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कविता- केवल प्रेम ही इस तिलिस्म की चाबी है

कविता- केवल प्रेम ही इस तिलिस्म की चाबी है

मुरझाई सांसों की हसरतें, ले रही थीं विदाई

बंद हो रही थीं आंखें, दिखती थी परछाई

मन थमा फिर मद्धम पड़ गया, मैं अचेत था

सिमटने लग गया मेरा वजूद, समय रेत था

जब आंख खुलती भीतर भावना द्रवित थी

जीवन के गुज़रे किस्सों की तस्वीरें उमड़ी थीं

दिल के अपने किस्से थे,  पलकें जिन पर भीगी थीं

दिन अपनी बातें कहता था, रातें सपनों में जीती थीं

करवट की बंदिशों पर उमंगे बहुत अंगड़ाती थीं

बदन की दुर्दशा देख, आत्मा गीत गुनगुनाती थी

हां, अलविदा कहना कभी आसान नहीं होता

भय था, अंधकार था और अनिश्चितता छाई थी

सूक्ष्म जीव में फंसी चेतना, भूली अपनी गहराई थी

ये आना जाना, बंधन मेरे अंतर्मन से परे है

अधूरा काम अधूरा मन, कर्म बोझिल खड़े हैं

इस आत्मयात्रा में अंदर इतनी हलचल थी

जन्म-जन्मांतर में थकी वक्त की उलझन थी

केवल प्रेम ही जीवन के तिलिस्म की चाबी है

अंत अंतहीन है, सब खत्म होकर भी सब बाकी है। 

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