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कविता : हम ज़िन्दा मुर्दे हैं

कविता : हम ज़िन्दा मुर्दे हैं

मुर्दे रेत में दफन हैं

इसकी वजह है हम जीते-जागते लाश

जो इन मुर्दों से आ रही बदबू को सूंघ नहीं पा रहे

जो इन मुर्दों से हटते कफन को देख नहीं पा रहे

गंगा माँ भी अपने किनारों पर अपने बच्चों की ये दशा देख रो देती होगी

और इन ज़िन्दा मुर्दों को देख गुस्से से भर जाती होगी

 

ज़िन्दा मुर्दे

जो ना उस माँ की चीख सुन पा रहे हैं

जिसने अपना पुत्र खोया

ना उसके आंसुओं को देख पा रहा हैं

और बोलना, वो तो कभी सीखा ही नहीं

परसाई के केचुओं की तरह अपनी आपबीती

पर कोई प्रतिशोध नहीं जगा रहा है

 

हम ज़िन्दा लाशों की खोई हुई संवेदना

किसी की आंखों से पानी बन कर बह रही है

हमारी बुजदिली मौत के पहले की

किसी की सांस की कमी से पैदा तड़प बन गई

कुत्ते जब इन शवों को नोंच रहे थे

वो हमारी हैवानियत का प्रतीक है

 

हम ज़िन्दा लाशों से ये उम्मीद करना बेकार है

कि इन जलती चिताओं की गर्मी से हमारा खून खौलेगा

कि हम भी अपने स्वामियों से सवाल करेंगे

कि ये मौन तोड़ हम पूछेंगे कि जब आपकी ज़रूरत थी

जब आपको अपना कर्तव्य निभाना था

तो आप अपने लाभ में लगे हुए थे

 

कि जब हमारे अपने मौत से लड़ रहे थे

तब आप अपनी सत्ता की ऊंची कुर्सी पर

बैठ उस ऊंचाई से हमें अनदेखा कर रहे थे

कि आप हमें हमारा हक कम दे रहे थे

और उसका प्रचार ज़्यादा कर रहे थे

 

ये उम्मीद हम ज़िन्दा लाशों से ना करो

क्योंकि हम में सिर्फ नफरत के विचार हैं

ये उम्मीद हमसे ना करो

क्योंकि हमारी सारी सहानुभूति सिर्फ अपने हुज़ूर से है

ये उम्मीद हमसे ना करो

क्योंकि हम इस उम्मीद के लायक नहीं हैं।

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