एक संवेदनशील और पर्यावरण प्रेमी के रूप में विद्या वालन के किरदार को नियंत्रित और सयंमित दिखाना काबिले तारीफ है। वहीं हसन नूरानी के रूप में विजय राज का अभिनय बिल्कुल सामान्य है और अन्य कलाकार भी अपने अभिनय के साथ काफी संतुलित दिखे हैं।

जो कहानी को नाटकीय बनने से रोकते हैं। यही कहानी की मज़बूती बन जाती है। इन सब के साथ कहानी में ना, तो हिंसा है, ना बंदूकों का बेवजह गर्जन, ना ही बेवजह ठूंसा गया सेक्स, ना ही आपस में एक-दूसरे को दी गई गाली-गलौज और ना ही किसी भी प्रकार की अश्लीलता है। जो परिवार के साथ बेहिचक मनोरंजन का मौका देती है।

शेरनी के संवाद आम जनमानस से पर्यावरण संरक्षण की अपील करते हैं

टाइगर है, तभी तो जंगल है, जंगल है, तभी तो बारिश है, बारिश है, तो पानी है, पानी है, तो इंसान है। गाँव के जंगल मित्रों के रूप में कहलवाया गया यह संवाद जंगल कितना भी बड़ा क्यों ना हो, शेरनी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है।

नीरज काबी का यह संवाद कि अगर विकास के साथ जीना है, तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ, तो विकास बेचारा उदास हो जाता है। यह संवाद आम जनमानस के समक्ष एक अपील की तरह सामने आता है, जो पर्यावरण और विकास, वन एवं वन्य जीवों के साथ इंसानी रिश्तों और हमारी सरकार की पर्यावरण एवं वन्य जीवों के संरक्षण की सरकारी नीतियों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।

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