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कविता : राजतंत्र की तानाशाही से डरो

कविता : राजतंत्र की तानाशाही से डरो

डरो, बार-बार डरो

लगातार डरो

हज़ार बार डरो, हर समय डरते रहो

पर किससे डरना है, क्यों डरना है?

 

ये वो तुम्हें बताएंगे

डर की पाठशाला के सारे पाठ, वही तुम्हें पढ़ाएंगे

डर की प्रतिक्रिया कैसी हो, वो तुम्हें सिखा देंगे

और जो नहीं करना आया तुम्हें, वो कर के दिखा देंगे

 

डरो

नहीं, तो जो तुम्हारी जी हुजूरी करते हैं

वो तुम्हारे बगल खड़े हो जाएंगे

जो दबे हैं, तुम्हारे पांव तले

कल को तुमसे बड़े हो जाएंगे

 

डरो

क्योंकि ये कल के बच्चे

तुमसे सवाल कर रहे हैं

पढ़ने-लिखने की उम्र है जिनकी

वो देश भर में बवाल कर रहे

 

डरो

हर कोई जो अलग है

उससे तुम्हें डरना है

हर एकता के ख्याल को खंडित

तुम्हें ही तो करना है

 

डरो

सबसे ज़्यादा तो उनसे डरो

जो कर रहे भलाई हैं

ये सारे दंगे, ये सारी फसाद

ये इस भलाई की कमाई है

 

डरो

पर डर का बदला तुम्हें भी

डरा के ही लेना है

हर इंकलाब के ख्याल

को मुंह तोड़ जवाब देना हैं

 

डरो

तुम्हें अपने डर को

गुस्से में बदलना है

और इस गुस्से की आग में हर

बेखौफ को झोंक देना है

 

डरो

क्योंकि, अगर नहीं डरोगे तो

ये खुद तुम्हें डराएंगे

सत्ता के यंत्रों से

खुद तुम्हें सताएंगे

तुम्हारी हर आवाज़ को मोहरा ये बना लेंगे

 

और फिर उससे डरने वालों को

पहले से और ज़्यादा डराएंगे

दबा देंगे तुम्हारी हर संवेदना पर लगी चोट

से निकले लफ्ज़ को

और फिर इन डरे हुए लोगों को

तुम्हारे पीछे लगाएंगे

 

डरो

पर इस डर से लाभ किसका ये ज़रूर

तुम सोच लेना

तुम्हारे डर से जीत किसकी ये ज़रूर

तुम खोज लेना

 

और जो ना खोज पाएं तो एक विकल्प

बाकी है कि डरो, बार-बार डरो

लगातार डरो हज़ार बार डरो,

हर समय डरते रहो,

बस डरते रहो, बस डरते रहो।

 

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