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आज़ादी के 73 सालों बाद भी ग्रामीण भारत आधारभूत स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है

आज़ादी के 73 सालों बाद भी ग्रामीण भारत आधारभूत स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है

भारत क्षेत्रफल के नज़रिए से दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम के कोने-कोने तक यहां गाँव बसे हैं। इसलिए कहा जाता है कि “भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।”

अब जहां देश की आत्मा बसती है, तब तो और ज़रूरी हो जाता है कि हम वहां की मौजूदा ज़रूरत अर्थात स्वास्थ्य व्यवस्था सिस्टम को टटोलें और देखे कि ज़मीनी हकीकत क्या है? विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की उस सिस्टम तक पहुंच कितनी आसान है? हम महिलाओं की बात विशेष रूप से इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में देश की इस आधी आबादी के लिए अब भी बहुत सी सुविधाओं तक आसानी से पहुंच नहीं है।

इंटरनेट के इस आधुनिक दौर में जहां शहर की आधी आबादी के लिए मोबाइल एप्प के ज़रिये डाक्टर और दवाओं की घर-घर तक पहुंच संभव है, उसी दौर में देश के रीढ़ कहे जाने वाले गाँवों की आधी से ज़्यादा आबादी मेडिकल स्टोर के नीले, पीले और हरे पत्ते वाली गोलियों पर निर्भर है। उनकी ज़िंदगी झोलाछाप डॉक्टरों के नुस्खों पर निर्भर करती है। 

ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि जब महामारी ने बड़े-बड़े विकसित देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था को हिला कर रख दिया है, तो पहले से ही कमज़ोर हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में क्या बदलाव आए हैं? दूसरा बुनियादी सवाल यह है कि एक तरफ देश के सभी बड़े ज़िला अस्पतालों को कोविड अस्पतालो में बदला जा रहा है, तो वहां बाकी आपातकालीन बीमारियों के लिए क्या व्यवस्था है और इसके बारे में लोग क्या सोचते हैं?

आज भी ग्रामीण भारत आधारभूत स्वास्थ्य सेवा के ढांचे से वंचित है

इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढने के लिए हम उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले स्थित रामपुर बबुआन गाँव पहुंचे और वहां के लोगों से इस सम्बन्ध में बात की। इसी क्रम में हमने वहां की स्थानीय निवासी लालती देवी से बात की, 34 साल की लालती देवी, एक पढी-लिखी गृहणी हैं। उन्होने हमें बताया कि छोटी-मोटी बीमारियों के लिए कोई किसी डॉक्टर के पास नहीं जाता है।

एक, तो इतनी गरीबी है कि दो वक्त के खाने का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है। उस पर डॉक्टर को देने के लिए ही पैसा कहां से कोई लाएगा? हमने उनसे जानना चाहा कि आपके ज़िले के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर आम जनमानस के लिए चिकित्सा की भी मुफ्त व्यवस्था है, उसके बारे में आप क्या सोचती हैं? इस पर लालती देवी कहती हैं कि मैं अकेली औरत हूं, मेरे पति शहर में काम करते हैं और वहीं रहते हैं, तो बच्चों की ज़िम्मेदारी मेरे ही ऊपर है।

हमारे क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ब्लॉक में बना है, जो यहां से कम से कम 8-10 कि.मी दूर है। मैं या मेरे जैसा कोई भी, वहां हर छोटी-छोटी बात पर नहीं जा सकता है। इसके अतिरिक्त वहां जाने का साधन तक नहीं है। ऐसे में जब भी मेरे घर में कोई बीमार होता है, तो हम मेडिकल स्टोर से दवा लाकर खा लेते हैं और वैसे भी अब के समय में तो लोग वैसे ही ज़िला अस्पताल जाने से डरते हैं कि कहीं कोरोना जांच हो गई और कुछ निकल आया, तो एक और आफत है।

गाँव वालों के बीच एक भ्रांति कोरोना के टीका को लेकर भी है। इस भ्रांति की वजह से वह स्वास्थ्य केंद्र जाने से डरने लगे हैं। उन्हें इस बात का भय है कि यदि कोई जाएगा, तो वहां उसे पकड़ कर कोरोना का टीका लगा देंगे। महामारी के समय के अपने अनुभव साझा करते हुए लालती देवी बताती हैं कि पिछले साल मुझे महिलाओं से संबंधित कुछ समस्या हो गई थी। मेरे पति बाहर थे, मैं किससे कहती?

ऐसे बाकी किसी को ऐसी निजी समस्या के बारे में कहना मुझे अच्छा नहीं लगा, ऊपर से कोरोना का डर और अस्पताल दूर होने के चक्कर में मैंने अपने पति के आने का इंतज़ार करना ही उचित सही समझा। हालांकि, मेरी बीमारी ठीक हुई, लेकिन इंतज़ार के चक्कर में मेरा इंफेक्शन बढ गया था।

ग्रामीण भारत में वहां के लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की सुनिश्चित बहाली करना आवश्यक है

हमने लालती की सारी बातों के निचोड़ में इतना ज़रूर समझ लिया कि अस्पतालों का गाँवों से दूर होना उन परिवारों की महिलाओं के लिए ज़रूर एक बड़ी चुनौती है, जिसमें सिर्फ महिलाएं ही घर को संभाल रही हैं। प्रशासन को सोचना होगा कि ऐसी परिस्थितियां क्यों हो रही हैं? जबकि इस साल बजट में वित्तमंत्री द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत बताया गया कि 64,185 करोड़ रुपये सरकार खर्च करेगी। 

इसके साथ-साथ ही 35,000 करोड़ अलग से कोविड महामारी के लिए निकाले गए हैं, जिसे सरकार का प्राइमरी, सैकेंडरी और टर्सियरी हेल्थ केयर पर खर्च करने का प्लान है। कुल मिलाकर पिछले साल के मुकाबले इस साल के राष्ट्रीय बजट में 137 फीसदी की बढोत्तरी की गई, जिसमें बताया गया था कि आम जनमानस के स्वास्थ्य हेतु कई हैल्थ सेंटर भी खोले जाएंगे। ऐसी स्थिति में लालती के सवाल हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं?

दूसरी तरफ संदीप भी इसी गाँव के निवासी हैं। हाल ही में इनकी मामी का बच्चेदानी का ऑपरेशन हुआ है। हमने उनसे जानना चाहा कि जब महामारी अपने चरम पर थी, तो उन्होंने कैसे इस बीमारी का सामना किया? इस पर संदीप कहते हैं कि मैं, तो चाहता था कि अपनी मामी को ज़िला अस्पताल में दिखाऊं, लेकिन अस्पताल की भागदौड़ मेरे बस की नहीं थी।

सरकारी अस्पतालों में बढ़ती नौकरशाही और भ्रष्टाचार

ऊपर से कोरोना के चलते वहां डॉक्टर और वहां के अन्य स्टाफ के लोग मरीज़ों को ठीक से देखते भी नहीं हैं, जब तक आपकी कोई अच्छी वहां जान-पहचान ना हो, तो मरीज़ की कोई सुनवाई ही नहीं होती है। ऐसे हालात बहुत पहले से हैं, लेकिन अब जब से कोरोना आया है, एक अलग ही छूत की बीमारी हो गई है। 

सरकारी अस्पताल में कोई डॉक्टर आपकी समय से जांच कर ले, तो समझ लो आपकी बड़ी किस्मत है। संदीप ने हमें बताया कि शुरुआत में उनकी मामी से उनकी सरकारी और निजी अस्पताल को लेकर थोड़ी चर्चा हुई थी, फिर अंत में उन्होने यही निर्णय किया कि चाहे जितना पैसा लग जाए इलाज, तो प्राइवेट अस्पताल में ही करवाएंगे।

संदीप की मामी प्रभा देवी, जिनकी उम्र 47 वर्ष है, जिनका अभी-अभी ऑपरेशन हुआ है। वे कहती हैं कि हमने पहले ही तय कर लिया था कि चाहे कर्ज़ा ले या खेत बेचें, लेकिन इलाज प्राइवेट अस्पताल से ही करवाएंगे, क्योंकि जीवन के साथ हम दांव नहीं खेल सकते हैं। ज़िला अस्पताल के बारे में ही बात करते हुए संदीप बताते हैं कि हमारे पड़ोस के गांव की लड़की को हाल ही में देर रात अचानक पेट दर्द की शिकायत हुई थी फिर उसे ज़िला अस्पताल ले गए और वो लड़की खत्म हो गई। लोगों और उसके परिवार वालों को लगता है कि यदि उसे निजी अस्पताल में दिखाते, तो शायद उसकी जान बच जाती।

महामारी के दौर में लोगो के अंदर स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर इतनी बड़ी शंका की स्थिति है। इसलिए भी लोग अस्पताल जाने से बच रहे हैं। इन सभी लोगों की बात से हम इतना अंदाज़ा ज़रूर लगा सकते हैं कि अभी भी ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में सरकार को बहुत काम करने की आवश्यकता है।

हमें विशेषकर महिला स्वास्थ्य के स्तर पर इसे और भी उन्नत बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए प्रशासन को एक विशेष कार्य योजना क्रियान्वित करने की ज़रूरत है, जिसमें ना सिर्फ दवा और डाक्टर उनकी पहुंच में हों, बल्कि उनका भरोसा भी निजी की अपेक्षा सरकारी स्वास्थ्य सेवा पर बढ़े, ताकि गरीब ग्रामीण महिलाएं अपने जीवन को सुरक्षित बना सकें।

नोट- यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अंतर्गत सुल्तानपुर, यूपी से राजेश निर्मल ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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